केंद्र सरकार किस तरह मौजूदा पर्यावरण कानूनों को और अधिक कॉरपोरेट-निवेशोन्मुखी बनाने की तैयारी कर रही है, इस पर बात करने से पहले आइए एक निगाह मौजूदा स्थिति पर डालते हैं। पर्यावरण सुरक्षा कानून में प्रदूषण करने वाले की शिनाख्त कर, दोषी के ऊपर जुर्माना लगाने का नियम जरूर है, लेकिन पर्यावरण को हो चुके नुकसान की भरपाई कैसे हो, कौन करे-इसको लेकर स्पष्ट प्रावधानों की सख्त कमी है। इसका फायदा प्रदूषण करने वाली कंपनियां और उनकी रक्षा में खड़ा राजतंत्र बखूबी उठाता है। दिक्कत यह है कि मौजूदा कानून में अगर कोई इलाका प्रदूषित हो जाता है तो उसे वापस कैसे ठीक (रीस्टोर) किया जाए, इसका कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।
जमीन पर हालात किस कदर खराब हैं, यह बड़ौदा के हेमा केमिकल्स के मामले से समझा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ौदा में हेमा केमिकल्स द्वारा फैलाए गए केमिकल कचरे पर सक्चत फैसला देते हुए सन 2004 में कहा था कि इसे साफ कर देना चाहिए। इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक निगरानी समिति बनाई थी, जिसने सन 2004 में इस मामले पर फैसला दिया था कि कंपनी इस कचरे को हटाए और कंपनी के खिलाफ 17 करोड़ रुपये का अंतरिम जुर्माना भी ठोका था। लेकिन हुआ क्या ? कुछ नहीं ? सारा केमिकल कचरा वहीं पड़ा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी समिति के निर्णय का अमलीकरण नहीं हुआ, कचरा साफ नहीं हुआ। देखिए सन 2004 से सन 2015 हो गया। वजह ? भारतीय पर्यावरण सुरक्षा कानून की कमी। ये कानून प्रदूषणकर्ता को जुर्माने के अलावा किसी फौजदारी धारा में कोई सजा नहीं सुना सकते। लिहाजा, इनका कोई डर नहीं होता है।
ऐसे अनगिनत मामले हैं। हाल ही में बड़ौदा जिले के एफलुएंट चैनल प्रोजेक्ट एरिया में भीषण जल प्रदूषण का मामला सामने आया है। यहां के दो गांवों, लूना और दूधवाडा का पानी लाल हो गया है यानी इस प्रोजेक्ट ने पानी में जा रहे घातक रसायनों का बहाव नहीं रोका। सैकड़ों लोगों का जीवन संकट में डाला। अब इसका कौन जिम्मेवार है, किसे सजा मिलनी चाहिए-इस बारे में कानून पूरी तरह खामोश है।
मेरा यह स्पष्ट मानना है कि इस तरह लाखों लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने वाले प्रदूषणकर्ताओं के खिलाफ फौजदारी मामला बनना चाहिए, दीवानी का नहीं। अगर इस प्रदूषण की वजह से लोगों की जान गई है तो आईपीसी की 302 धारा का मामला और अगर मरने का डर हो तो 307 धारा के अंतर्गत मामला दर्ज होना चाहिए। यह जनसंहार का मामला है, इसे कानून में ऐसे ही लिखने में क्या दिक्कत है। लेकिन ऐसा नहीं है और कोई इस बारे में बात भी नहीं करना चाहता। हम जैसे लोग जो इन सवालों को उठाते हैं उनके खिलाफ करोड़ों रुपये की मानहानि ठोक दी जाती है। गुजरात के वापी इलाके में फैले जानलेवा प्रदूषण को बेनकाब करने की वजह से मेरे ऊपर 25 करोड़ रुपये का दीवानी मानहानि का मुकदमा ठोक दिया गया है और तीन साल की सजा वाला आपराधिक मानहानि का मुकदमा कर दिया गया है। आज की तारीख में पर्यावरण कार्यकर्ता की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय से लेकर कानून बनाने वालों का रवैया मुख्यत: यह है कि प्रदूषण करने वाले जुर्माना भर दें। अब तो आलम यह है कि पहले जुर्माना भर दें और भी प्रदूषण करें। तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियां, कॉरपोरेट घराने आज यही कर रहे हैं। उन्हें जुर्माना भरने से कोई खास दिक्कत नहीं है, क्योंकि उनका लाभ इससे करोड़ों गुना ज्यादा है। लिहाजा, वे कानून भंग करते हैं और कुछ पैसा भर देते हैं। प्रदूषण से दूषित जमीन, दूषित पानी, नदी, टूटते पहाड़ इसकी परवाह सिस्टम में किसी को नहीं है।
इसके उलट मोदी सरकार ने पहले से इतने लचर पर्यावरण कानूनों को और रीढ़विहीन बनाने की कवायद शुरू कर रखी है। केंद्र सरकार ने टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यम समिति का गठन किया जिसे छह पर्यावरण कानूनों की समीक्षा करने का जिम्मा सौंपा गया। समिति ने पर्यावरण सुरक्षा कानून (1986), 2.वन संरक्षण कानून (1980), 3.वन्यजीवन सुरक्षा कानून (1972), 4. जल (प्रदूषण पर नियंत्रण और बचाव) कानून-1974, 5. वायु (प्रदूषण नियंत्रण एवं बचाव) कानून-1981 और 6. भारतीय वन कानून 1927 की समीक्षा करके महज तीन महीने में एक नए विस्तृत (अम्ब्रेला) कानून की अनुशंसा की, जिसे पर्यावरण कानून (प्रबंधन) कानून 2014 (एएलमा) की सिफारिश की है। इसके नाम से ही जाहिर है कि अब हम पर्यावरण की रक्षा के बजाय उसका प्रबंधन करने पर जा रहे हैं। विकास की अंधी रफतार में सरकार पर्यावरण की चिंता से मुक्त दिखती है।
(लेखक जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता हैं और सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में कई मामले लड़ रहे हैं)
(भाषा सिंह से बातचीत पर आधारित)