90 के दशक में जिस मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का दौर शुरू हुआ था वह इस वक्त देश में अपनी दूसरी पारी खेलने को तैयार है।
पिछले 2014 लोकसभा चुनाव में देश की राजनीति में एक और दिलचस्प मोड़ आया था। जिसमें दलितों का ध्रुवीकरण कर उन्हें अपने पाले में करने की राजनीति में बहुत हद तक भारतीय जनता पार्टी कामयाब दिख रही थी जिसका सीधा उदाहरण 2014 की लोक सभा और 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की जबरदस्त जीत से दिखा। लेकिन अब समीकरण दुबारा 90 के दशक की तरफ पलटने को आतुर दिख रहा है जिसका उदाहरण 2 अप्रैल को भारत बंद का सफल होना एवं दलितों का एससी-एसटी एक्ट में बदलाव पर विरोध करने में साफ़ दिखता है। पिछले एक दशक में इतना उग्र दलित आन्दोलन आमतौर पर देखने को नहीं मिला था। लेकिन क्या दलितों का उग्र होना देश की राजनीति को एक नई दिशा में ले जा सकता है?
बीते 2014 लोक सभा चुनाव में अगर हम उत्तरप्रदेश की बात करे तो जहां भाजपा ने उत्तरप्रदेश में कुल 80 में से 73 सीटें हासिल कर 44% वोट से अपनी जीत दर्ज की थी तो वहीँ बसपा को 19% तथा सपा को 20 % वोट से संतोष करना पड़ा था। भाजपा ने जाति समीकरण की इस रणनीति में जाठव समूह को छोड़कर अन्य सभी दलित तथा यादव समूह को छोड़कर अन्य सभी पिछड़े वर्गों (ओबीसी) का ध्रुवीकरण कर, धर्म के अनुसार वोट करने के लिए समीकरण बिठाया था। जिसका खासा परिणाम मोदी-अमितशाह और भाजपा की कामयाबी से देखा जा सकता है।
यहां यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है की 2014 में हाशिये पर आ गयी बहुजन समाज पार्टी ने अपने दलित वोट बैंक को अब दुबारा जीवित कर लिया है और समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाने के बाद ये गठबंधन ओबीसी एवं दलितों को रिझाने में कामयाब दिख रहा है। जिसके परिणामस्वरूप ही भाजपा के अन्दर से दलित बचाव की आवाज आ रही है। हाल ही में भाजपा के पांच सांसदों जिसमें छोटे लाल, उदितराज, ज्योतिबाई फूले आदि ने दलितों के लिए कुछ करने की प्रधानमंत्री से अपील भी की है। इसका सीधा मतलब है की राजनीति एक बार फिर करवट लेने को आतुर है जिसके केंद्र इस बार दलित होंगे।
गौरतलब है की सपा-बसपा अगर 2019 में उत्तरप्रदेश विधानसभा उपचुनाव जैसी ही रणनीति को बरकरार रखते हुए मिलकर चुनाव लड़ती है तो 42-46% वोट उनकी झोली में गिरते नजर आते है, ऐसे में बीते लोक सभा चुनाव में 73 सींटे हासिल कर, जीतने वाली भाजपा को 2019 में 58-60 सीटो का भारी नुक्सान झेलना पड़ सकता है।
जगजाहिर है की भाजपा की छवि सदैव से हिंदुत्व हितैषी रही है, जो इन सभी अटकलों के अनुसार भाजपा की मुश्किलों को और बढ़ाती है। इस तथ्य की गंभीरता को निश्चित तौर से भाजपा स्वयं भी जान चुकी है जिसके उदाहरण में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का अचानक स्वयं को पिछड़ा, गरीब और दलित का प्रतीक बताना और रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए घोषित करने जैसे पूर्व लिए गये निर्णय शामिल हैं। परन्तु ऐसे में यह देखना वाकई दिलचस्प होगा की सदैव से हिंदुत्व कार्ड खेलती रही भाजपा इस बार कैसे अन्य जातियों का दलित समीकरण बिठा स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करती है, वहीँ कांग्रेस में राहुल गांधी की अपरिपक्वता किस तरह से दलितों के साथ-साथ अन्य सभी जातियों का ध्रुवीकरण कर राजनीति में खत्म होती अपनी मौजूदगी मजबूत करेगी और अन्य सभी छोटे राजनीतिक दलों के साथ किस तरह से खुद को राजनीतिक सांचे में उतारेगी। बेशक इस समय सभी राजनीतिक अंश स्वयं को दलित हितेशी सिद्ध करने में लगे हुए है परन्तु असल में दलित किसको खुद का संरक्षक मानते है यह तो वक्त ही बताएगा....
(लेखक राजनीतिक चिंतक, रणनीतिकार एवं ग्लोबल स्ट्रेटेजी ग्रुप के फाउंडर चेयरमैन है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सेंसर बोर्ड के सदस्यरह चुके हैं।)