इस भोज के मायने समझने से पहले आठ साल पुराने उस भोज पर चलते हैं जो हुआ ही नहीं। वाकया 2010 का है। पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी और बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार में भाजपा साझीदार। नीतीश ने भाजपा के दिग्गज नेताओं के सम्मान में एक भोज रखा था। लेकिन, उससे पहले बिहार के अखबारों में छपे एक विज्ञापन में नरेंद्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर देखकर नीतीश इस कदर भड़के कि भोज ही रद्द कर दिया।
वो अटल-आडवाणी की भाजपा थी और नीतीश का भी रसूख था। बिहार में महादलितों, पिछड़ाें और पसमांदा मुसलमानों का वोट बैंक तैयार करने में वे कामयाब हो चुके थे। इसलिए, भोज रद्द होने के बाद भी भाजपा ने जदयू के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा। उस समय पड़ाेस के झारखंड में नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार करने पहुंचे, लेकिन नीतीश की जिद के कारण बिहार में उन्हें एंट्री नहीं मिली। बाद में 2013 में जब अटल-आडवाणी की छाया से निकलकर भाजपा ने मोदी युग में जाने का फैसला किया तो नीतीश ने अपनी अलग राह ले ली। इसके बाद अकेले चुनाव लड़ नीतीश कैसे हारे, महागठबंधन का सफल प्रयोग किया और फिर कैसे दोबारा भाजपा के साथी बने ये सब जानते हैं।
अब बात सात मई को पटना में हुए एनडीए के भोज की। इस भोज में पकवान तो पूरे थे लेकिन घटक दल रालोसपा के नेता और केंद्रीय राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की अनुपस्थिति लजीज व्यंजन में नमक कम होने का अहसास करा रही थ्ाी। खाने की मेज पर साथ-साथ बैठे नीतीश कुमार, सुशील मोदी, रामविलास पासवान, रविशंकर प्रसाद जैसे बड़े नेता बंद जुबान से एक-दूसरे की थाली की थाह ले रहे थे। लेकिन, अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए बिहार में एनडीए के घटक दल सीट बंटवारे की गुत्थी कैसे सुलझाएंगे इसका जवाब न इस भोज से मिलना थ्ाा, न मिला।
असल में इस भोज की पृष्ठभूमि आठ साल पुराने उस न हो सके भोज से ही जुड़ी है। यह भोज एक बार फिर राज्य में जदयू की भूमिका बड़े भाई के तौर पर सुनिश्चित करने के मंसूबे से आयोजित की गई थी। पर रालोसपा के नेताओं ने यह कहकर कि उपेंद्र कुशवाहा को राज्य में एनडीए का नेता माना जाए तो सफलता मिलेगी, नीतीश के एनडीए का चेहरा बनने के मंसूबों पर पानी फेर दिया। यही कारण है कि जदयू के राष्ट्रीय महासचिव श्याम रजक को फिर से कहना पड़ा कि राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 25 पर हमारा दावा बरकरार है।
असल में यह समस्या नीतीश की खुद की खड़ी की हुई है और इससे निकलने की राह में वे कभी पुरानी हिस्सेदारी की मांग करते हैं तो कभी भोज के बहाने साथियों का मन टटोलने की कोशिश कर रहे हैं। 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा ने रालोसपा और लोजपा के साथ मिलकर लड़ा था और 31 सीटें जीती थी। ऐसे में जदयू भी जानती है कि 25 सीटें उसकी थाली में आने नहीं वाली। हाल के उपचुनावों के नतीजे बताते हैं कि नीतीश का सियासी रसूख भी आठ साल पहले जैसा नहीं है। अकेले चुनाव लड़ने का वो जोखिम उठा नहीं सकते और महागठबंधन में वापसी की संभावना भी बेहद कम है। इसलिए रामविलास पासवान के सुर में सुर मिलाकर और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की भूली-बिसरी मांग को फिर से उठाकर वे भाजपा पर दबाव डालने की कोशिश कर रहे हैं। यह रणनीति कामयाब नहीं हुई तो वे साथियों के साथ खाने की मेज पर लौटे हैं।
वैसे भी, डूबती नौका पर सफर करने का रामविलास पासवान का रिकॉर्ड नहीं रहा। वहीं, उपेंद्र कुश्वाहा के साथ भी नीतीश के रिश्ते बहुत सहज नहीं हैं। इसलिए, मोदी-शाह की भाजपा नीतीश की थाली में मनमाफिक सीट परोसेगी यह अब भी दूर की कौड़ी ही लगती है।