जुल्फिकार अली भुट्टो ने साठ साल पहले जवाहरलाल नेहरू के बारे में अपना एक मूल्यांकन लिखा था। उस दस्तावेज का शीर्षक था "इंडिया आफ्टर नेहरू।" आज के दौर में जब नेहरू को कलंकित करने का अभियान चलाया जा रहा है, ऐसे में भारत के सबसे कठोर आलोचक रहे भुट्टो का साठ साल पहले लिखा मूल्यांकन पढ़ना बहुतों की आंखें खोल सकता है।
भुट्टो फील्ड मार्शल अयूब खान की सरकार में जब मंत्री थे, तब से ही जवाहरलाल नेहरू के बारे में उनकी राय पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए अपच होने लगी थी। इसीलिए भुट्टो को नेहरू पर लिखा अपना दस्तावेज गोपनीय ढंग से कराची स्थित स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान की प्रेस में छपवाना पड़ा। केवल पांच सौ प्रतियां छापी गई थीं, उसमें भी भुट्टो को कई वापस लेनी पड़ गईं लेकिन कराची में बैठे भारतीय राजनयिकों के हाथ एक प्रति किसी तरह लग गई। उस प्रति की प्रति बाद में हक्सर पेपर्स का हिस्सा बनी।
एक स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य के बतौर भारत में राजकाज को सुगठित करने में नेहरू की भूमिका और अवदान पर भुट्टो का आकलन शानदार है। वे बिना किसी भावनात्मक लाग लपेट के लिखते हैं, "नेहरू की छवि और उनका मिथक एक सामान्य मनुष्य से वृहद था। भले ही उन्होंने आक्रमण किए, अपने पड़ाासियों को विलगाया, विरोधियों का दमन किया, अपनी आचारगत नैतिकता का मखौल बना डाला, लेकिन वे चालीस करोड़ लोगों के मुक्तिदाता थे, एक साहसी योद्धा जिन्होंने अपने लोगों को आजादी दिलवाई और 600 साल में पहली बार उन्हें खुली हवा में सांस लेने की मोहलत दी।" शुरुआती दस वर्षों के दौरान नेहरू की विदेश नीति की सराहना में भुट्टो बहुत उदार दिखते हैं। नेहरू के पास "उभरती हुई ताकतों के प्रभाव का अंदाजा लगाने के लिए इतिहास का पर्याप्त ज्ञान था", इसीलिए वे रूस और उसके साम्यवाद के खिलाफ अमेरिका संचालित विचारधारात्मक टकराव के झांसे में नहीं आए। भुट्टो लिखते हैं, और ध्यान रहे कि यह 1964 का साल है, कि "एक दशक से ज्यादा पहले ही नेहरू ने कह दिया था कि साम्यवाद अब पुराना हो चुका है। वे यह बात तब कह रहे थे जब साम्यवाद के तहत एकरंगा बनाने का इंकलाबी जज्बा अपने चरम पर था।" भुट्टो लिखते हैं, "वे एक ऐसे राजनेता और संत के रूप में उभरे जिनकी बात और सलाह दुश्मनों को भी सुननी और तौलनी पड़ती थी।" आज के नेहरू-द्वेषियों के लिए बेशक यह बात प्रिय नहीं कही जाएगी, वह भी उस शख्स की जबान से जो एक दिन पाकिस्तान का सबसे बड़ा नेता बना।
नेहरू की दूसरी पारी में हालांकि भुट्टो उनकी विदेश नीति को लेकर बहुत कठोर दिखते हैं। खासकर पाकिस्तान के बरअक्स तो वे नेहरू को बिलकुल भी नहीं बख्शते, "नेहरू का प्रमुख काम पाकिस्तान के खिलाफ नफरत का प्रचार करना था। वे नए राष्ट्र के सबसे कटु विरोधी थे। उन्होंने पाकिस्तान को अलग-थलग करने और उसके लिए मुसीबतें खड़ी करने को अपनी जिंदगी का मिशन बना लिया था।" अब यह बात कितनी सही है या गलत, इससे इतर यह भारत के मौजूदा शासकों के पाकिस्तान-विरोधी अभूतपूर्व नफरती और अंधराष्ट्रवादी नारों की थोड़ी हवा तो निकाल ही देता है।
जल्फिकार भुट्टो
संवैधानिक राजकाज और स्थिरता के मामले में भारत से कोई भी समझदार पाकिस्तानी रश्क खाता क्योंकि यह वरदान जिन्ना के बनाए राष्ट्र-राज्य को कभी नहीं मिल सका। और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि भुट्टो बहुत समझदार थे। वे ऑक्सफर्ड से प्रशिक्षित थे और पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के गंदे गणित में भी पर्याप्त दक्ष थे, इसीलिए वे नेहरू के राजकाज संचालन की ऐसी सराहना कर पाए। वे खासकर इस बात पर नेहरू की प्रशंसा करते हैं कि उन्होंने कैसे उस नौकरशाही को नियंत्रित किया हुआ था जो यह हमेशा से मानती आई थी कि "ब्रिटिश राज उसी की मेधा पर टिका हुआ था।" नेहरू में आइसीएस वालों की तरह दिखावा नहीं था। वे नौकरशाहों की राजनीतिक भूमिका को नहीं मानते थे। वे लिखते हैं, "नेहरू इन लोकसेवकों पर ऐसा सीजर जैसा नियंत्रण रखते थे कि जल्द ही उन्होंने अपनी मानसिकता और प्रथाएं बदल डालीं" तथा नौकरशाही संवैधानिक अधिकार और राजनीतिक स्थिरता का एक जिम्मेदारी कानूनी औजार बन गई।
इसके समानांतर नेहरू के राजकाज संचालन में एक अन्य अहम तत्व- नागरिक-फौज संबंध- पर भुट्टो उनकी प्रशंसा नहीं कर पाते हैं, "नेहरू अपनी अप्रतिम मेधा और गुणों के बावजूद निराशाजनक रूप से फौज की भूमिका का गलत आकलन कर बैठे थे।" भुट्टो जब यह बात लिख रहे थे, उन्होंने शायद पाकिस्तानी फौज को 'राज्य के संरक्षक' के तौर पर मान लिया था, जो वहां की फौज का स्वयंभू मिशन था। जाहिर है, भुट्टो यह बात नहीं समझ पाए कि नेहरू खुद जनता के आजादी के आंदोलन की उपज थे जिसने एक ताकतवर औपनिवेशिक ताकत को उखाड़ फेंका था, इसीलिए वे हिंसा और जोर-जबर वाले संस्थानों में आस्था नहीं रखते थे। जनता की वफादारी और सम्मान हासिल करने से जो रुतबा बनता है वह शायद पाकिस्तान के किसी भी नेता को कभी मयस्सर नहीं हुआ। इसीलिए वे सभी- भुट्टो से पहले और बाद में- पाकिस्तान के आंतरिक व बाहरी मामलों में फौज के वीटो के सामने घुटने टेकते रहे। आज तक यह पाकिस्तान के लिए अभिशाप बना हुआ है।
भुट्टो के मूल्यांकन की बुनियादी बात यह थी कि नेहरू के बाद भारत स्थिर नहीं रह पाएगा और उसका टूटना तय है। उनके दस्तावेज का आखिरी पैरा देखें, "नेहरू का जादुई स्पर्श अब जा चुका है। जनता को मंत्रमुग्ध करने वाला उनका असर गायब हो चुका है। भारत की एकता और महानता की कुंजी उन्हीं के साथ जल गई है, वह किसी को नहीं सौंपी गई।" शायद यही भ्रामक नजरिया था जिसने भारत के खिलाफ 1965 में अयूब खान को जंग झोंकने के लिए उकसाया, कि 'जेबी' प्रधानमंत्री शास्त्री तो लंबे-चौड़े पठान के सामने खड़े नहीं हो पाएंगे। उसी साल की शुरुआत में हिंदी विरोध के मुद्दे पर जिस तरह से दक्षिण भारतीय सूबों में आग भड़की थी, निश्चित रूप से पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए वह एक इशारा था कि बस एक धक्का देने की देरी है और नेहरू का बनाया पूरा किला भरभरा कर नीचे गिर जाएगा।
उनके तो खयाल में भी नहीं था कि भारत के पास लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह और एयर मार्शल अर्जन सिंह जैसे शानदार फौजी हैं और पेशेवर दक्षता तथा अदम्य साहस वाली फौज है। फौज को नेताओं के झगड़े से दूर रखना चाहिए, नेहरू की इस नीति पर भुट्टो की आलोचना को भारत की फौज ने अपने शानदार प्रदर्शन से हमेशा के लिए ध्वस्त कर डाला। अयूब खान और उनके लोग कभी भी उस वैधता की ताकत और गहराई को नहीं समझ पाए जो लोकतांत्रिक जनादेशों से भारत के राजनीतिक नेतृत्व को प्राप्त हो रही थी। इसके बावजूद भुट्टो की नजर इतनी पैनी थी कि उन्होंने 'भारत नाम के महानतम अंतर्विरोध' को कायम रखने में 'समझौते और संवाद का रास्ता' चुनने की नेहरू की प्राथमिकता पर लिखा। यह बात अलग है कि भुट्टो और उनके आका इस सबक को अपने यहां लागू करना भूल गए, जिसकी कीमत उन्हें उस गृहयुद्ध से चुकानी पड़ी जिसकी पैदाइश बांग्लादेश बना। हमारे यहां नेताओं की मौजूदा फसल के लिए शायद नेहरू की इस विरासत का कोई उपयोग न हो, लेकिन आज भी दक्षिण एशिया के सभी शासकों के लिए 'समझौते और संवाद' का सिद्धांत इकलौता कारगर नुस्खा बना हुआ है।
(वरिष्ठ पत्रकार हैं, विचार निजी हैं)