जम्मू-कश्मीर और झारखंड की नई विधान सभाएं के साथ 2014 का चुनावी साल समाप्त हुआ। एक तरह से यह पूरा साल गहराते हिंदुत्व के एजेंडे के साथ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत का साल रहा। केंद्र में सत्ता हासिल करने के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों में जीत का कमल लहराकर भाजपा ने झारखंड में अपने नेतृत्व में चुनाव-पूर्व सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंटस यूनियन से साझा सरकार बनाने के साथ जम्मू-कश्मीर में पहली बार भाजपा ने अहम राजनीतिक भूमिका हासिल की है। जिस तरह से जाट प्रभुत्व वाले राज्य में भाजपा ने गैर-जाट मनोहर लाल खट्टïर को मुख्यमंत्री बनाया, उसी तरह से आदिवासी राज्य के रूप में गठित किए गए झारखंड में भाजपा गैर आदिवासी रघुबर दास को मुख्यमंत्री बना रही है। जम्मू-कश्मीर में भाजपा का हिंदू को मुख्यमंत्री बनाने का सपना सच जरूर नहीं हो पाया क्योंकि मिशन 44 पूरा नहीं हुआ, लेकिन 25 सीटें हासिल कर राज्य की राजनीति में उसने अपने नए दबदबे का बखूबी इजहार जरूर कर दिया है। जम्मू-कश्मीर के इस चुनाव ने जम्मू और कश्मीर के बीच की फाल्ट लाइन (विभाजन रेखाओं) को खतरनाक ढंग से गहरा कर दिया है।
जम्मू-कश्मीर में हुए विधानसभा चुनावों में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को 87 सदस्यीय विधानसभा में सबसे ज्यादा 28 सीटें मिली हैं, जो पिछली बार के मुकाबले 12 अधिक हैं। उसके बाद भाजपा ने 25 सीटें जीती हैं। जबकि साल 2002 में भाजपा के पास महज एक सीट थी, जो 2008 में बढ़कर 11 हो गई थीं। भाजपा को इस चुनाव में सबसे अधिक वोट मिले-23 फीसदी। इस मामले में पीडीपी दूसरे स्थान पर रही 22.6 फीसदी वोटों के साथ। नेशनल कांफ्रेस को सिर्फ 15 सीटें मिली है। पूर्व अलगाववादी सज्जाद गनी लोन की पार्टी पीपुल्स कांफ्रेस ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था और उसे अपने इलाके में जीत मिली।
कश्मीर घाटी में भाजपा पैर नहीं जमा पाई, उसके तमाम उम्मीदवादों की जमानत तक जब्त हुई। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। इन चुनावों में कश्मीर घाटी से भाजपा को महज 2.2 फीसदी वोट मिले, जिससे यह बात साफ हो गई कि कश्मीर घाटी के मतदाताओं ने सिरे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के तमाम दावों पर विश्वास नहीं किया। चौंकाने वाली बात यह रही कि लद्दाख क्षेत्र में भी भाजपा को कोई सीट नहीं मिली जबकि लोकसभा चुनावों में यहां भाजपा ने जीत हासिल की थी। विधानसभा में यहां की चारों सीटें कांग्रेस के पास रही। भाजपा में जम्मू से कांग्रेस के वोट बैंक पर जबर्दस्त ढंग से कब्जा किया।
झारखंड में भी भाजपा को आदिवासी वोटों पर विजय नहीं हासिल हुई लेकिन वह सरकार बनाने तक पहुंच गई, वहीं जम्मू-कश्मीर में घाटी के वोटों को हासिल न करने के बावजूद वह दूसरे नंबर पर पहुंच गई। सवाल यह उठता है कि भाजपा अपने मिशन कश्मीर में सफल हुई या नहीं। कश्मीर की राजनीति की कमान अपने हाथ में लेना और जम्मू-कश्मीर के बीच फाल्ट लाइन को बढ़ाना ही भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का असल मकसद रहा है। इस मकसद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गेनाइजर ने 9 नवंबर 2014 के अंक में 67 साल पुराने अपने संपादकीय को दोबारा प्रकाशित कर जम्मू और लद्दाख की जनता को मिलाकर कश्मीर में अपना प्रभाव बढ़ाने की बात कही थी।
जम्मू-कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों में यह गंभीर विभाजक लकीर खिंच गई है। इसकी ओर कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने भी इशारा किया। आउटलुक से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि कश्मीर घाटी और लद्दाख की जनता ने साफ-साफ भाजपा को नकारा है। जिस तरह से भाजपा ने हिंदुत्व कार्ड खेला है और जम्मू में विभाजन के अपने पुराने एजेंडे को लागू किया है,वह खतरनाक है। दूसरी तरफ है कि नेशनल कांफ्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि, अगर पीडीपी के लिए भाजपा अछूत नहीं है तो हमारे लिए क्यों होगी? हालांकि पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने बहुत समझदारी के साथ यह कहा कि यह निर्णायक जनादेश नहीं है लेकिन यह निश्चित रूप से नेशनल कांफ्रेस और कांग्रेस के खिलाफ है। कश्मीरी सियासत में गहरी दिलचस्पी रखने वाली कर परिचय भी दो का कहना है, कश्मीर की आवाम ने जिस बड़े पैमाने पर वोट दिया, वह इस उम्मीद से दिया कि कश्मीरियत पर आंच न आए और हमारी पहचान के साथ कोई धोखा न हो, लेकिन जो जोड़-तोड़ हैं, वे अलगाव पैदा करने वाले हैं। इसका क्या असर कश्मीर घाटी की जनता पर पड़ेगा, यह तो समय बताएगा लेकिन फिलहाल यह साफ है कि कश्मीरी समाज में एक बार फिर उथल-पुथल का दौर शुरू हो रहा है।
उधर झारखंड की जनता ने सभी बड़े नेताओं को सिरे से खारिज कर दिया। हेमंत सोरेन (दुमका), अर्जुन मुंडा (खरसावां), बाबूलाल मरांडी (गिरिडीह और धनवार), सुखदेव भगत (लोहरदगा), राजेंद्र प्रसाद सिंह (बेरमो), मधु कोड़ा (मझगांव) और विनोद सिंह (बगोदर), सुदेश महतो जैसे दिग्गज इस बार चुनाव हार गए। भाजपा का मिशन 41 फेल हो गया। लेकिन वह अपनी सहयोगी आजसू पार्टी के साथ मिल कर बहुमत के आंकड़े (42) को छू भर सकी है। राज्य के गठन के 14 साल बाद भी किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया है। इस चुनाव परिणाम की एक खास बात यह रही कि झारखंड मुक्ति मोर्चा की साख बरकरार है। उसने पिछली विधानसभा में अपनी ताकत (अठारह सीट) में एक सीट का इजाफा ही किया है, लेकिन राजद और जदयू के साथ-साथ वाम दलों का सूपड़ा साफ हो गया। कांग्रेस भी 2009 का प्रदर्शन दोहरा नहीं सकी है। भाजपा को 31.9 फीसदी वोट मिला जबकि लोकसभा चुनाव में पार्टी को 40.7 प्रतिशत वोट मिला था। भाजपा की सहयोगी आजसू को 3.6 फीसदी वोट मिले। दोनों को मिलाकर 35 प्रतिशत वोट मिले। दूसरी तरफ कांग्रेस, राष्टï्रीय जनता दल, जनता दल यनाईटेड, झामुमो का वोट जोड़ दें तो यहां भी लगभग 35 प्रतिशत वोट मिला। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अगर कांग्रेस, राजद, जदयू, झामुमो गठबंधन के फार्मूले पर चुनाव लड़ते तो शायद भाजपा को इतनी बड़ी जीत नहीं मिलती राज्य में 31 सीटों पर भाजपा गठबंधन दूसरे स्थान पर रहा जबकि झामुमो 17 सीटों पर दूसरे स्थान पर रहा। भाजपा के विधायक दल के नेता चुने गए रघुवर दास राज्य के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए हैं। मजदूर राजनीति और जयप्रकाश आंदोलन से तपकर निकलने वाले दास झारखंड के उपमुख्यमंत्री की भी जिम्मेदारी संभाल चुके हैं तथा भाजपा झारखंड प्रदेश के अध्यक्ष भी रहे हैं। जमशेदपुर पूर्व से लगातार 1995 से विधायक चुने जाने वाले दास की संगठनिक क्षमता को देखते हुए भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें अपनी टीम में उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। झारखंड से भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने वाले वह केवल तीसरे व्यक्ति हैं। उनसे पहले करिया मुंडा और बाबूलाल मरांडी को भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने का श्रेय मिला था। झारखंड में बनने वाली भाजपा की सरकारों में मंत्री रहने का श्रेय दास को हासिल है। राज्य में मंत्री रहते हुए भी बिना सुरक्षा के घूमना तथा लोगों से मिलना उनका शगल रहा है। जमशेदपुर में कमजोर लोगों की लड़ाई की वह अगुवाई करते रहे और जमशेदपुर की समस्याओ ंको लेकर विधानसभा में लगातार आवाज उठाते रहे। इसी कारण से वह अपने क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं। दास वर्ष 2005 में बनी अर्जुन मुंडा की सरकार में नगर विकास और वाणिज्य कर विभाग के मंत्री बनाये गए। वर्ष 2009 मे जब झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा ने मिलकर सरकार बनाई तो इस शिबू सोरेन सरकार में दास को उप मुख्यमंत्री बनाया गया और उन्हें वित्त, वाणिज्यकर, ऊर्जा, नगर विकास, आवास एवं संसदीय कार्य जैसे विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन चुनावों के साथ ही आजादी के बाद पहली बार देश में कांग्रेस से ज्यादा भाजपा की सरकारें हैं। पिछले 14 महीने में कांग्रेस ने 13 राज्यों के चुनाव गंवा दिए जिनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा, सिक्किम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड शामिल हैं। जबकि भाजपा ने अपने दो राज्य मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हैट्रिक मारी है तथा सात नए राज्यों पर कब्जा किया है।
साथ में महेंद्र कुमार