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कांग्रेस/ युवा तुर्क बनाम ओल्ड गार्ड: दिग्गजों से टकराव चरम पर, क्या युवा चेहरों को जोड़कर पार्टी का कायाकल्प संभव?

“राहुल-प्रियंका की जोड़ी ने कमान पर मजबूत पकड़ बनाई तो कांग्रेस के पुराने दिग्गजों से टकराव चरम पर...
कांग्रेस/ युवा तुर्क बनाम ओल्ड गार्ड: दिग्गजों से टकराव चरम पर, क्या युवा चेहरों को जोड़कर पार्टी का कायाकल्प संभव?

“राहुल-प्रियंका की जोड़ी ने कमान पर मजबूत पकड़ बनाई तो कांग्रेस के पुराने दिग्गजों से टकराव चरम पर पहुंचा, युवा चेहरों को जोड़कर क्या पार्टी का कायाकल्प संभव?”

यह कोरा संयोग हो सकता है। सितंबर के आखिरी दिनों में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष तथा वर्तमान अनौपचारिक कमानधारी राहुल गांधी युवा चेहरों जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और दलित एक्टीविस्ट जिग्नेश मेवाणी को पार्टी में शामिल कराने के लिए कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे थे। उनके साथ गुजरात इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल भी थे। इस तिकड़ी के जरिए पार्टी की छवि युवा तुर्क जैसी बनाने का संकेत दिया जा रहा था। ऐन उसी दिन पंजाब के कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू का इस्तीफा आ धमका, जो महज 72 दिन पहले ही नियुक्त किए गए थे। इतना ही नहीं, हाल ही में बड़ी ‘बेमुरव्वती’ के साथ रुखसत किए गए पंजाब के बुजुर्ग दिग्गज पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के दिल्ली पहुंचने की सुर्खियां चीखने लगीं। लेकिन राजनीति और खासकर दांव-प्रतिदांव के मौजूदा दौर में संयोग भी खास मायने रखता है। फिर, संयोग और मौके को लपक लेने की तेजी भी खास अहमियत रखती है। जैसा कि पर्वतराज हिमालय की तराई में स्थित उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में किसान प्रदर्शनकारियों को कुचल डालने की बेहद घृणित घटना के बाद प्रियंका गांधी वाड्रा ने यकीनन वाजिब सक्रियता दिखाई, जिसमें चार किसान, एक पत्रकार और तीन अन्य लोगों की मौत हुई और कई लोग जख्मी हो गए। प्रियंका को तीन दिनों तक ‘गैर-कानूनी’ हिरासत में रखा गया। बाद में उनके भाई राहुल गांधी भी अपने दो-दो मुख्यमंत्रियों के साथ वहां पहुंचे और सुर्खियों के हकदार बने।

राहुल गांधी

हिस्सेदारी

लेकिन महज सुर्खियां बटोरने और खास मौकों पर सक्रियता दिखाने भर से ही राजनीति का वास्ता नहीं होता है। बेशक, भाई-बहन की इस जोड़ी को कांग्रेस की जो कमान विरासत से अनायास हासिल है, चाहे वह ‘जहर’ ही क्यों न हो, उसके पीछे तकरीबन सवा सौ बरस से ज्यादा का इतिहास और अनगिनत विराट शख्सियतों का पराक्रम है (2013 में जयपुर कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाए जाने के वक्त राहुल गांधी ने सत्ता सियासत को ‘जहर’ ही कहा था)। लाजिमी है कि इतनी लंबी विरासत का बोझ भी बड़ा होगा और उसे सिर्फ मजबूत कंधे ही नहीं, सुथरा और संतुलित दिमाग भी चाहिए। लेकिन 2014 के आम चुनावों में सबसे बुरी हार और खासकर 2019 में दोबारा कमोवेश वैसे ही प्रदर्शन के बाद राहुल अपनी पार्टी के पुराने नेताओं से ही तालमेल नहीं बिठा पाए हैं, न ही पार्टी महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका ऐसा कर पाई हैं। यूं तो पुराने नेताओं से यह जुंबिश लंबे अरसे से जारी है, मगर अस्सी साल के करीब पहुंच रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह से पंजाब की गद्दी चुनाव के महज चार महीने पहले लगभग छीन लेने से टकराहट एक मायने में चोटी पर पहुंच गई।

नेता

नेतृत्व से नाराजगीः मनीष तिवारी, पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल

इसे न सिर्फ कैप्टन ने अपना ‘‘अपमान और जलालत’’ माना, बल्कि कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं ने इस पर गहरी नाखुशी जाहिर की, जिन्हें 2020 में पार्टी संगठन के चुनाव कराने और औपचारिक नेतृत्व कायम करने के लिए अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने के कारण जी-23 समूह कहा जाता है। कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘न जाने पार्टी में कौन फैसले ले रहा है’’ तो उनके घर पर युवा कांग्रेसियों ने टमाटर और अंडे फेंके। इससे पूर्व वित्त तथा गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी इतने आहत हुए कि उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘इस दौर में मौन रहना ही वक्त का तकाजा है,’’ जो अमूमन पार्टी के विवादों से दूर रहते हैं और जी-23 समूह में भी नहीं गिने जाते। जी-23 समूह और सभी पुराने नेता राहुल और प्रियंका के पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनसे भी पहले उनकी दादी इंदिरा गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़े हैं। कैप्टन तो राजीव गांधी के स्कूल के सहपाठी रहे हैं। सूत्रों की मानें तो कैप्टन को हटाए जाने के मौके पर सोनिया गांधी का (बकौल कैप्टन) ‘‘सॉरी अमरिंदर’’ कहना उनकी भी असहायता का ही संकेत देता है। अटकलें हैं कि सोनिया गांधी ने कुछ नेताओं से कहा कि उनकी भी अनसुनी हो रही है। 

सिब्बल

कपिल सिब्बल के घर के बाहर प्रदर्शन करते कांग्रेस कार्यकर्ता

हालांकि यह कोई छुपी बात नहीं है कि पार्टी के फैसले सोनिया गांधी से ज्यादा राहुल-प्रियंका की जोड़ी ही कर रही है। कहा तो यह जाता है कि प्रियंका के ही कारण सिद्धू को पंजाब पार्टी की कमान मिली, जिसके लिए तब कैप्टन तैयार नहीं थे। कैप्टन से युवा गांधियों की नाराजगी की एक वजह यह भी बताई जाती है कि उनसे 2017 के चुनावों से पहले राहुल ने पूछा कि क्या यह सही है कि नेता पद के लिए आपके नाम का ऐलान नहीं हुआ तो आप अलग पार्टी बना लेंगे। कैप्टन का जवाब था कि यह सही है। पहले सोनिया के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल पार्टी के तमाम नेताओं और बाहर की राजनैतिक बिरादरी में व्यापक रसूख के कारण हर फैसले की जमीन तैयार कर देते थे और नाराजगी दूर करने के उपाय निकाल लेते थे। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर में उनकी मौत के बाद ऐसा कोई सूत्रधार बचा नहीं है। तो, सवाल उठता है कि राहुल औपचारिक तौर पर अध्यक्ष की कुर्सी क्यों नहीं संभाल लेते? वे 2018 में गुजरात में पार्टी की बंपर कामयाबी, जब महज 12 सीटों से वहां सत्ता चुक गई थी, और मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनावों में जीत के दौर में बड़े धूम-धड़ाके के साथ अध्यक्ष बने थे। लेकिन 2019 में हार की जिम्मेदारी लेकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया तो सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। तबसे पार्टी में अध्यक्ष, संगठन के अन्य पदों और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के चुनाव का मामला लटका हुआ है। औपचारिक वजह कोरोना महामारी को बताया गया है। अब 16 अक्टूबर को कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है, जिसमें सूत्रों की मानें तो पार्टी अध्यक्ष पर बात होने की संभावना है। राहुल ने इस्तीफा देते वक्त यह भी कहा था कि गांधी परिवार से कोई सर्वोच्च कमान नहीं संभालेगा। लेकिन अब पार्टी के आला स्तर पर हुए फैसलों से लगता है कि पकड़ मजबूत बनाने और कोई ढिलाई न बरतने का मन बना लिया गया है। अरसे से कांग्रेस पर बारीक नजर रखने वालीं वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी आउटलुक से कहती हैं, “लगता है कि गांधी परिवार ने अब पार्टी कमान पर मुकम्मल पकड़ बनाए रखने का तय कर लिया है। बेशक, सोनिया पीछे हैं, मगर फैसले राहुल और प्रियंका ही ले रहे हैं।“

अध्यक्ष

यह नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने और फिर कैप्टन से कुर्सी छीनने की घटना में दिखा भी। सिद्धू के नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ खटकने और सिद्धू के इस्तीफा फेंक देने पर यह रुख अपनाने में भी दिखा कि यह राज्य का मामला है। मतलब यह कि सिद्धू या किसी नेता को एक हद से ज्यादा तवज्जो नहीं देना है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस कड़े रुख से पार्टी के मामलों को संभालने की सलाहियत राहुल और प्रियंका में है? सोनिया गांधी ने भले 1999 में कुछ कड़े तेवर के साथ तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी से अध्यक्ष पद हासिल किया हो, मगर बाद में उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की ऐसी सलाहियत दिखाई कि एक वक्त धुर विरोधियों से भी उनके रिश्ते सहज हो गए। इसकी मिसाल समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव हैं, जिनके असली मौके पर पीछे हटने से सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकी थी। इसके अलावा राकांपा प्रमुख शरद पवार, ममता बनर्जी जैसे तमाम विपक्षी नेताओं का भी उदाहरण है। ये सभी बाद में यूपीए में शामिल हुए या उसे समर्थन देने लगे। यही नहीं, वे कांग्रेस के तमाम ऐसे नेताओं को साथ लाईं, जो किसी न किसी कारण अलग हो गए थे। विरोधियों का मन जीतने का उनका कौशल भाजपा नेता सुषमा स्वराज के साथ भी दिखा था। स्वराज ने 2004 में उनके विदेशी मूल का मुद्दा तीखे ढंग से उठाया था और कहा था कि वे प्रधानमंत्री बनती हैं तो मैं अपना सिर मुड़ा लूंगी। लेकिन बाद में दोनों संसद में प्रेम से बतियाती दिखती थीं। लेकिन राहुल के दौर में पार्टी नेताओं से ही नहीं, विपक्ष से तालमेल में भी दिक्कतें दिखने लगी हैं।

सफर

सफर

यह हाल में चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के ट्वीट में भी दिखा। उन्होंने ट्वीट किया, “लखीमपुर खीरी जैसी घटनाओं के दौरान सक्रियता तो सही मगर कांग्रेस में जान तभी आएगी जब संगठन मजबूत होगा।” इसके बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बघेल ने जवाबी ट्वीट किया तो तृणमूल के सांसदों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। प्रशांत के भी कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा थी और कहा जा रहा था कि उनका सर्वे ही कैप्टन को हटाने का आधार बना, जिसमें सरकार की लोकप्रियता घटती दिखी थी। पर ऐसे कयास भी हैं कि पंजाब में सुलह कराने के लिए बनाई गई वरिष्ठ सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे की समिति की विधायकों से बातचीत के बाद तैयार रिपोर्ट मुख्यमंत्री बदलने का आधार बनी। प्रशांत अभी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के राजनैतिक रणनीतिकार हैं। दरअसल तृणमूल कांग्रेस से खटास अगस्त में संसद के वर्षाकालीन सत्र के दौरान ही शुरू हो गई थी। बंगाल विधानसभा चुनावों में भाजपा को मुंह की खिलाने के बाद ममता का कद विपक्ष में ऊपर हो गया है। वे विपक्षी एकजुटता की पहल में जुटी हैं। इसी पहल के तहत वे अगस्त में दिल्ली पहुंची थीं और तमाम विपक्षी नेताओं के साथ सोनिया और राहुल से भी मिली थीं।

तृणमूल तमाम विपक्षी सांसदों और नेताओं की बैठक की योजना बना ही रही थी कि अचानक राहुल ने करीब 15 दलों को दिन के भोजन पर न्यौता। उसमें दूसरी पार्टियों के ज्यादातर बड़े नेता नहीं पहुंचे। तृणमूल के नेता तो पहुंचे ही नहीं। उसके कुछ दिनों बाद कपिल सिब्बल ने रात्रिभोज का आयोजन किया तो लालू यादव, शरद पवार, तृणमूल सांसद डेरेक ओ'ब्रायन जैसे तमाम बड़े नाम वहां पहुंचे। तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस नेताओं को अपने पाले में शामिल करने की मुहिम भी तेज कर दी है। पहले बंगाल, त्रिपुरा, असम की सुष्मिता देव जैसे नेताओं ने ममता की ओर रुख किया और अब गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुइजेन्हो फलेरो भी कांग्रेस छोड़ तृणमूल की ओर चले गए। इसके संकेत भी स्पष्ट हो गए थे और उसमें सुधार के संकेत अभी तक तो नहीं ही मिले हैं। पिछले दिनों शरद पवार ने भी कांग्रेस नेतृत्व के हालिया फैसलों को अनुभवहीनता बताया था। यह भी स्पष्ट है कि ममता विपक्षी एकता के नेता पद पर दावा ठोंकती हैं तो उन्हें सपा, राजद, राकांपा, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और अन्य पार्टियों से भी समर्थन मिल सकता है। जहां तक मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व की बात है तो सपा और बिहार में गठबंधन सहयोगी राजद से भी दूरियां बढ़ती जा रही हैं। कन्हैया की पार्टी में एंट्री के बाद तेजस्वी यादव के नाखुश होने की वजहें भी हैं (देखें साथ में बिहार की स्टोरी)।

कांग्रेस का दावा यह है कि उसके बिना विपक्षी एकता संभव नहीं है। कांग्रेस प्रवक्ता गौरव बल्लभ आउटलुक से कहते हैं, “पिछले लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को 12 करोड़ वोट मिले थे और कई अहम राज्यों में उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है। इसलिए कांग्रेस को छोड़कर ऐसा कोई गठजोड़ नहीं बन सकता।” गणित यह भी है कि गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और कुछ हद तक कर्नाटक और महाराष्ट्र की लगभग 200 सीटों पर कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है। लेकिन इस तमाम गणित के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन और नेतृत्व का सबको साथ लेकर चल पाने का लचीला रवैया ही नेता पद पर दावे के लिए अहम होगा, जो फिलहाल दिख नहीं रहा है।

बेशक, कुछ राज्यों में विभिन्न वजहों और सत्ता विरोधी रुझान की वजह से कांग्रेस की हालत सुधरी है। जैसा कि हाल में कांग्रेस के साथ आए मेवाणी कहते हैं, “गुजरात में पिछली बार की कमी भी भर देंगे और इस बार जीत पक्की करेंगे।” वे यह भी कहते हैं कि आम आदमी पार्टी का असर हवा-हवाई है, उससे कांग्रेस को खास फर्क नहीं पड़ेगा (देखें इंटरव्यू)।

इसी तरह मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ काफी सक्रिय हैं और दमोह उपचुनाव में जीत से संकेत मिलता है कि कांग्रेस मजबूत हुई है। राज्य में 30 अक्टूबर को होने वाले तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट के उपचुनावों में कांग्रेस की संभावनाएं अच्छी दिख रही हैं। यहां के प्रत्याशी चयन को लेकर तीन अलग-अलग स्तर पर सर्वे काफी पहले ही हो चुके थे। उसी आधार पर सभी सीटों के लिए प्रत्याशियों का चयन भी कर लिया गया था। फिर हरियाणा, राजस्थान में भी किसान आंदोलन से स्थितियां अनुकूल हैं और पंजाब में भी पार्टी ठीक-ठाक स्थिति में रह सकती है, बशर्ते कैप्टन की चुनौती उसे भारी न पड़े (देखें साथ की रिपोर्ट)।

लेकिन यह सारा गणित तभी ताकत में बदल सकता है, जब कांग्रेस में एकजुटता कायम रहे और बिखराव रुके। अगर कार्यकारिणी की बैठक के बाद जी-23 के नेताओं ने कोई अलग राह पकड़ी तो मुश्किल हो सकती है। एक संकेत यह भी है कि छत्तीसगढ़ का मामला नहीं सुलझा तो वहां भी दिक्कत हो सकती है (देखें छत्तीसगढ़ की स्टोरी)। बघेल को चुनौती दे रहे वित्त मंत्री टी.एस. सिंहदेव की रिश्तेदार आशा कुमारी एक समय पंजाब की प्रभारी रही हैं और कैप्टन से उनके रिश्ते अच्छे बताए जाते हैं। फिर, राजस्थान में भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट का विवाद निबटा नहीं है। इतना जरूर हुआ है कि सिद्धू के मामले में कुछ सख्त रवैए से पार्टी की दूसरी अंदरूनी हलचलें फिलहाल थम-सी गई हैं। आलाकमान के इस रुझान से शायद कैप्टन की नाराजगी भी थोड़ी दूर हो सकती है लेकिन यह भी गौरतलब है कि उनसे जी-23 के नेताओं के अलावा शायद ही किसी ने संपर्क किया है। ये तमाम मसले कांग्रेस नेतृत्व खासकर राहुल-प्रियंका की काबिलियत की परीक्षा लेंगे।

राहुल गांधी

जिग्नेश मेवाणी और कन्हैया कुमार के साथ राहुल गांधी

हालांकि राहुल की योजना युवा चेहरों को नए सिरे से जोड़कर पार्टी को मध्य वामपंथ की राह पर ले जाने की है। कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी इसका संकेत खुलकर देते भी हैं। राहुल भी एकाधिक बार कह चुके हैं, “उदारीकरण की नीतियां नब्बे के दशक में भले जरूरी रही हों लेकिन यूपीए के कार्यकाल में ही उसकी खामियां उजागर हो गई थीं। इसलिए आगे की राह उससे अलग करने की दरकार है।” इसी के मद्देनजर 2019 के आम चुनावों के दौरान कांग्रेस के घोषणा-पत्र में न्याय योजना के साथ कल्याणकारी राजकाज की ओर ले जाने वाले कार्यक्रम थे और आर्थिक सुधारों की बात लगभग नदारद थी। कांग्रेस के ज्यादातर पुराने नेता उदारीकरण के पक्षधर रहे हैं, जो राजीव गांधी के तहत आगे बढ़े हैं। दरअसल नई आर्थिक नीतियों और नई टेक्नोलॉजी की ओर कदम सबसे पहले बढ़ाने वाले राजीव गांधी ही थे। संभव है, नजरिए का यह फर्क भी आड़े आ रहा हो। इसके अलावा राहुल के करीबी सूत्रों का यह भी कहना है कि उन्हें इस बात का काफी गुरेज है कि कोई दूसरा कांग्रेस नेता भाजपा, संघ परिवार या मोदी सरकार के खिलाफ बोलने से परहेज करता है।

लेकिन गौरतलब यह भी है कि इंदिरा गांधी ने जब पार्टी को मध्य वामपंथ की ओर ले जाने और कांग्रेस के दिग्गज नेताओं एस. निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, कामराज, नीलम संजीव रेड्डी से अलग राह पकड़ने का फैसला किया था, तब कांग्रेस का आधार व्यापक था और जनाधार वाले युवा तुर्क नेताओं की बड़ी फौज थी। आज न कांग्रेस का वैसा जनाधार बचा है, न उतने जनाधार वाले नेता हैं और न राहुल-प्रियंका का लोगों में वह भरोसा है। इसी वजह से नीरजा चौधरी कहती हैं, “राहुल के लिए सबसे अच्छा यह होता कि वे पार्टी के नैतिक पहरुए की भूमिका निभाते और संगठन बनाने पर काम करते। अध्यक्ष की भूमिका काफी व्यापक और पेचीदी होती है।” फिलहाल तो यह नहीं लगता कि गांधी परिवार नेतृत्व किसी और नेता को देना चाहता है।

वैसे यह सवाल भी अपनी जगह है कि ऐसा कौन नेता है, जिसकी छवि देशव्यापी और सर्वमान्य हो, जो कांग्रेस के लिए धुरी का काम करे। कांग्रेस में नब्बे के दशक में सबसे ज्यादा बिखराव उसी दौर में हुआ, जब गांधी परिवार का कोई नहीं था। बहरहाल, देखना यह है कि भाजपा की भीषण चुनौती के इस दौर में कांग्रेस बिखराव की ओर बढ़ती है या मजबूती पाने का कोई मध्य-मार्ग तलाश लेती है।

साथ में भोपाल से शमशेर सिंह

 

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