दिल्ली विधानसभा चुनावों के फैसले ने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) को स्पष्ट समर्थन दिया है। इस वक्त यह निष्कर्ष निकालना दिलचस्प होगा कि भाजपा की ‘बिरयानी-प्रेम-गद्दारों’ की स्थायी नफरत से उसका चुनावी रिटर्न कम हो गया है।
विधानसभा चुनाव में इस बार दिल्ली भाजपा द्वारा किए गए ध्रुवीकरण चुनाव की गवाह बनी। लेकिन दिल्लीवासियों ने आजीविका के मुद्दों पर भारी मतदान कर आम आदमी पार्टी को एक बार फिर गले लगाया और ध्रुवीकरण को खारिज कर दिया। परिणामों ने बताया कि दिल्ली को केजरीवाल पर भरोसा है। हालांकि, नतीजों का एक और पहलू यह भी है कि भाजपा के आलोचक- विशेष रूप से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वि यह बात भूलने का खतरा मोल नहीं ले सकते।
दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्रों के लिए वर्तमान में भाजपा का वोट शेयर औसतन 38.50 प्रतिशत है। पिछली मई में राष्ट्रीय राजधानी की सात लोकसभा सीटों पर हुए मतदान में 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी की तुलना में यह निश्चित रूप से भगवा पार्टी के वोटों का क्षरण है। तब की आप सात लोकसभा सीटों में से पांच पर प्रदर्शन में भाजपा से बहुत पीछे थी। वह आज की अनुपस्थित कांग्रेस से भी पिछड़ कर तीसरे स्थान पर रही थी। हालांकि उसके 32 फीसदी वोट शेयर में 6 फीसदी का इजाफा है, जो 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने बनाया था। हालांकि विश्लेषण के बाद भाजपा द्वारा हासिल किया गया निर्वाचन क्षेत्रवार का वोट शेयर विपक्ष के लिए चिंता का बड़ा कारण है।
राजनैतिक पर्यवेक्षक बार-बार इंगित करते हैं कि दिल्ली मतदाताओं का बड़ा हिस्सा में पूर्वांचली (उत्तर प्रदेश और बिहार से आए लोग) हैं। ये लोग पूरी दिल्ली में जगह-जगह फैले हुए हैं और कुछ हिस्सों में अच्छा प्रभुत्व रखते हैं। सालों से, पूर्वांचली वोट पर दिल्ली के हर राजनीतिक दल की नजर रहती है। शीला दीक्षित के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान, कांग्रेस ने छठ उत्सवों की शुरुआत की, जो प्रदूषित यमुना नदी के किनारे अनिवार्य रूप से इस वोट ब्लॉक को खुश करने के लिए किया जाता था। आप ने भी इसे उत्साह के साथ जारी रखा। यही वजह थी कि भाजपा ने ‘रिंकिया के पापा’ के रूप में राज्य प्रमुख मनोज तिवारी को पूर्वांचलियों को लुभाने का काम सौंपा। पूर्वांचलियों के अलावा, दिल्ली में पटपड़गंज, करावल नगर, लक्ष्मी नगर और विश्वास नगर जैसे विधानसभा क्षेत्रों में पहाड़ी राज्यों, विशेष रूप से उत्तराखंड के प्रवासियों की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। जबकि दिल्ली की आबादी में बड़े पैमाने पर पूरे देश के प्रवासी शामिल हैं, तब भाजपा या उसके विरोधियों को वर्तमान वोटिंग पैटर्न के राजनीतिक और चुनावी निहितार्थ को समझने के लिए पूर्वांचली या पहाड़ी वोट के महत्व को समझना महत्वपूर्ण है।
पूर्वांचली और पहाड़ी प्रवासियों की महत्वपूर्ण आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान पैटर्न की एक सरसरी झलक यह दिखाती है कि हार के बाद भी भाजपा अपने वोट शेयर में सुधार करने में सफल रही है। उदाहरण के लिए, पटपड़गंज निर्वाचन क्षेत्र को लें, जहां भगवा पार्टी के उम्मीदवार उत्तराखंड प्रवासी उम्मीदवार रविंद्र सिंह नेगी ने केजरीवाल के सबसे करीबी मनीष सिसोदिया को कड़ी टक्कर दी। शिक्षा क्षेत्र में आप सरकार की ऐतिहासिक उपलब्धियों का चेहरा रहे सिसौदिया, मतगणना में नेगी से लगातार पीछे रहे और बाद में बमुश्किल 3200 वोटों के अंतर से पटपड़गंज जीतने में कामयाब रहे। पटपड़गंज में न केवल पहाड़ी, बल्कि पूर्वांचली मतदाताओं का भी भारी जमावड़ा है। सिसोदिया का वोट शेयर 49.33 फीसदी रहा जो नेगी के 47.07 प्रतिशत से मामूली ऊपर है। करावल नगर निर्वाचन क्षेत्र की जनसांख्यिकीय संरचना बिलकुल पटपड़गंज की तरह है। यहां से भाजपा के मोहन सिंह बिष्ट ने आप के दुर्गेश पाठक के खिलाफ जीत हासिल की। बिष्ट का वोट शेयर अपने प्रतिद्ंवद्वी से 50 प्रतिशत से अधिक था।
भाजपा ने गांधी नगर, घोंडा, करावल नगर, लक्ष्मी नगर, रोहतास नगर और विश्वास नगर की जिन सीटों पर जीत हासिल की वो सभी दिल्ली के यमुना पार इलाके में हैं। और इन सभी सीटों पर निम्न मध्यवर्गिय पूर्वांचलियों और पहाड़ी वोट हैं।
अन्य विधानसभा सीटों पर जहां पूर्वांचली वोट बैंक के साथ भाजपा का बानिया, गुर्जर, उच्च मध्यम वर्ग के मतदाताओं का पारंपरिक भाजपा वोट आधार वहां भी भाजपा 40 फीसदी से अधिक वोट हासिल करने में कामयाब रही है। हालांकि पर्याप्त वोट शेयर जीत में नहीं बदला। लेकिन तथ्य यह है कि भाजपा ने अपने प्रदर्शन में सुधार किया है। वह अपने मतदाताओं को समझाने में सफल रही कि जो पार्टी दो महीने पहले तक दौड़ में भी नहीं थी उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।
अमित शाह द्वारा किए गए कुछ भाजपा कैंपेन में शाह ने भगवा के साथ सहानुभूति रखने वाले मतदाताओं के बीच पार्टी की स्थिति को स्पष्ट रूप से पुनर्जीवित और समेकित किया। अगर भाजपा इस एकजुटता को शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अपने तीखे हमलों के समर्थन के रूप में देखती है या अपने विधायी एजेंडे के सत्यापन के तौर पर जिसने नागरिकता संशोधन अधिनियम के जरिये देश में विभाजन पैदा कर दिया है तो दिल्ली चुनाव के दौरान बयानबाजी करने वाले शाह और उनके सहयोगियों को आने वाले दिनों में केवल चीख-चिल्लाहट मिलने वाली है।
देश के कुछ शेष द्विध्रुवीय राज्यों में कांग्रेस पार्टी या बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस या मायावती की बसपा और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सपा जैसे अन्य विपक्षी संगठन केजरीवाल से सीख सकते हैं कि ध्रुवीकरण के मुद्दों पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ सीधे मौखिक द्वंद्व में कैसे न पड़ा जाए। निश्चित रूप से यह याद नहीं किया जाना चाहिए कि, दिल्ली में बीजेपी एक दुर्जेय आप के खिलाफ थी जो पिछले पांच वर्षों की अपनी उपलब्धियों के संदर्भ में बहुत कुछ दिखाती थी और लगातार जनता से मजबूत संवाद रखती थी। भाजपा ने केजरीवाल और आप को भी शाहीन बाग पर अपने ध्रुवीकरण के घिनौने खेल में उतारने की कोशिश की थी। विपक्ष के पास अभी भी फिर से उठने का मौका है यदि वह दिल्ली विधानसभा चुनावों से सीख ले। उम्मीद है, भाजपा अपने हिंदुत्व कार्ड को कुछ दिन पीछे रखेगी क्योंकि मौजूदा चुनावी झटका ऐसी उम्मीदों के लिए घातक साबित हो सकता है।