केरल की राजनीति हमेशा से देश की अन्य राज्यों की राजनीति से अलग रही है। यहाँ पारंपरिक रूप से दो बड़े गठबंधनों—लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ)—के बीच सत्ता का सीधा मुकाबला होता रहा है। एलडीएफ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम की प्रमुखता रही है, जबकि यूडीएफ का नेतृत्व कांग्रेस करती आई है। लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) धीरे-धीरे केरल में अपनी जड़ें मजबूत कर रही है, जिससे राज्य की राजनीति त्रिकोणीय मुकाबले की ओर बढ़ रही है।
भाजपा की इस बढ़ती उपस्थिति के पीछे कई कारण हैं। पार्टी ने राज्य में हिंदू वोट बैंक को संगठित करने की कोशिश की है, जिसमें विशेष रूप से नायर समुदाय और अन्य प्रभावशाली जातियों को साधने पर जोर दिया गया है। इसके अलावा, पार्टी ने मछुआरा समुदाय और ईसाई समुदाय को भी अपने पक्ष में करने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चर्च के नेताओं से मुलाकात की और भाजपा सरकार ने कई योजनाओं के तहत ईसाई समुदाय को विशेष सुविधाएँ देने का ऐलान भी किया। 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को केरल में 15.64% वोट मिले, जो 2019 के 12.93% की तुलना में 2.71 प्रतिशत अंक की वृद्धि को दर्शाता है। हालांकि, पार्टी ने पहली बार त्रिशूर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि भाजपा अब केरल की राजनीति में एक गंभीर दावेदार बन चुकी है।
भाजपा की इस जीत का राज्य की राजनीति पर गहरा असर पड़ सकता है। अब तक केरल में भाजपा को तीसरे विकल्प के रूप में देखा जाता था, लेकिन त्रिशूर सीट की जीत ने यह संकेत दिया कि पार्टी अब केवल वोट प्रतिशत बढ़ाने तक सीमित नहीं रहना चाहती, बल्कि चुनावी सफलता भी चाहती है। पार्टी की इस बढ़ती सक्रियता ने यूडीएफ और एलडीएफ दोनों के लिए एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। खासकर कांग्रेस के लिए यह चिंता का विषय है, क्योंकि भाजपा की रणनीति राज्य में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक को कमजोर करने की ओर बढ़ रही है।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर की हालिया बयानबाजी भी केरल की राजनीति में एक नया मोड़ ला सकती है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की कुछ नीतियों की खुलकर प्रशंसा की है, जिससे कांग्रेस के भीतर असंतोष बढ़ा है। थरूर की यह रणनीति कांग्रेस के भीतर अंदरूनी कलह को उजागर कर रही है। यदि कांग्रेस इस असंतोष को नहीं सुलझा पाती है और थरूर या उनके समर्थक अलग रुख अपनाते हैं, तो इससे भाजपा को बड़ा फायदा हो सकता है। यह स्थिति भाजपा को कांग्रेस विरोधी वोटों को संगठित करने में मदद कर सकती है।
हालांकि, केरल में भाजपा की राह अब भी आसान नहीं है। राज्य में संघ परिवार और भाजपा की विचारधारा को लेकर गहरी शंका बनी हुई है। मुस्लिम और ईसाई समुदाय भाजपा को संदेह की नजर से देखते हैं, और भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह इन समुदायों के बीच अपनी स्वीकार्यता कैसे बढ़ाए। इसके अलावा, एलडीएफ और यूडीएफ दोनों ने भाजपा को रोकने के लिए आक्रामक रुख अपनाया है। वाम मोर्चा और कांग्रेस, भले ही राष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे के विरोधी हों, लेकिन केरल में भाजपा के खिलाफ वे अक्सर एकजुट दिखते हैं। इस गठबंधन से भाजपा के लिए चुनौतियाँ और भी बढ़ जाती हैं।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए केरल सबसे कठिन राजनीतिक परीक्षा बन सकता है, क्योंकि यहाँ की राजनीति उत्तर भारत से बिल्कुल अलग है। हिंदी पट्टी में भाजपा जिस प्रकार की हिंदुत्व आधारित राजनीति करती है, वह केरल में उतनी प्रभावी नहीं हो सकती। केरल का समाज राजनीतिक रूप से अत्यधिक सजग है और यहाँ शिक्षा का स्तर भी ऊँचा है, जिससे केवल भावनात्मक नारों या आक्रामक प्रचार के आधार पर चुनाव जीतना संभव नहीं है। भाजपा को यहाँ एक अलग तरह की रणनीति अपनानी होगी, जिसमें विकास और प्रशासनिक सुधारों पर जोर देना होगा।
भाजपा का वोट प्रतिशत पिछले कुछ वर्षों में धीरे-धीरे बढ़ा है, लेकिन अभी यह सत्ता में आने के लिए पर्याप्त नहीं है। 2016 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 10.6% वोट मिले थे, जो 2021 में बढ़कर 11.3% हो गए। हालाँकि, पार्टी कोई सीट नहीं जीत पाई थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में त्रिशूर सीट की जीत ने भाजपा को नई ऊर्जा दी है, लेकिन इसे एक मजबूत राजनीतिक जनाधार में बदलना अभी भी एक लंबी लड़ाई होगी। यदि भाजपा को केरल में बड़ी ताकत बनना है, तो उसे अपने गठबंधन विकल्पों पर भी विचार करना होगा। ईसाई समुदाय के कुछ वर्गों के साथ गठबंधन बनाना और स्थानीय नेताओं को आगे लाना इसकी रणनीति का अहम हिस्सा हो सकता है।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह भी है कि वह अपने हिंदुत्व के एजेंडे को किस तरह संतुलित करे। केरल में बहुसंख्यक हिंदू आबादी होने के बावजूद, यहाँ सांप्रदायिक राजनीति को अब तक ज्यादा समर्थन नहीं मिला है। वामपंथी दलों और कांग्रेस ने राज्य में धर्मनिरपेक्ष राजनीति को मजबूत बनाए रखा है, और भाजपा के लिए इसे बदलना आसान नहीं होगा। इसके अलावा, केरल में संघ परिवार की गतिविधियों को लेकर भी व्यापक विरोध रहता है। ऐसे में भाजपा को हिंदुत्व से ज्यादा विकास और स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
केरल की राजनीति अब केवल एलडीएफ बनाम यूडीएफ तक सीमित नहीं रह गई है। भाजपा की मौजूदगी ने इसे त्रिकोणीय बना दिया है, जिससे चुनावी समीकरण बदल सकते हैं। हालांकि, भाजपा को यह समझना होगा कि केवल आक्रामक प्रचार और धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे वह केरल में उतनी आसानी से सफल नहीं हो सकती, जितना उत्तर भारत में। उसे एक दीर्घकालिक और समावेशी रणनीति बनानी होगी, जिससे वह केवल हिंदू वोटों पर निर्भर न रहे, बल्कि अन्य समुदायों के बीच भी अपनी स्वीकार्यता बढ़ा सके। अगर भाजपा ऐसा करने में सफल होती है, तो आने वाले वर्षों में केरल की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।
इस तरह, केरल में भाजपा की बढ़ती सक्रियता ने राज्य की राजनीति को नया रूप दिया है। पारंपरिक दो-ध्रुवीय राजनीति अब तीन-ध्रुवीय बन रही है। भाजपा के लिए यह सफर आसान नहीं होगा, लेकिन अगर पार्टी सही रणनीति अपनाती है, तो वह केरल में मजबूत उपस्थिति दर्ज करा सकती है। इसके लिए उसे स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देना होगा, सामाजिक और आर्थिक विकास के मॉडल पर जोर देना होगा, और सभी समुदायों का विश्वास जीतना होगा। यही भाजपा की असली परीक्षा होगी और यही तय करेगा कि क्या पार्टी केरल में अपने राजनीतिक विस्तार के सपने को साकार कर पाएगी या नहीं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)