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भाजपा: छोटे सेनापतियों के सहारे बड़े रण की तैयारी

18 जुलाई 2023 को बेंगलुरु में भाजपा के नेतृत्व वाली नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस यानी एनडीए की मीटिंग...
भाजपा: छोटे सेनापतियों के सहारे बड़े रण की तैयारी

18 जुलाई 2023 को बेंगलुरु में भाजपा के नेतृत्व वाली नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस यानी एनडीए की मीटिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई। लोकसभा चुनाव की रणनीतियों को पुख्ता करने को लेकर 38 से पार्टियों ने इस मीटिंग में भाग लिया। इन 38 पार्टियों में से 7 ऐसी पार्टियां हैं, जिन्होंने अब तक कभी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा। 16 पार्टियों के पास एक भी लोकसभा सदस्य नहीं हैं और 7 पार्टियों के पास केवल एक सांसद हैं। 

हालांकि एनडीए के सहयोगियों की इस प्रभावहीन चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद भाजपा अबकी बार 400 पार के नारे के साथ लगातार तीसरी बार देश की गद्दी पर बैठने की हुंकार भर रही है। गौरतलब है कि नए एनडीए घटकों की सूची उन राज्यों में गठबंधन के पुनर्निर्माण के प्रयास को दर्शाता है, जहां भाजपा ने अपने पुराने महत्वपूर्ण साझेदार खो दिए हैं। एनडीए मीटिंग को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा था, "एनडीए क्षेत्रीय आकांक्षाओं का सुंदर इंद्रधनुष है। कोई भी पार्टी छोटी या बड़ी नहीं है। 2014 और 2019 में बीजेपी को बहुमत मिला, लेकिन एनडीए ने सरकार बनाई। 2014 में एनडीए के पास लगभग 38% और 2019 में 45% वोट शेयर थे। 2024 में उसे 50% से अधिक वोट मिलेंगे।" 

ऐसे में इस बार का सबसे बड़ा सवाल यही है कि ‘रामरथ’ पर सवार नरेंद्र मोदी को तीसरी बार सत्ता हासिल करने में ये छोटे दल कितना अहम भूमिका निभाएंगे?

उत्तर भारत: छोटे महारथियों के सहारे भाजपा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो बार सत्ता पर काबिज करने में सबसे बड़ा हाथ उत्तर भारत का रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल, गुजरात, दिल्ली, उत्तराखंड और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भाजपा ने 2019 के चुनावों में विपक्ष का लगभग सुफड़ा साफ कर दिया था। इन 10 राज्यों में 299 लोकसभा सीटें हैं और भाजपा पिछले चुनाव में अकेले दम पर 226 सीटें जितने में कामयाब रही थी। 

ऐसे में भाजपा की नजरें इस बार छोटे सहयोगियों को मिलाकर उत्तर भारत से ही पार्टी की जीत सुनिश्चित करना है, लेकिन भाजपा इसमें कितना सफल होगी? इस पर वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक और पिछले 40 सालों से भाजपा की राजनीति पर नजर रखने वाले नवीन जोशी आउटलुक को बताते हैं, "बीजेपी को भी पता है चुनाव जीतना इतना आसान नहीं है। इसलिए पीएम ने लोकसभा चुनाव से 200 दिन पहले ही ये नैरेटिव तैयार कर दिया कि अबकी बार 400 पार। पिछले दो चुनावों में भाजपा राष्ट्रवाद और कमंडल की राजनीति के बलबूते सत्ता में आई। इस बार पार्टी मंडल को भी साधने को कोशिश कर रही है। ये छोटे-छोटे दल कई सूबों के छोटे-छोटे हलकों में प्रभावशाली पकड़ रखते हैं, भाजपा इनको साध लेती है तो जातीय समीकरण भी उसके पाले में चला जाएगा।" 

जोशी आगे कहते हैं, "अकेले यूपी और बिहार में 120 लोकसभा सीटें हैं। बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी, हिंदुस्तान आवाम मोर्चा- सेक्युलर और यूपी में सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (सोनेलाल), निषाद पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल ले साथ आने से भाजपा दोनों राज्यों में अति पिछड़ा, पिछड़ा, कुर्मी, जाट और राजभर आदि जातियों को अपने पाले में कर सकती है। ये छोटे जातीय समीकरण अक्सर बड़ा चोट लगाती हैं।" 

यूपी के बाद लोकसभा सीटों के लिहाज से दूसरे सबसे बड़े सूबे महाराष्ट्र में भी भाजपा 48 में से 45 लोकसभा सीटें जीतने की रणनीति के आगे बढ़ रही है। इसके लिए भाजपा ने अजित पवार के नेतृत्व वाली नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी, एकनाथ शिंदे की गुट की शिवसेना, रामदास आठवले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, जन सुराज्य शक्ति, प्रहार जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय समाज पक्ष के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी। हालांकि, इन सभी पार्टियों के पास एक भी सांसद नहीं हैं। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप कपूर आउटलुक से कहते हैं, "भाजपा के लिए 1% वोट शेयर बढ़ाना भी काफी अहम है। पार्टी पंचायत चुनाव दमखम से लड़ती है, ये तो लोकसभा का चुनाव है।” वो आगे कहते हैं, “भाजपा की छवि हमेशा से ब्राह्मण-बनियों की पार्टी की रही है। नरेंद्र मोदी इसी छवि को तोड़ने के लिए सभी राज्यों में पिछड़ों और दलितों में अति पिछड़ों और अति दलितों को रिझा रही है। मध्यप्रदेश में शिवराज को किनारे कर एक यादव मुख्यमंत्री और मध्यप्रदेश प्रदेश में एक आदिवासी को सीएम बनाना भी प्रतीकात्मक है।”

दक्षिण भारत: भाजपा का 'महागठबंधन' 

पिछले 10 सालों से उत्तर भारत को पूरी तरह से 'भगवामय' कर चुके पीएम मोदी के लिए सबसे मुश्किल काम दक्षिण भारत में भाजपा की स्वीकार्यता को बढ़ाना रहा है। लाख कोशिशों के बावजूद भी भाजपा के लिए अभी तक दक्षिण भारत का किला अभेद ही रहा है। हालांकि इस लोकसभा चुनाव में पार्टी अपने सबसे कठिन चुनावी रणभूमि को जीतने की पूरी कोशिश कर रही है। दक्षिण का द्वार कहे जाने वाले कर्नाटक को छोड़ दें तो भाजपा का किस्मत दक्षिण में अभी तक नहीं चमका है। साल 2019 के चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने दक्षिण भारत की 130 लोकसभा सीटों में से 30 पर जीत हासिल की, जिसमें अकेले कर्नाटक की 28 में से 30 सीटें शामिल हैं। हालांकि इस बार भाजपा कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती है और यहां भी उसकी नजरें 'मोदी मैजिक' के साथ-साथ छोटे-छोटे दलों पर है। 

पश्चिम बंगाल की तरह भाजपा का नया चुनावी फ्रंटियर बना तमिलनाडु में पार्टी 6 छोटे दलों के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी जिसका लोकसभा में एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन दक्षिण में भाजपा के लिए क्यों खास है इसपर नवीन जोशी कहते हैं, "छोटे-छोटे गठबंधन से बड़ा माहौल बनता है। इससे एक संदेश भी जाएगा कि दक्षिण में भाजपा अछूत नहीं है, वो लड़ाई में है। इनके साथ मिलकर अगर भाजपा तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और केरल में एक दर्जन सीटें भी जीत लेगी, तो पार्टी इससे संतुष्ट होगी।" वो आगे कहते हैं, "ये छोटे दल अपने दम पर एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत सकते, लेकिन अन्य दलों का भाग्य बदलने की ताकत रखते हैं।"

दक्षिण भारत के एक और राज्य आन्ध्र प्रदेश में भाजपा एक विधायक वाली जन सेना पार्टी के साथ गठबंधन में है। हालांकि, चंद्रबाबू नायडू के एनडीए में शामिल में हो जाने से भाजपा के मिशन साउथ को एक और पंख मिल गया है। 25 लोकसभा सीटों वाले आंध्र-प्रदेश में भाजपा का 2019 में खाता भी नहीं खुला था लेकिन एनडीए अब यहां 'क्लीन स्वीप' की दावा कर रहा है। तेलंगाना में भी भाजपा जन सेना पार्टी के साथ चुनाव लड़ेगी जिसका राज्य में कोई बड़ा जनाधार नहीं है। साल 2019 में राज्य की 13 सीटों में 4 सीटें भाजपा की झोली में आई थीं और भाजपा की नजरें इस बार आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर हैं। हालांकि, अभी तक केरल ही साउथ का एक ऐसा राज्य है जिसने हर बार भाजपा को हर बार नकारा है। लेकिन भाजपा का जनाधार यहां भी बढ़ रहा है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को भले यहां खाता नहीं खोल पाई हो लेकिन उसका वोट शेयर बढ़कर 15% हो गया। 

7 बार के एमएलए पीसी जॉर्ज की पार्टी केरल जनपक्षम (सेक्युलर) के भाजपा में विलय हो जाने से पार्टी की उम्मीदें और बढ़ गई हैं। यही नहीं, भाजपा ने इस बार कई हाई-प्रोफाइल लोगों को भी लोकसभा चुनाव में उतारा है, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर, केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन, अभिनेता सुरेश गोपी और पूर्व केंद्रीय मंत्री एके एंटनी के बेटे अनिल के. एंटनी शामिल हैं। केरल में भाजपा का कभी भी खाता नहीं खुला है लेकिन पार्टी इस बार कम से कम 5 सीटें जितने की दावा कर रही है। प्रदीप कपूर कहते हैं, “नरेंद्र मोदी जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है और उनकी नजर अब राजीव गांधी के 400 के आंकड़े को पार करना है। इसके लिए उन्हें दक्षिण को भेदना होना। भाजपा का छोटे दलों से गठबंधन न केवल उसे यहां ताकतवर बल्कि लोकसभा चुनाव में प्रासंगिक भी बनाएगा।" 

पूर्वोत्तर भारत: भाजपा के कारगर घटक

एक दशक पहले तक भाजपा का जो हाल अभी दक्षिण भारत में है, बिल्कुक वैसा ही हाल पूर्वोत्तर भारत में भी था। लेकिन हिंदी पट्टी की पार्टी होने के दाग को भाजपा ने पूर्वोत्तर में जनाधार बढ़ा कर धोया। इस क्षेत्र में लोकसभा की कुल 25 सीटें हैं। भाजपा ने 2019 में अपने दम पर इन 25 सीटों में से 14 सीटें जीतीं, जबकि 4 सीटें उसके क्षेत्रीय सहयोगियों के नाम गया। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईडीए) इस बार पूर्वोत्तर क्षेत्र में 2019 में अपने प्रदर्शन को लेकर उत्साहित है। भाजपा और उसके सहयोगियों लोकसभा चुनाव 2024 में 25 में से कम से कम 22 सीटें जीतने की दावा कर रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत के सबसे बड़े राज्य असम में 14 लोकसभा सीटें हैं। साल 2019 के चुनाव भाजपा 9 सीटें जितने में सफल रही थी और इस बार भाजपा यहां वाइट- वाश करने की फिराक में है। पार्टी के पास आगामी लोकसभा चुनाव के लिए असम गण परिषद और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लाइबेरा का सहयोग है। गौरतलब है कि भाजपा के ये दोनों सहयोगी 2019 में एक भी सीट जितने में कामयाब नहीं हुए थे। लेकिन इसके बावजूद भाजपा इस बार दोनों के साथ चुनावी मैदान में उतर रही है। 

असम के बाद पूर्वोत्तर में त्रिपुरा दूसरा ऐसा राज्य था जहां भाजपा पहली बार अकेले दम पर सत्ता में आई थी। त्रिपुरा में 2 लोकसभा सीटें हैं और फिलहाल दोनों भाजपा के पास हैं। यहां भाजपा के पास इंडिजिनियस पीपल फ्रंट ऑफ त्रिपुरा का सहयोग है, जिसका राज्य में वोट शेयर मात्र 1.25% है। हालांकि फिर भी भाजपा ने 2024 में आईपीएफटी को अपने साथ रखा है। भाजपा को हाल ही में दो साल पहले 'ग्रेटर त्रिपुरालैंड' की मांग को लेकर बनी पार्टी त्रिपुरा मोथा को भी अपने पाले में कर लिया है। जाहिर है भाजपा कोई भी छोटा मौका भी छोड़ना नहीं चाहती है। प्रदीप कपूर आउटलुक से कहते हैं, “इन छोटी पार्टियों का भले ही बड़े दृष्टिकोण में कोई व्यापक महत्व न हो लेकिन भाजपा की नजर इनके साथ मिलकर चुनाव में 50% के वोट शेयर को छूने की है। लोकसभा में भाजपा के पास बहुमत है और आगामी चुनाव में भी उसके जीतने की संभावना है लेकिन राज्यसभा में पार्टी अभी दूसरे दलों के सहारे है। पीएम मोदी चाहते हैं कि दोनों सदनों में उनका बहुमत हो, ऐसे में छोटे दल काफी कारगर साबित होंगे।"

नागालैंड और मेघालय में भाजपा एनडीपीपी के साथ एक जूनियर की भूमिका में है। मेघालय में पार्टी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (यूडीपी) और हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (एचएसपीडीपी) के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी। वहीं, सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अरुणाचल प्रदेश में भी भाजपा अकेले सत्ता में है लेकिन पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (पीपीए) को अपने साथ लाकर पूर्वोत्तर में एक बड़ा संदेश देना चाह रही है। जाहिर है कि कुछ सालों पहले तक हिंदी बेल्ट की पार्टी कहीं जाने वाली भाजपा अपनी पुरानी छवि को पूरी तरह से पीछे छोड़ चुकी है और अब अब उसकी नजर आगामी चुनाव में पैन इंडिया अपने जाल को बिछाना है। इसके लिए पार्टी एक-एक सीटों पर एड़ी-चोटी की दम लगा रही है। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जहां भाजपा मजबूत है वहां भी वो छोटी पार्टियों को एक साथ ला रही है ताकि एक सीट भी विपक्ष के हाथ में न जा सके और जहां मजबूत नहीं है वहां उसकी कोशिश है कि छोटे दलों के सहयोग से जितना कम सीटें हो सकें उतना विपक्ष को दिया जाए।

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