कानून अवाम को अधिकार देने वाले, सुकून देने वाले, अन्याय को मिटाने वाले माने जाते हैं, लेकिन जब कानूनों की जकडऩ अवाम की जुबां पर ताले लगाने लगे, कलम को रोकने लगे, असहमति के स्वर पर नकेल कसने लगे, रहन- सहन, खान-पान पर प्रतिबंध लगाने लगे, निजता में सेंध करने लगे, पिता को किसी बच्चे का स्वाभाविक अभिभावक माने लगे, यौनिकता पर पाबंदी लगाने लगे, कभी भी, कहीं भी आतंकी का ठप्पा लगाने लगे, फर्जी एनकाउंटर पर खामोश रहे...तब?
ऐसे तमाम कानूनों पर वृहद चर्चा जरूरी है। सिर्फ कानून ही नहीं, अब तो एग्जीक्यूटिव आदेश के जरिये भी आजादी पर निगरानी बैठाई जा रही है। यह सब इतने चरणों, इतनी परतों में एक साथ हो रहा है कि बिना एक कड़ी को दूसरी कड़ी से जोड़े राष्ट्रीय परिदृश्य को समझना मुश्किल है। कुछ हालिया वाकयों पर चर्चा के साथ आगे बढ़ते हैं -
मुंबई के होटल के कमरे या लॉज में टिके सहयोगियों / दोस्तों/ प्रेमियों /पति-पत्नी /रिश्तेदारों को दिन दहाड़े पुलिस अपराधियों की तरह पकड़ती है। उन्हें कमरों से निकाल घसीट कर, जलील करते हुए सडक़ पर खड़ा कर देती है। मुंबई पुलिस ने करीब 40 युगलों की निजता को छलनी किया, उन्हें सार्वजनिक तौर पर बेइज्जत किया। उन पर सार्वजनिक जगह पर आपत्तिजनक व्यवहार का केस लगाया जाता है। यह सब किया बॉम्बे पुलिस एक्ट के तहत। भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 294 में भी ऐसे प्रावधान हैं।
नौजवान लड़कियों-लडक़ों को थप्पड़ मारे जाते हैं, उन पर दबाव बनाया जाता है कि वे अपने परिजनों को फोन करें और सारी घटना बताएं। इसमें पकड़ी गई एक लडक़ी ने कहा, आप मसान फिल्म का शॉट, असल जिंदगी में देख रहे हैं। कितने लोग इसमें से आत्महत्या के कगार पर पहुंचे, कितने करेंगे, इसकी किसी को फिक्र है क्या। दूसरी लडक़ी निशा (नाम बदला हुआ) ने कहा, हमें प्यार करने का, किसी के साथ अपनी मर्जी से बाहर जाने का, साथ रहने और सोने तक का हक है। पुलिस की इस तरह की हरकत शर्मनाक है। इस घटना के बाद जब हंगामा मचा तो पुलिस ने लीपा-पोती करते हुए जांच के आदेश दिए। यहां सवाल यह है कि आखिर 2015 में आजाद भारत में ऐसे कानून की क्या जरूरत है जो प्रेम और प्रेम की अभिव्यक्ति, युवाओं की आजादी को अपराध बनाए।
ऐसे ही सवाल उस समय भी उठे जब केंद्र सरकार ने अचानक 857 पोर्न साइट्स को बंद करने का आदेश जारी किया। इसके लिए सरकार ने कोई कानून का हवाला नहीं दिया, बस एक आदेश जारी किया। वह भी तब जब इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पोर्न पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। इसका जबर्दस्त विरोध हुआ और सरकार के कदम को निजता में उल्लंघन करने वाला बताया गया। इंटरनेट सेवा प्रदाताओं ने भी सरकारी कदम का कड़ा विरोध किया और कहा कि ऐसा करना संभव नहीं है। इस प्रतिबंध को बाद में सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में वापस लेना पड़ा और सफाई देनी पड़ी कि वह नैतिक पुलिसिंग नहीं करना चाहती। अदालत में सरकारी वकील को कहने पर मजबूर होना पड़ा कि अगर दो लोग अपने बेडरूम में पोर्न देख रहे हैं तो उनके खिलाफ मामला नहीं बनता। इस पूरे प्रकरण पर देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस वी.एन. खरे ने कहा कि सरकार नागरिकों की निजता में अतिक्रमण कर रही है। हमारे बेडरूम में अगर सरकार-पुलिस घुसने लग जाए तो फिर कहां है आजादी और कैसी है आजादी। पोर्न देखना चाहिए या नहीं देखना चाहिए, इस पर अलग से बहस हो सकती है, लेकिन यहां सवाल सरकारी अतिक्रमण का है। जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने यह प्रतिबंध थोपने की कोशिश की थी, बिना किसी कानून का हवाला दिए हुए, उसे व्यापक आजादी के हनन से जोड़ कर देखा जा सकता है।
यौनिकता की आजादी पर पहले से ही कानूनी ताला जड़ा हुआ है। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को समलैंगिक सेक्स को अपराध घोषित करता है। समलैंगिकों को बराबरी का हक देने की बहुप्रतीक्षित मांग को सुनना तो दूर की बात, समलैंगिक संबंध आज भी आजाद भारत में आजाद नहीं हो पाए हैं। अंग्रेजों के समय बनाए गए इस प्रावधान को बदलने की मांग लंबे समय से चल रही है लेकिन न तो उसे कोई राजनीतिक वरदहस्त प्राप्त हो रहा है और न ही हमारी अदालतों का साहसिक कदम उनके पक्ष में उठ पा रहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में समलैंगिक सेक्स को वैधानिकता दी थी, लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत ने 2013 में इसे पलट दिया। इस तरह समलैंगिकता आज की तारीख में भारत में कानूनन अपराध है। इस अपराध में 10 साल से लेकर आजीवन कारावास का प्रावधान है। इस मुद्दे पर कानूनी लड़ाई लड़ने वाले संगठन लॉयर्स कलेक्टिव का कहना है कि 377 की परिभाषा अस्पष्ट है। समलैंगिक अधिकारों के लिए संघर्षरत संगठन नाज की लक्ष्मी नारायण का कहना है कि धारा 377 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,15, 19 और 21 का निषेध करता है। इनके तहत हर नागरिक को बराबरी, अभिव्यक्ति की आजादी और निजी स्वतंत्रता का अधिकार मिलता है।
भारतीय कानून, सिर्फ यौनिकता के मुद्दे पर ही नहीं बल्कि आत्मसम्मान के लिए संघर्षरत समाज के हाशिये पर ढकेले गए लोगों को भी वंचना का पाठ पढ़ाते हैं। इसकी एक नजीर भारत में मैला ढोने की कुप्रथा का उन्मूलन करने वाले कानूनों में भी देखी जा सकती है। मैला ढोने वालों को जातिवादी दंश से मुक्त कराने के लिए देश की संसद ने दो बार कानून बनाए, पहली बार 1993 में और दूसरी बार 2013 में। दोनों दफा मैले से मुक्ति के लिए तड़प रहे समुदाय को बाहर निकालने के बजाय, इन कानूनों ने उनकी मुक्ति की राह में नई-नई किस्म की अड़चन अड़ाई। जैसे 1993 के कानून में मैला ढोने वाला व्यक्ति सीधे अपनी मुक्ति के लिए सरकार का दरवाजा नहीं खटखटा सकता था, उसे जिलाधिकारी के मार्फत आना होता था। अब 2013 में बने नए कानून में मैला ढोने वालों की परिभाषा जरूर विस्तृत की गई लेकिन उनके पुनर्वास की राह को टेढ़ा कर दिया है। साथ ही जो लोग अपनी गरिमा और आत्मसम्मान के लिए खुद मैला ढोना छोड़ चुके हैं, उन्हें पुनर्वास की परिधि से बाहर कर दिया गया है। यह मानव गरिमा के लिए संघर्षरत संगठनों जैसे सफाई कर्मचारी आंदोलन के लिए खासी परेशानी का सबब बन गया है। एक तरह कानून यह बता रहा है कि मैला ढोने वाले लोगों को तब तक इस बर्बर प्रथा में रहना चाहिए, जब तक सरकार उनके पास खुद न पहुंचे, उनकी पहचान न करे और उनका नाम अपनी सूची में दर्ज न करे। सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेजवाड़ा विल्सन इसे सरकार द्वारा मैला ढोना जारी रखने की कवायद के तौर पर देखते हैं।
संविधान द्वारा देश के नागरिकों को प्रदत मौलिक अधिकारों को बंदिशों में रखने के लिए सरकार कानूनों का सहारा लंबे समय से ले रही है। खान-पान की आजादी है लेकिन बहुत से राज्यों में गौ-मांस पर प्रतिबंध लगाया गया है। हाल में महाराष्ट्र ने न सिर्फ गौ-मांस पर प्रतिबंध लगाया बल्कि इसको रखने को भी अपराध की संज्ञा दी है। देश के तमाम कोनों से खास तौर से उत्तर भारत से ऐसी खबरें आए-दिन आती रहती हैं जिनमें यह बताया जाता है कि ट्रक में कटने के लिए जानवर जा रहे थे, (जिसे अक्सर गाय ही समझा जाता है) और लोगों ने इसमें आग लगा दी। इस बारे में दिल्ली के कानून विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर अनूप सुरेंद्रनाथ बताते हैं कि ये प्रतिबंध व्यक्ति के भोजन के अधिकार का हनन है। लेकिन दिक्तत यह है कि जिस तरह समाज में, चाहे वह राजनीति हो या कानून बहुसंख्यकवाद का बोलबाला है, उसमें इन सारे फैसलों-कानूनों को चुनौती देने का काम मुश्किल होता जा रहा है।
इसकी एक बानगी मुंबई धमाकों के इकलौते अभियुक्त याकूब मेनन को फांसी के फैसले में देखने को मिली। देश में फांसी की सजा के खात्मे के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे वरिष्ठ अधिवक्ता युग चौधरी का कहना है, 'यह बुनियादी अधिकारों का सीधे-सीधे हनन है। जिस तरह तमाम कानूनों में फांसी की सजा का प्रावधान किया जा रहा है, वह दिखाता है कि हम सभ्य समाज की ओर नहीं बढ़ रहे हैं। किसी भी स्वरूप में असहमति के स्वर को कुचलने के लिए सरकारें नए-नए कानूनों का सहारा ले रही है।’ नागरिक समाज पर, एनजीओ पर केंद्र सरकार की कोप दृष्टि को इसी कड़ी में देखा जा सकता है। केंद्र सरकार की नीतियों को चुनौती दे रही संस्थाओं जैसे ग्रीनपीस पर गाज गिराने के बाद, गुजरात 2002 नरसंहार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने में सफल रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति जावेद को जिस तरह सीबीआई जांच से परेशान किया जा रहा है, वह सबके सामने है। यहां विरोध की आवाज को कुचलने के लिए फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है।
कानूनों से पीड़ितों और आम नागरिकों को किस तरह वंचित किया जा रहा है, इसकी बेहतरीन मिसाल भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और परमाणु दायित्व कानून है। इस बारे में परमाणु मुद्दे पर काम कर रहे वैज्ञानिक सुव्रत राजु ने आउटलुक को बताया, 'परमाणु दायित्व कानून भारत के नागरिकों को परमाणु दुर्घटना होने पर अधिकतम मुआवजा 2,500 करोड़ रुपये तक सीमित करता है। जबकि फुकुशिमा जैसे हादसे बताते हैं कि नुकसान इससे कई गुना ज्यादा होता है। इसके अलावा यह देश के नागरिकों से परमाणु आपूर्तिकर्ता के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का अधिकार छीनता है।’ वहीं केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश किसानों से उनकी जमीन के स्वामित्व का हक ही छीन लेते हैं।
आतंकवाद विरोधी कानूनों की भारत में भरमार है और ये सब नागरिकों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करने वाले हैं। सशस्त्र सुरक्षा विशेषाधिकार कानून (अफस्पा), गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून, पब्लिक सेक्रेट कानून, छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सेक्रेट कानून, राष्ट्रद्रोह विरोधी कानून...यानी यह सूची बेहद लंबी और यातनाओं की दास्तानों से अटी हुई है। हाल ही में गुजरात सरकार द्वारा तीसरी बार पारित किया गया आतंकवाद निरोधी कानून भी खतरे की घंटी है, क्योंकि यह राज्य और पुलिस को अपार शक्तियां देता है। इन कानूनों पर आगे के लेखों में विस्तृत चर्चा है। इसके साथ ही उन पहलुओं पर बात करनी जरूरी है, जिनपर कानून ही नहीं हैं। इस बारे में आउटलुक को वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने बताया, 'कश्मीर में करीब 8-10 हजार लोग जबरन गायब कराए गए। राज्य की इस हिंसा से निपटने के लिए कोई अलग से कानून नहीं है, जबकि भारत में जबरन गायब करने के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए हुए है।’ इसी तरह देश में हिरासत में होने वाली हिंसा के हजारों मामले हर साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास पहुंचते हैं, लेकिन देश में इससे निपटने लिए कोई कानून नहीं है। क्यों? मुठभेड़ के मामले में कोई जांच तब तक नहीं होती, जब तक मारे गए लोगों के परिजनों में से कोई अपील नहीं करता।
अल्पसंख्यकों पर किस तरह आतंक विरोधी कानून कहर बरपा कर रहे है, इसकी अनगिनत जिंदा दास्तानें हमारे समाज की हकीकत हैं। इससे टकराने का काम कर रहे उत्तर प्रदेश के प्रतिष्ठित वकील मो. शोएब ने आउटलुक को बताया कि इन कानून के अलावा आईपीसी की 115 से 124ए धाराओं को हटाया जाना चाहिए। देशद्रोह के खिलाफ प्रावधानों की ये धाराएं लोकतंत्र के खिलाफ हैं। इसके अलावा सीआरपीसी की 151 धारा जो शांति व्यवस्था भंग करने के खिलाफ, 108 की धारा जो संदेहास्पद स्थितियों में मिलने संबंधी है, को खत्म करना जरूरी है क्योंकि इनका गलत इस्तेमाल हो रहा है।
कुल मिलाकर सारी स्थिति कवि गोरख पांडेय की मशहूर कविता कानून की पंक्तियों की याद दिलाती हैं:
लोहे के पैरों में भारी बूट/ कंधे से लटकती बंदूक/ कानून अपना रास्ता पकड़ेगा/ हकड़ियां डलकर हाथों में/तमाम ताकत से उन्हें जेलों की ओर खींचता हुआ/ विरोध की जुबान पर चाकू की तरह चलेगा