नकली दूधिया रोशनी में नहायी अहमदाबाद की उस सफेद रात में आकाश नीला था। साबरमती पार पुराने शहर की सारी चिमनियां बरसों से बंद पड़ी थीं। नदी, जो ग्यारह किलोमीटर में ही बहती है और जाने कहां गुम हो जाती है, रसायन-सी गमक रही थी। कुछ प्रेमी जोड़े यहां-वहां रिवर फ्रंट पर बने पत्थर के पटियों पर बैठे हुए थे और कुछ दूसरे लोग महिलाओं के लिए यह शहर रात में महफूज होने का दावा कर रहे थे। इन दावों को कायम रखने के लिए पुलिस उस रात कुछ लोगों को उठा रही थी। जिसने 2002 में दर्जनों लोगों की हत्या के लिए बरसों जेल काटी थी, वह अगली सुबह भार्गव रोड पर भगवती स्कूल में अपनी बेटी की चुनावी सभा की तैयारियों में व्यस्त था। इतना कुछ हो रहा था, पर हवा नहीं चल रही थी। बिलकुल भी नहीं। लोग लगातार पूछ रहे थे कि अबकी किसकी हवा है। हवा किसी की नहीं होती, यह जवाब देना अजीब लगता है। न चल रही हो, तब सवाल ही बेमतलब हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि हवा होती ही नहीं है। हवा हमेशा होती है। इसी हवा में सबकी सांस होती है। जैसे समय होता है। इसी समय में सब होते हैं। इसी होने के भीतर उम्मीद और यथास्थिति दोनों का अहसास छुपा होता है। फर्क बस इतना है कि उम्मीद हमेशा तकलीफदेह होती है क्योंकि उसके टूटने का खतरा बना रहता है। समय जहां सत्ताइस साल आगे बढ़ चुका हो लेकिन हवा न चली हो, वहां यही बात उम्मीद और यथास्थिति दोनों का साझा तर्क बन जाती है। गुजरात में आज यही हो रहा है।
जो कह रहे हैं कि गुजरात में अब सरकार बदलनी चाहिए, वे 27 साल तक भारतीय जनता पार्टी के राज का हवाला दे रहे हैं। जो कह रहे हैं कि कुछ नहीं बदलेगा, उनका भी तर्क 27 साल का राज है। लोहिया ने कहा था कि तवे पर रोटी पलटते रहनी चाहिए वरना वह जल जाती है। उन्होंने यह मानते हुए यह बात कही होगी कि चूल्हे में आग है और किसी के हाथ में फुंकनी भी होगी ही। गुजरात में हवा नहीं चल रही, तो आग भी नदारद है। ऐसे में चुनाव होने या न होने का क्या अर्थ बनता है, सिवाय इसके कि इस बार दिल्ली से आया एक नया खिलाड़ी मैदान में है। यह खिलाड़ी कच्चे दर्शक को चौंकाता है क्योंकि वह तिरंगा यात्रा भी निकालता है और मुफ्त बिजली की भी बात करता है। गुजरात चुनाव में बदलाव की उम्मीद जहां कहीं भी है, उसे अकेले आम आदमी पार्टी पोस रही है। कांग्रेस पार्टी चौंकाने वाली राजनीति नहीं करती, इस तथ्य से भाजपा से ज्यादा कोई आश्वस्त नहीं हो सकता।
कांग्रेस से कैसा डर?
इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पर मेधा पाटकर के बहाने निशाना साधते हैं तो आश्चर्य होता है। प्रदेश भाजपा के महामंत्री प्रदीपसिंह वाघेला जब मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को बताते हैं तो हैरत होती है क्योंकि मुख्यधारा के टीवी चैनलों में तो इस चुनावी जंग को आप बनाम भाजपा में तब्दील कर दिया गया है। अरविंद केजरीवाल दावा कर रहे हैं कि भाजपा का वोट प्रतिशत इस बार 38 प्रतिशत से कम रहेगा यानी 11 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट का अनुमान है। खुद कांग्रेस के पर्यवेक्षक और कार्यकर्ता कह रहे हैं कि पार्टी चुनाव लड़ने के मूड में नहीं दिख रही। फिर भाजपा को कांग्रेस की चिंता क्यों सता रही है?
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष जगदीश ठाकोर आउटलुक से खास बातचीत में इसका जवाब देते हैं। वे कहते हैं, ‘‘सबसे बड़ा सवाल यही उठाया जा रहा है कि कांग्रेस कहीं दिखाई नहीं दे रही है। कांग्रेस मीडिया में नहीं दिखेगी, सोशल मीडिया में नहीं दिखेगी, लेकिन जहां हार-जीत तय होनी है, हर उस बूथ पर कांग्रेस मौजूद है। छह-आठ महीने से पूरी कांग्रेस ‘मारू बूथ मारू गौरव’ नाम से पूरा मैनेजमेंट कर रही है। उम्मीदवार घोषित होने से पहले हमारा पूरा काम हो चुका है। हर बूथ पर पच्चीस से पैंतीस लोग हमारे रहेंगे।’’
प्रदेश कांग्रेस के मीडिया प्रभारी हेमांग रावल इसमें एक महत्वपूर्ण बात जोड़ते हैं, ‘‘बूथ पर कांग्रेस ने महिलाओं का पचास प्रतिशत प्रतिनिधित्व रखा है।’’ भाजपा ऐसी तैयारियों से अनजान नहीं होगी। कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष और विधायक जिग्नेश मेवाणी कहते हैं, ‘‘यह संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री ने मेहसाणा की चुनावी सभा में लोगों को चेताया था कि वे कांग्रेस की बूथ स्तर की सभाओं से सावधान रहें। कुछ है, तभी तो वे यह कह रहे हैं।’’
चुनावों में धारणा हालांकि एक बड़ी चीज है, जो प्रचार से बनती है। अगर भाजपा की धारणा में कांग्रेस उसकी प्रतिद्वंद्वी है तो कांग्रेस की धारणा आम आदमी पार्टी को लेकर क्या है, जिसे मीडिया में भाजपा का सीधा प्रतिद्वंद्वी बताया जा रहा है?
ठाकोर आश्वस्त होकर कहते हैं, ‘‘यह धारणा जिन लोगों में बन रही है कि भाजपा और आप की लड़ाई है और कांग्रेस इसमें कहीं नहीं है, वह क्लास ही भाजपा के साथ है। हमारे वोटरों में यह धारणा है ही नहीं। एक ही क्लास में वे दोनों पार्टियां भिड़ रही हैं। उनका मैदान एक ही है। हम वहां हैं ही नहीं। वहां हमारा वोटर ही नहीं है।
कांग्रेस ने 2017 के विधानसभा चुनाव में करीब 41 प्रतिशत वोटों के साथ 77 सीटें जीती थीं, हालांकि बाद के उपचुनावों में उसने कुछ सीटें गंवा भी दीं। इस बार आम आदमी पार्टी के आने से कयास लगाया जा रहा है कि विशेष रूप से सौराष्ट्र की सीटों पर कांग्रेस के वोटों में वह सेंध लगाएगी। अगर कांग्रेस अपना प्रदर्शन जस का तस दुहरा भी दे तो वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं दिखती। फिर उसके आत्मविश्वास के पीछे क्या वजह है?
जगदीश ठाकोर कहते हैं, ‘‘एक यह धारणा जो बनी है कि आम आदमी पार्टी अगर पांच से सात प्रतिशत वोट ले गई तो कांग्रेस को बहुत नुकसान होगा, तो मैं यह बताना चाहूंगा कि जो पैंतीस या चालीस प्रतिशत मतदाता बूथ पर नहीं जाता था वही अबकी हार-जीत का फैसला करेगा। इस पैंतीस प्रतिशत मतदाता में से बीस प्रतिशत इस बार बूथ पर जाएगा और कांग्रेस को वोट करेगा। ये वोटर कांग्रेस के ही हैं, बस हमारे पास इसका कोई मेकैनिज्म नहीं था। अब हमने उसे बूथ तक लाने का पूरा सिस्टम तैयार कर लिया है।’’
जाति का सवाल
भाजपा का गढ़ माने जाने वाले अहमदाबाद के भीतर पड़ने वाली नरोडा विधानसभा से पिछली बार कांग्रेस के प्रत्याशी ओमप्रकाश तिवारी दूसरे नंबर पर रहे थे। उन्हें पचास हजार के आसपास वोट मिले थे। उन्होंने जगदीश ठाकोर के प्रदेश अध्यक्ष बनते ही अगले दिन पार्टी से इस्तीफा दे दिया। वे आउटलुक से कहते हैं, ‘‘मैंने अपनी जिंदगी कांग्रेस पार्टी में लगा दी। कॉलेज के दिनों से ही कांग्रेस के लिए समर्पित रहा हूं। 2002 के दंगों में दो सौ मुसलमानों को मैंने अपने घर में जगह दी थी। लोग मुझे जानते हैं, पहचानते हैं, लेकिन जगदीश भाई की गैर-गुजरातियों को लेकर भावना अच्छी नहीं है। वे पार्टी को बरबाद कर देंगे।’’
प्रदेश कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर असंतोष के कुछ और स्वर सुनने को मिले। ठाकोर के क्षेत्र पालनपुर में पिछले चार महीने से कांग्रेस के लिए काम कर रहे उत्तर प्रदेश के एक कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि दरअसल अल्पेश ठाकोर की विश्वसनीयता खत्म हो जाने के बाद राज्य में ठाकोर समुदाय का नेतृत्व नहीं बचा है। वे कहते हैं, ‘‘जगदीश भाई की निजी महत्वाकांक्षा इस जगह को भरने की है। गुजराती तो दूर, वे ठाकोर के अलावा दूसरे समुदाय तक को स्पेस नहीं देते।’’
इस जातिगत विभाजन की जड़ें गुजरात में बहुत गहरी हैं, जिसे यहां के स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर पहली नजर में समझा जा सकता है। गुजरात में करीब आधी आबादी पिछड़ी जाति के मतदाताओं की है। ओबीसी के भीतर 28 उपजातियां हैं और इनमें भी कई के भीतर और विभाजन हैं। इसी तरह सामान्य श्रेणी में 17 जातियां आती हैं और अकेले ब्राह्मणों में 82 बंटवारे हैं। आदिवासियों की बात करें तो यहां 21 किस्म की जनजातियां पाई जाती हैं। इन जातियों के बीच ऊंच-नीच और विवादों का इतिहास बहुत पुराना है, जो शहरों में एकबारगी नहीं दिखता लेकिन गांवों में राजनीति को सीधे तौर पर तय करता है। यही वजह है कि दलितों के सशक्तीकरण का दावा करने वाले जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं को भी दलितों के भीतर मौजूद विभाजनों पर अपनी कामयाबी टिकी हुई दिखती है।
मेवाणी के चुनाव क्षेत्र वडगाम में एक गांव है जसलेनी। इस गांव में आठ तरह के दलित समुदाय रहते हैं- बारोट, वणकर, भाटिया, गरोड़ा, भंगी, रावत, तीरबंधा और मारू। इनमें गरोड़ा या श्रीमाली खुद को ब्राह्मण मानते हैं क्योंकि इनका काम पोथी-पत्री देखना है। भंगी को सबसे निचली जाति माना जाता है। इन दो पर हर समूह की सहमति है। ऊंच-नीच की लड़ाई से उपजे विवाद छह मध्यम श्रेणियों के बीच के हैं। मसलन, बारोट समुदाय के करीब चालीस परिवार इस बात से परेशान हैं कि उनकी बस्ती के रास्ते को वणकरों ने दीवार बनाकर घेर लिया है जिससे अर्थी निकालने में दिक्कत आती है।
बारोट समुदाय के रिटायर शिक्षक सेवन्ती लाल सोलंकी बताते हैं कि वणकर बिरादरी के नरेशभाई और पुरुषोत्तम भाई मकवाना ने उनकी बस्ती के रास्ते में दीवार खड़ी कर दी। जब लाश ले जाने के मसले पर झगड़ा हुआ तो मामला 2007 में अदालत में गया। उन्होंने बताया, ‘‘अदालत में हम लोग जीत गए, इसके बावजूद सरपंच वणकर था तो हमारी बात नहीं सुनी गई। अब हम लोग हाइकोर्ट जाएंगे।’’
समुदाय के ही नौजवान नीलेश सोलंकी बताते हैं कि रास्ते के दूसरी तरफ से भी उन्हें अर्थी नहीं निकालने दी जाती क्योंकि वहां पर वणकरों ने एक चकबांध बनवा दिया है। इस चक्कर में आए दिन तनाव होता है। जाति के इन विभाजनों के पीछे काम के बंटवारे वाली परंपरागत स्थिति भी अब नहीं बची है। बारोट का काम भवाई गाना होता था, जो वे छोड़ चुके हैं। वणकर बुनकरी का काम करते थे, पर आज गांव में एक भी बुनकर नहीं बचा है। परंपरागत कामों को छोड़ने के बावजूद जातिगत चेतना जस की तस है क्योंकि शहरीकरण, यातायात और हाइवे ने काम तो छीन लिया, लेकिन ग्रामीण ढांचे के भीतर इन्हें बनाए रखा।
यही सामुदायिक ढांचा उनके जीने के काम भी आता है, तो सरपंची से लेकर विधायकी तक के चुनाव में उन्हें जाति के बंधनों से ही ताकत मिलती है। इस बात को प्रगतिशील कहे जाने वाले नेता भी अच्छे से समझते हैं। जिग्नेश अपनी जीत की उम्मीद के पीछे छूटते ही जो कारण गिनवाते हैं उसमें जाति के अलावा और कुछ नहीं दिखता। वे कहते हैं, ‘‘इस बार चौधरी हमारे साथ आएंगे क्योंकि उनके नेता विपुल चौधरी को भाजपा ने गिरफ्तार कर लिया है। ठाकोर कांग्रेस के साथ हैं ही। वणकरों के साथ थोड़ी दिक्कत हो सकती है लेकिन हम लोग कोशिश कर रहे हैं।’’
यही ‘कोशिश’ जाने-अनजाने में जाति से आगे बढ़कर धर्म तक चली जाती है। वसु गांव के संपन्न मुसलमानों ने पिछले चुनाव में जिग्नेश की बहुत मदद की थी, जब वे निर्दलीय जीते थे। इस बार यह समुदाय इसलिए असंतुष्ट था क्योंकि पांच साल तक उनके विधायक ने उनका फोन नहीं उठाया। किसी तरह इन लोगों को मनाने के लिए इमरान प्रतापगढ़ी को यहां बुलाया गया और मुशायरे जैसा माहौल बनाया गया। बेरुखी की शिकायतों पर जिग्नेश साफ कहते हैं कि वे अपने क्षेत्र में हर गांव की जानकारी नहीं रख सकते। उधर बारोट समुदाय के लोगों का कहना है कि वे सरपंच स्तर की बातें विधायक से नहीं करते क्योंकि वे कांग्रेस के कोर वोटर हैं।
दुतरफा मार
भाजपा इसी मामले में कांग्रेस पर भारी पड़ जाती है। अहमदाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता और आदिवासी मामलों के जानकार अशोक श्रीमाली बताते हैं कि कांग्रेस ने एक जमाने में जिस ‘खाम’ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान) समीकरण को छोड़ दिया था उसे भाजपा ने ‘एम’ बाहर निकाल कर और ‘ओबीसी’ जोड़कर पकड़ लिया। वे कहते हैं, ‘‘बीते तीस साल में भाजपा ने आदिवासियों, पिछड़ों, दलितों सहित हर वंचित तबके को गांव से लेकर शहर तक अपनी इकाइयों में जैसा प्रतिनिधित्व और नेतृत्व सौंपा है, वह अभूतपूर्व है।’’
श्रीमाली की बात जसलेनी गांव की स्थिति को देखकर समझ में आती है, जहां बारोट के अलावा अन्य दलित समुदाय भाजपा के वोटर हैं। हां, शहरों में यह स्थिति थोड़ा अलग है जिसके पीछे कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा कारण शहरों के भीतर जातिगत संरचना या समूहों का सहयोग ढांचा नहीं उपलब्ध होने से जुड़ा है।
अहमदाबाद में आर्टिस्ट्स एसोसिएशन के सदस्य और ड्रम वादक तेजस श्रीमाली खुद को गर्व से दलित ब्राह्मण बताते हैं लेकिन इस बार वे वोट नहीं देने के मूड में हैं। उनकी पत्नी भी गायिका हैं। तेजस कहते हैं, ‘‘पहले मैं भाजपा को वोट देता था, लेकिन इस बार नहीं दूंगा। कोरोना में हम लोगों पर इतनी मार पड़ी थी लेकिन सरकार ने कोई मदद नहीं की। हमारी एसोसिएशन ने गांधीनगर में विरोध में प्रोटेस्ट किया लेकिन हमें कोई सहायता नहीं मिली।’’
सेतु संस्था से जुड़े अहमदाबाद के बुद्धिजीवी और राजनीतिक टिप्पणीकार अच्युत याज्ञिक इन उदाहरणों को इस तरह समझाते हैं कि गुजरात में हुए तीव्र शहरीकरण ने जातिगत बंधनों को ढीला करने का काम किया है। एक शहरी नागरिक में जहां पर अलगाव पैदा हुआ है, वहां पर हिंदू सांप्रदायिक पंथों ने उसकी जगह भरी है। इस तरह से राज्य का हिंदूकरण बीते तीन दशक में पूरा हो चुका है।
इसी से यह बात समझ में आती है कि सौराष्ट्र और भीतरी इलाकों में कैसे कांग्रेस का वोटबैंक अब भी कायम है लेकिन शहरों पर भाजपा की पकड़ है। इससे एक बात और निकलती है कि शहरी हिंदू अगर कोरोना और महंगाई से उपजी अलगाव की स्थिति से नाराज हुआ तो वह भाजपा को वोट नहीं भी दे सकता है। इसी तरह, गांवों में कांग्रेस का वोटबैंक अब भी कायम रह सकता है क्योंकि वहां शहरीकरण से पैदा हुए हिंदूकरण का प्रभाव कम है, परंपरागत जातिगत ढांचे अब भी कायम हैं।
यहीं से यह बात निकलती है कि शहरों में भाजपा और आप का जबकि गांवों में कांग्रेस और आप का वोटर बेस मोटे तौर पर एक है। लिहाजा शहरों में अगर आप भाजपा के वोट काटेगी तो गांवों में वह कांग्रेस के वोट काटेगी। हां, अगर शहरी वोटर साइलेंट है, जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला का दावा है, तो भाजपा को भारी नुकसान होगा। दूसरी ओर, अगर कांग्रेस ने वाकई शांत ग्रामीण मतदाताओं को बूथ तक लाने का कोई तरीका ईजाद कर लिया है तो वह आप के काटे वोटों से बेअसर रहेगी।
इस लिहाज से देखें, तो दिल्ली में चल रही बाइनरी वाली इस बहस का गुजरात में कोई आधार नहीं दिखता कि आप या तो कांग्रेस के ही वोट काटेगी या फिर भाजपा के ही वोट काटेगी।
चर्चाओं में ‘आप’
आप को लेकर अलग-अलग तरह की चर्चाएं गुजरात में हैं। एक बात हालांकि यह देखने में आई है कि शुरुआत में जिस तेजी से उसने माहौल बनाया था वह आखिरी के दस दिनों में फीका पड़ता जा रहा है। बीते बीस दिनों में यह बदलाव देखने में आया है कि खुद भाजपा के वोटर भी आप को पसंद नहीं कर रहे हैं और कांग्रेसी या न्यूट्रल वोटर उसे भाजपा की बी-टीम मानने लगे हैं।
अहमदाबाद में आप के कार्यालय प्रभारी अनूप शर्मा कहते हैं, ‘‘हम लोग तो बिलकुल नए हैं। कुछ नहीं पता क्या होने वाला है। आप मीडिया प्रभारी से बात कीजिए।’’ मीडिया प्रभारी करन बारोट कहते हैं कि उनका कोई नेता शहर में नहीं है, सब अपने-अपने इलाकों में प्रचार कर रहे हैं। हकीकत यह है कि राज्य में दो ही नेता आप के हैं- एक ईशुदान गढ़वी जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं और जलकुम्भालिया से खड़े हैं, दूसरे गोपाल इटालिया जो सूरत की कतरगाम सीट से खड़े हैं।
सूरत पूर्व सीट से आप के प्रत्याशी कंचनलाल जरीवाला के कथित ‘अपहरण’ कांड के कारण पार्टी की और भद्द पिटी है। पार्टी नेतृत्व द्वारा ‘अपहरण’ वाले बयान के बाद जरीवाला ने खुद आकर कह दिया कि कार्यकर्ता उनसे पैसे मांग रहे थे जो देने की स्थिति में वे नहीं थे और उनका अपहरण नहीं हुआ था। अहमदाबाद के गुजराती अखबारों ने इस घटना पर चुटकी ली और एक अखबार ने इसे ‘तंत्र विद्या’ तक लिख डाला।
पैसे के बदले टिकट देने और पार्टी फंड में पैसा न देने वाले का टिकट काटने की चर्चाएं और आरोप भी हवाओं में तैर रहे हैं, जो पहली बार मैदान में उतरी किसी पार्टी की छवि के लिए ठीक नहीं है। इसके बावजूद कुछ सर्वेक्षणों में आप को दस से तीस सीटों के बीच पाते हुए दिखाया जा रहा है। अशोक श्रीमाली कहते हैं, ‘‘पांच सीटों पर आप की स्थिति ठीकठाक है। हो सकता है गोपाल इटालिया की सीट के अलावा आदिवासी क्षेत्रों की दो-तीन सीटें भी वह निकाल ले।’’
दाहोद के आदिवासी क्षेत्र फतेहपुरा में चुनाव का अध्ययन कर रहे हरेराम बताते हैं कि इस बार छोटूभाई वसावा की भारतीय ट्राइबल पार्टी का डिब्बा गोल होने वाला है, जिन्हें दो सीटें पिछले चुनाव में मिली थीं। ध्यान देने वाली बात है कि अप्रैल में वसावा ने अरविंद केजरीवाल के साथ एक संयुक्त रैली कर के आप के साथ एकता जताई थी लेकिन बाद में वे फिरंट हो गए थे। खबरें आई थीं कि बीटीपी अब कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ेगी। हरेराम कहते हैं कि बीटीपी के पास अब भाजपा के साथ जाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाएगा।
बमवर्षा के दिन
गुजरात विधानसभा चुनाव के आखिरी दस दिन निर्णायक हैं। बेशक दस दिन में कोई हवा चलने की संभावना नहीं है, लेकिन जिस तरीके से भाजपा ने 18 नवंबर और कांग्रेस ने 21 नवंबर से अपने स्टार प्रचारकों की जनसभाएं शुरू की हैं वह लड़ाई के दोनों के बीच सिमटते जाने की आहट दे रहा है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटील को फोन लगाने पर उधर से उनके एक सहयोगी कहते हैं कि साहब व्यस्त हैं क्योंकि ‘‘आज से पार्टी ने रैलियों की कारपेट बॉम्बिंग शुरू की है।’’ चुनाव में ‘कारपेट बॉम्बिंग’ का यह प्रयोग नया है और चौंकाता है। यही ‘कारपेट बॉम्बिंग’ अभी डोर-टु-डोर होनी है।
इस किस्म के हमले में कुछ नहीं बचता। खरपतवार भी नहीं। यह हमला उसी के बस की बात है जिसके पास प्रचार की बमवर्षा करने के संसाधन हों और मंशा भी हो। भूलना नहीं चाहिए कि 9 से 15 नवंबर के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री को मंजूरी दी गई थी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल इन बॉन्डों की सबसे ज्यादा 75 प्रतिशत खरीद भाजपा ने ही की थी। इस साल के आंकड़े जब आएंगे, तब तक अगले चुनाव में महज जिक्र भर के लायक वे बच रहेंगे।
चुनाव अब सामाजिक ‘बॉन्ड’ से नहीं, इलेक्टोरल ‘बॉन्ड’ से लड़े जा रहे हैं। चुनावी ‘बॉन्ड’ से चुनावी ‘बॉम्ब’ बनाए जा रहे हैं। बमवर्षा होगी तो हवा हरकत में आएगी। और जहरीली होगी। पुरानी धारणाएं तोड़ेगी, नई धारणाएं बनाएगी। बेशक, उसमें सामाजिक ‘बॉन्ड’ बनाने वालों को सांस लेने में तकलीफ होगी, लेकिन इसी तकलीफ में बदलाव की उम्मीद भी पलती रहेगी। गुजरात चुनाव को इसीलिए किसी नतीजे के रूप में नहीं, एक बड़े नतीजे के अहम पड़ाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। आगामी 8 दिसंबर को चाहे जो परिणाम आए, वह इस देश के सामाजिक-राजनीतिक भविष्य के लिहाज से निर्णायक होगा।
खुशबू गुजरात की
चुनावों में कभी-कभार महज एक टिकट के कटने या बदलने से तस्वीर बहुत रोचक हो जाती है। चुनावी तस्वीर कभी-कभार वहां देखने से पूरी दिखती है जिधर हमारी नजर नहीं जाती। गुजरात की चुनावी राजनीति के कुछ दिलचस्प रंग
भारत माता के दो ‘राज’ पूत
अहमदाबाद के आश्रम रोड पर आम आदमी पार्टी का प्रदेश मुख्यालय है। भीतर जहां पार्टी के कार्यालय प्रभारी अनूप शर्मा बैठते हैं, उस कमरे की खिड़की पर भारत माता की एक मढ़ी हुई तस्वीर रखी हुई है। आम आदमी की भारत माता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत माता से इस मायने में अलग हैं कि उनके हाथ में भगवा ध्वज नहीं, भारत का झंडा है। बाकी, शेर के माथे पर चढ़ी त्योरियां भी थोड़ा अलग अहसास कराती हैं। भारत माता की गोद में उसके दो पूत बैठे हैं। यानी दो और तस्वीरें भारत माता की तस्वीर के फ्रेम में अगल-बगल रखी हुई हैं- एक भगत सिंह की और दूसरी मनीष सिसोदिया की। शर्मा ने बिना किसी संकोच के आउटलुक को बताया कि मनीष का वह स्केच सुरेंद्रनगर के किसी कलाकार ने बनाया है। यह कहानी अधूरी है। ठीक बाएं बगल वाली खिड़की पर एक और तस्वीर रखी है। वह अरविंद केजरीवाल का रंगीन स्केच है। पूरे फ्रेम से बाहर, भारत माता की गोद से दूर। कहते हैं कभी-कभार कहानी फ्रेम के बाहर देखने से पूरी होती है।
सिंधियों से पुरबिया दांव
ओमप्रकाश तिवारी गोरखपुर के मूल निवासी हैं लेकिन उनका समूचा कुनबा छह दशक से नरोडा पाटिया के नोबल नगर में रहता आया है। पिछले विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस से खड़े हुए थे और करीब पचास हजार वोट लेकर दूसरे नंबर पर रहे थे। इस सीट पर हमेशा से सिंधी जीतते रहे हैं। माया कोडनानी यहीं से विधायक रहीं। इस बार नरोडा सीट पर भाजपा से डॉ. पायल कुकरानी खड़ी हैं जो गुजरात दंगों में सजायाफ्ता रहे मनोज भाई की बेटी हैं। तिवारी बताते हैं कि जगदीश ठाकोर के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी क्योंकि ठाकोर को वे गैर-गुजरातियों का विरोधी मानते हैं। तिवारी अबकी आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी हैं। आउटलुक को वे गर्व से बताते हैं कि पिछली बार उन्होंने एनसीपी के प्रत्याशी निकुल सिंह तोमर को दस लाख रुपए देकर बैठा दिया था। इस बार एनसीपी से एक कांग्रेसी कारपोरेटर मेघराज डोडवानी चुनाव मैदान में हैं जिन्हें कांग्रेस का समर्थन प्राप्त है, पर तिवारी को उनकी खास चिंता नहीं है क्योंकि वे भाजपा के सिंधी वोट ही काटेंगे। जहां तक डॉ. पायल की बात है, तिवारी एक ऐसी ‘गोपनीय’ बात साझा करते हैं जो क्षेत्र में आम है। वह यह, कि भाजपा प्रत्याशी राजकोट के चौहानों में ब्याही हैं इसलिए अब सिंधी नहीं रह गई हैं। लिहाजा जीत तो तिवारी की ही होनी है। इसके बावजूद तिवारी जी चुनाव में भाजपा प्रत्याशी से जुड़ा यह पर्सनल मुद्दा नहीं उठाने जा रहे क्योंकि सवाल पूरे ‘हिंदू साम्राज्य’ का है और उसे नाराज करना ठीक नहीं होगा।
बाहरी कौन?
पिछले कुछ वर्षों में गुजरात की राजनीति में उभरे तीन लोकप्रिय युवा चेहरों में एक हैं अल्पेश ठाकोर, जिन्हें इस बार अपना घर छोड़ना पड़ा है। वे राधनपुर के वासी हैं पर भाजपा ने उन्हें टिकट गांधीनगर दक्षिणी से दे दिया है। ठाकोर ने गुजराती अस्मिता के हक में हिंदी पट्टी के बाहरी लोगों को राज्य से बाहर भगाने के अभियान से लोकप्रियता हासिल की थी। वे 2017 में कांग्रेस से विधायक बने लेकिन दो साल बाद भाजपा में चले गए। बाद में खुद ठाकोर समाज उनकी हरकतों से ऐसा उखड़ा कि उसने 2019 के उपचुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी रघुभाई देसाई को जितवा दिया। काल का पहिया ऐसा घूमा है कि रघु देसाई का पूरा चुनाव प्रचार हिंदी पट्टी से आए नौजवानों के भरोसे चल रहा है। उनके प्रचार में लगे यूपी के एक नौजवान ने आउटलुक को बताया कि राधनपुर में आज स्थिति यह है कोई लड़का हिंदी में किसी पुलिसवाले या दुकानदार से अगर रास्ता पूछता है तो लोग सीधे उससे पलट के पूछते हैं- रघुभाई के यहां आए हो क्या? कहां तो अल्पेश भाई गुजरात से हिंदीवालों को भगा रहे थे और कहां आज वे खुद बाहरी हो चुके हैं जबकि राधनपुर के चुनाव पर बाहरियों का कब्जा हो चुका है। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अल्पेश भाई खुद राधनपुर से गांधीनगर भागे हैं। चाहे जो हो, पर राज्य में ठाकोर समुदाय को अपने एक अदद नेता की कमी इस बार बहुत अखर रही है।