गोरखपुर। भारतीय भाषाओं के संवर्धन हेतु केंद्रीय उच्च शिक्षा मंत्रालय की उच्चाधिकार प्राप्त समिति के अध्यक्ष, प्रख्यात संस्कृत शिक्षाविद एवं संस्कृत भारती के सह संस्थापक पद्मश्री चमू कृष्ण शास्त्री ने कहा कि भारत को जानने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि संस्कृत और भारत की मूल संस्कृति को अलग-अलग नहीं समझा जा सकता। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संस्कृत ज्ञान प्रणाली के विकास पर जोर इसीलिए दिया गया है कि हम संस्कृत और संस्कृति के समन्वय से एक भारत-श्रेष्ठ भारत की धारणा को साकार कर सकें।
श्री शास्त्री युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 53वीं तथा राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 8वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में आयोजित साप्ताहिक श्रद्धाजंलि समारोह के अंतर्गत रविवार को 'संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति' विषयक संगोष्ठी को बतौर मुख्य वक्ता संबोधित कर रहे थे। उन्होंने संस्कृति शब्द की सारगर्भित व्याख्या करते हुए कहा कि किसी कार्य को स्वाभाविक रूप से करना प्रकृति, अशिष्टता से करना विकृति तथा स्वाभाविकता के पुट में परिष्कृत रूप में करना संस्कृति है। उन्होंने कहा कि विगत डेढ़ सौ सालों से अंग्रेजी के 'कल्चर' शब्द को संस्कृति का पर्याय मान लिया गया है, यह मान्यता उचित नहीं है। कारण, भारतीय संस्कृति बहु व्यापकता वाली है। यह दर्शन, कला, संगीत, ज्ञान, विज्ञान आदि सभी को समाहित करते हुए समग्र रूप में जीवन पद्धति है।
अहर्निश ज्ञान-विज्ञान में रत रहा है भारत :
पद्मश्री शास्त्री ने देश के नाम 'भारत' का अर्थ समझाते हुए बताया कि 'भा' अर्थात प्रकाश या ज्ञान में 'रत' रहने वाला। मानव जीवन के आरंभ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान में रत रहा है। वर्तमान में किसी देश में अलग-अलग जिन व्यवस्थाओं यथा अर्थव्यवस्था, कृषि व्यवस्था, पंचायत व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था आदि को तय किया जाता है, वे सभी भारत में प्राचीनकाल से ही विद्यमान थीं। इसका उल्लेख संस्कृत के ग्रंथों में मिलता है लेकिन संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने से बहुत से लोग इसे जान नहीं पाते।
संस्कृत से होगा भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनरुत्थान :
पद्मश्री शास्त्री ने कहा कि समूची मानवता के हित मे भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनरुत्थान होना आवश्यक है और ऐसा कर पाने की क्षमता संस्कृत में है। यदि हम संस्कृत के माध्यम से प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से समन्वित कर नवाचार की तरफ उन्मुख हों तो एक नए भारत के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं।
संस्कृत में भारत को विश्व गुरु बनाने की क्षमता : डॉ. वाचस्पति
संगोष्ठी के विशिष्ट वक्ता उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी के अध्यक्ष डॉ. वाचस्पति मिश्र ने कहा कि संपूर्ण ज्ञान की मूल संस्कृत में भारत को विश्व गुरु बनाने की क्षमता है। संस्कृत भारत की आत्मा है और वह इसकी संस्कृति को प्रवाहमान बनाती है। कक्षा अध्यापन के प्रारूप में संवाद करते हुए उन्होंने कहा कि अलग-अलग समय में चीनी यात्रियों फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग ने भारत आने से पूर्व जावा देश जाकर संस्कृत का अध्ययन किया था, क्योंकि उन्हें पता था कि संस्कृत को जाने बिना भारत को नहीं जाना जा सकता। संस्कृति से संस्कृति भी और ज्ञान-विज्ञान का मूल भी। वैदिक काल में जब शिक्षण व्यवस्था संस्कृतनिष्ठ थी तब संपूर्ण समाज 'बसुधैव कुटुम्बकम' और 'सर्वे भवन्ति सुखिनः' की भावना से जीता था। डॉ मिश्र ने कहा कि संस्कृत में ज्ञान-विज्ञान की वह अमूल्य निधि है जो राष्ट्र की परम वैभव पर ले जा सकती है।
सरलतम तरीके से हो संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन: स्वामी श्रीधराचार्य
संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए अशर्फी भवन (अयोध्या) के पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी श्रीधराचार्य ने कहा कि समस्त शब्दों-वाक्यों का जन्म संस्कृत से ही हुआ है। यह सबको साथ चलने की संस्कृति की पोषक है। विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहां संस्कृत न पहुंची हो। वैज्ञानिक मानते हैं कि कम्प्यूटर के लिए सबसे अनुकूल भाषा संस्कृत है। प्राचीनतम और समृद्धतम भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनः उसका गौरव दिलाने के लिए वर्तमान दौर में संस्कृत के सरलतम तरीके से अध्ययन-अध्यापन की आवश्यकता है।
दिगम्बर अखाड़ा अयोध्या से पधारे महंत सुरेश दास ने कहा कि सभी भाषाओं की जननी संस्कृत के ज्ञान के बिना भारतीय संस्कृति को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। संगोष्ठी की अध्यक्षता महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के अध्यक्ष प्रो उदय प्रताप सिंह ने की। प्रो सिंह ने कहा कि भारत की ज्ञान परंपरा वेदों, पुराणों, उपनिषदों में समाहित है और ये सभी संस्कृत में हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की धारणा में संस्कृति अपरिहार्य तत्व है। भारतीय संस्कृति में तो सिर्फ एक मां शब्द में ही विशद संस्कृति की व्याख्या की जा सकती है। संगोष्ठी का संचालन डॉ. श्रीभगवान सिंह ने किया।