केजरीवाल लगातार डायरेक्ट डेमोक्रेसी की भी बात करते रहते हैं। हैरानी की बात यह है कि डायरेक्ट डेमोक्रेसी की बात करने वाला शख्स भारत में जो प्रातिनिधिक प्रणाली है, उतने लोकतंत्र का भी पक्षधर नहीं है। पार्टी के भीतर एकछत्र राज करने की प्रवृति क्या किसी भी तरह के लोकतंत्र की रक्षा कर सकती है। दिल्ली चुनाव में सिर्फ केजरीवाल को केंद्र में रखकर चुनाव लड़ा गया। पार्टी के बड़े-बड़े होर्डिंग्स में सिर्फ केजरीवाल की महानता नजर आती थी। इससे विवेकवान लोगों को थोड़ी असुविधा तो होती थी लेकिन वे इस रणनीति को अनदेखा कर खुद को झूठी दिलासा देते थे कि चुनाव जीतने के लिए शायद यह जरूरी है।
कुछ यूरोपीय देशों में कई संगठन डायरेक्ट डेमोक्रेसी के लिए आंदोलन कर रहे हैं। स्विटजरलैंड देश में तो डायरेक्ट डेमोक्रेसी लागू है। अगर वहां जनता किसी बात को ठान लेती है तो वह जनमत संग्रह यानी रेफरेंडम करा लेती है। राइट टू रिकॉल यानी कोई नेता सही काम न करे तो उसके खिलाफ भी रेफरेंडम कर उसे पद से हटाया जा सकता है। लेकिन भारतीय डायरेक्ट डेमोक्रेसी के नायक को देखें तो वह दो लोगों की आलोचना सहने तक के लिए तैयार नहीं है। क्या डायरेक्ट डेमोक्रेसी है कि केजरीवाल एक साथ पार्टी के मुखिया और राज्य सरकार के मुखिया का पद भी हथियाए हुए हैं? क्या उनकी पार्टी में केजरीवाल से बराबर कोई भी काबिल व्यक्ति नहीं है जिसे दूसरी जिम्मेदारी दी जा सके? प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे नेता भी जब केजरीवाल के दोनों पदों पर बने रहने के सवाल पर हाथ खड़े कर देते हैं तो उनकी भी मजबूरी समझी जा सकती है। लेकिन उन्हें भी समझना पड़ेगा कि व्यक्ति को पार्टी और सिद्धांतों से बड़ा मान लेने पर भी सिर्फ निरंकुशता ही आगे बढ़ती है।
डायरेक्ट डेमोक्रेसी का हल्ला मचाने वालों से इतना भी नहीं होता कि वह अपने अलावा बाकी लोगों की भी आवाज सुन लें। सिर्फ असहमति की आवाज को ठिकाने लगाने वाली चालें ही न चलते रहें।
केजरीवाल का नाम कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने में सामने आऩे के बाद पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में आए एक बड़बोले नेता ने केजरीवाल का जिस तरह बचाव किया यह पार्टी के पतन की एक बानगी भर है। भ्रष्टाचार मुक्ति और डायरेक्ट डेमोक्रेसी की बात करने वालों का यह रूप देखकर जनता के पास मोहभंग के अलावा और कौन-सा रास्ता बचता है। इस तरह की समझौतापरस्त राजनीति की वजह से ही जनता धीरे-धीरे जन आंदोलनों और न्याय के संघर्षों में अपनी आस्था खोने लगती है।
केजरीवाल ने बड़े जोर-शोर से अन्ना हजारे के साथ मिलकर स्वराज की बात की थी। स्वराज पर बंदे ने एक किताब भी लिख डाली। लेकिन स्वराज के मूल आदर्शों को लागू करने में वह क्या भूमिका अदा कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। वह अपना प्रेरणास्रोत गांधी के स्वराज की अवधारणा को बताते हैं। लेकिन स्वराज के पीछे सत्ता और ताकत के विकेंद्रीकरण की जो अवधारणा है, आज का यह यह मीडिया निर्मित नायक बिल्कुल उसके खिलाफ खड़ा है। जनाधार विहीन चापलूस नेताओं को अपने आसपास जमा कर और उन्हें बेहिसाब ताकत देकर किस तरह स्वराज आएगा, इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है। पारदर्शिता की बात करने वालों की पार्टी के भीतर ही कोई पारदर्शिता नहीं है। कार्यकर्ताओं की भावनाओं को भड़काने वाले ये नेता कभी उनके आलोचनात्मक विवेक को नहीं उभरने देते। बिना आलोचनात्मक विवेक के लोकतंत्र कैसे फलेगा-फूलेगा?
इतिहास ने यह कई बार साबित किया है कि लोकलुभावन नारों के साथ सत्ता में आने वाले लोग कैसे एक समय के बाद क्रूर तानाशाह बन जाते हैं। अगर समय रहते आप से जुड़े ईमानदार लोगों ने सवाल उठाने शुरू नहीं किए तो यह पार्टी भी भविष्य में एक लोकतंत्र विरोधी तानाशाह पैदा करने के लिए अभिशप्त हो सकती है।