आज सुबह वह खबर मिली जो शायद कई दिनों से टलती आ रही थी। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय मंत्री और देश में किसान राजनीति के एक बड़े स्तंभ चौधरी अजित सिंह भी कोरोना से जिंदगी की जंग हार गये। 20 अप्रैल को संक्रमित होने के बाद वे कई दिनों से आईसीयू में थे। फेफड़ों में इंफेक्शन बढ़ा तो कल डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। चौधरी अजित सिंह 82 साल के होने के बावजूद शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त और राजनीतिक रूप से सक्रिय थे। उतार-चढ़ाव वाला लंबा राजनीतिक जीवन जीने के बाद उन्होंने आज सुबह अंतिम सांस ली तो अपने पीछे किसान राजनीति की एक बड़ी विरासत छोड़ गये हैं। इस विरासत पर उनके गरिमापूर्ण जीवन और शिष्टाचार की छाप भी है।
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यूं तो चौधरी अजित सिंह एक बार राज्यसभा और सात बार लोकसभा के लिए चुने गये। चार बार केंद्रीय मंत्री रहे। केंद्र और राज्य की राजनीति में अहम भूमिका निभाते रहे। लेकिन पिछला एक दशक उनके लिए राजनीतिक शिकस्त से भरपूर रहा। इसके बावजूद उनका आचारण बेहद मर्यादित और संयमित रहा। उन्होंने बहुत धैर्य के साथ नाकामियों का सामना किया। जिस दौर में सुखियां बटोरने के लिए भड़काऊ भाषण और ओछी हरकतों का सहारा लेना आम बात है, उन्होंने कभी बेतुकी बयानबाजी और विवाद खड़े नहीं किये। इस मामले में वे एकदम चौधरी चरण सिंह जैसे थे। जब बहुत जरूरी होता, तभी बोलते और एकदम नपा-तुला बोलते थे। मीडिया को कभी सिर पर नहीं चढ़ाया। बल्कि उचित दूरी ही बनाये रखी, जिसका उन्हें नुकसान भी हुआ। लोग उनके खिलाफ कुछ भी छाप देते थे, खंडन तो दूर उन्होंने कभी संज्ञान भी नहीं लिया। दूसरों पर आरोप लगाने में भी उन्होंने हमेशा संयम बरता।
अस्सी के दशक में वे उस वक्त राजनीति में आए जब चौधरी चरण सिंह अस्वस्थ थे और लोक दल एक बड़ी ताकत था। आईआईटी, खड़गपुर से कंप्यूटर साइंस में बीटेक और अमेरिका के इलिनॉय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एमएस करने के बाद 60 के दशक में आईबीएम में काम कर चुके थे। आईआईटी से होने का उन्होंने कभी बखान नहीं किया। लेकिन तकनीकी मामलों की उनकी समझ उनके उद्योग, खाद्य, कृषि और विमानन मंत्री रहने के दौरान सामने आई। चौधरी अजित सिंह करीब 45 साल के थे जब राजनीति में आए। आते ही उन्हें लोकदल और फिर जनता दल की अंदरूनी खींचतान का सामना करना पड़ा। शायद इसी वजह से उनका रुझान कांग्रेस और फिर भाजपा की तरफ गया। लेकिन जीवन के आखिरी दशक में वे मजबूती से विपक्षी राजनीति का हिस्सा रहे। यह वो दौर था जब विपक्ष में रहना सबसे मुश्किल काम था।
पश्चिमी यूपी में गन्ना किसानों का गुरूर है क्योंकि वहां कदम-कदम पर चीनी मिलें हैं। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि अजित सिंह ने नब्बे के दशक में केंद्रीय मंत्री रहते हुए चीनी मिलों के बीच न्यूनतम दूरी के मानक बदलकर नई चीनी मिलों को खूब लाइसेंस दिलवाये। इस नीतिगत पहल ने गन्ना किसानों की खुशहाली का रास्ता खुला क्योंकि चीनी मिलों में दाम की गारंटी थी। हालांकि, भुगतान में देरी का मुद्दा बड़ी समस्या है। इस मुद्दे को भी सबसे ज्यादा उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल ही उठाती रही है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने वाले चौधरी अजित सिंह राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष तक नहीं पहुंच सके। लेकिन उनके रहते किसान और जाट समुदाय में एक अहसास था कि दिल्ली में म्हारा कोई है। यह अहसास उनके चुनाव हारने के बाद भी बना रहा। लेकिन आज इस अहसास ने दम तोड़ दिया है। देश की किसान राजनीति में एक खालीपन पैदा हुआ है, जिसे भरने का दारोमदार राष्ट्रीय लोकदल और उनके पुत्र जयंत चौधरी के कंधों पर है। जाट समुदाय के नेता के तौर पर पहचान रखने के बावजूद चौधरी अजित सिंह ने कभी जाति-धर्म के नाम पर लोगों का भड़काने या लड़वाने का काम नहीं किया। बल्कि जहां तक हुआ लोगों में भाईचारा कायम करवाने की कोशिशों में ही जुटे रहे। इसके अलावा देश भर में विपक्ष को एक मंच पर लाने की कवायदों में भी सबसे आगे रहते थे।
ऐसे समय जब देश भीषण महामारी और बदइंतजामी से जूझ रहा है। तब चौधरी अजित सिंह के परिजनों ने लोगों से घर पर ही रहकर उन्हें श्रद्धाजंलि देने की अपील की है। यह फैसला अजित सिंह के विचारों और जीवनशैली से एकदम मेल खाता है। केंद्र में नागर विमानन मंत्री बनने से पहले और बाद में चौधरी अजित सिंह से मेरी कई बार मुलाकात हुई। 12, तुगलक रोड स्थिति उनके आवास पर गांव से आए किसानों का जमावड़ा हर समय लगा रहता था। लेकिन उन्होंने कभी इस जन समर्थन का अहंकार नहीं दिखाया। ना कभी सस्ती लोकप्रियता बटोरने की कोशिश की। बहुत चुपके से देश में नई एयरलाइंस की एंट्री, छोटे हवाई अड्डों के विकास और जाट आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण फैसले करवाने में अहम भूमिका निभा गये।
अगर चौधरी अजित सिंह 2014 से पहले ही भाजपा का दामन थाम लेते तो पिछले 7 साल से सत्ता में होते। लेकिन लगातार शिकस्त खाने के बाद भी किसानों और विपक्ष की राजनीति के प्रति उनका संकल्प मजबूत होता गया। उन्होंने नफरत की राजनीति के खिलाफ विपक्ष में रहकर सियासी मात खाना स्वीकार किया। दिल्ली में 26 जनवरी की घटना के बाद जब गाजीपुर बॉर्डर से राकेश टिकैत को गिरफ्तार करने की पूरी तैयारी हो चुकी थी तब चौधरी अजित सिंह का फोन पहुंचने के बाद उन्हें हिम्मत मिली और माहौल बदला। उनकी पार्टी किसानों के मुद्दों पर लगातार सक्रिय है और हाल के जिला पंचायत चुनावों में अच्छी खासी मौजूदगी दर्ज करा चुकी है। उनके निधन से पार्टी से एक बुजुर्ग का साया उठ गया है। उनके समर्थक आज बेहद उदास हैं।
व्यक्तिगत रूप से चौधरी साहब सादगी से जीने वाले, हंसमुख और नेकदिल इंसान थे। अपने इस मिजाज के कारण उनके राजनीतिक विरोधियों को भी कभी उनके खिलाफ अनर्गल बयानबाजी करते नहीं सुना। ना वे खुद दूसरों के बारे में बहुत द्वेष या नफरत की भावना रखते थे। जबकि कई बार उनके खास रहे लोगों ने उन्हें धोखा दिया। मुझे आज भी याद है 2014 में जब उनके सचिव रहे आईपीएस अधिकारी सत्यपाल सिंह उनके खिलाफ बागपत से मैदान में उतरे तब भी उन्होंने बहुत अफसोस या क्रोध जाहिर नहीं किया। उनके पास हर मुश्किल का सामना मुस्कुराकर के साथ करने का हुनर था। गिरते राजनीतिक मूल्यों के बीच भारतीय राजनीति में इस मुस्कुराहट की कमी खलती रहेगी।
(लेखक पश्चिमी यूपी से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं )