Advertisement

बिहार चुनाव विशेष: तेजस्वी की दावेदारी में तो दम, सरकारी नौकरी के वादे ने बदली फिजा

“नीतीश कुमार की एनडीए सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी रुझान और बेरोजगारी से त्रस्त राज्य में सरकारी...
बिहार चुनाव विशेष: तेजस्वी की दावेदारी में तो दम, सरकारी नौकरी के वादे ने बदली फिजा

“नीतीश कुमार की एनडीए सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी रुझान और बेरोजगारी से त्रस्त राज्य में सरकारी नौकरी के वादे ने हाल तक बेदम से दिख रहे तेजस्वी को न सिर्फ भारी भीड़ खींचने वाले नेता में बदला, बल्कि वे अतीत की पोटली भी झटकने में कामयाब हुए”

पिछले वर्ष आम चुनाव में जब, राष्ट्रीय जनता दल को बिहार की चालीस लोकसभा सीटों में से एक में भी सफलता नहीं मिली, तो पार्टी के भविष्य पर बड़ा सवालिया निशान लग गया। लालू प्रसाद यादव के लंबे समय तक रांची जेल में रहने के कारण कयास लगाए जाने लगे कि राज्य की राजनीति में पार्टी के लिए निकट भविष्य में वापसी नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है। राजद की तुलना ऐसे जहाज से की जाने लगी, जिसे अनुभवहीन खेवनहार के सहारे समुद्री तूफान में छोड़ दिया गया है। लालू की अनुपस्थिति में पार्टी की कमान उनके छोटे बेटे तेजस्वी प्रसाद यादव के हाथों में थी और उन्होंने ही चुनावी रणक्षेत्र में महागठबंधन की अगुआई की थी। लेकिन संसदीय चुनाव में सिवाय कांग्रेस की एक सीट के, उनकी अपनी पार्टी या कोई अन्य घटक दल अपना खाता भी नहीं खोल पाया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में जनता दल-यूनाइटेड, भारतीय जनता पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को आसानी से 39 सीटों पर जीत हासिल हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की तिकड़ी को उम्मीद से बढ़कर प्रचंड बहुमत मिला। ऐसे परिणाम से न सिर्फ राजद और महागठबंधन का मनोबल टूट गया, बल्कि तेजस्वी के नेतृत्व क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह लग गए। सवाल उठने लगे कि क्या अपने पिता की गैर-मौजूदगी में वे अगले साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में जद-यू और भाजपा की ‘डबल इंजन’ सरकार को चुनौती दे पाएंगे? उनमें तजुर्बे की कमी को देखते हुए अधिकतर राजनैतिक विश्लेषकों का मानना था कि उन्हें अपना सियासी वजूद स्थापित करने में वर्षों लगेंगे, क्योंकि उनमें न तो लालू की तरह भीड़ के साथ संवाद स्थापित करने की नैसर्गिक दक्षता है, न वे बिहार में जातिगत समीकरण को साधने में पारंगत हैं। इसके अलावा, नीतीश कुमार जैसे दिग्गज के सामने वे सिर्फ एक नौसिखिया थे, जिन्होंने पिछले पंद्रह साल में समावेशी विकास के एजेंडे पर लगातार काम करते हुए बिहार के विकास पुरुष की उपाधि हासिल की है। इन वजहों से समझा जाने लगा था कि लोकसभा चुनाव की तरह 2020 बिहार विधानसभा चुनाव भी एकतरफा होगा। 

ऐसा आकलन सिर्फ तेजस्वी के राजनैतिक विरोधियों की ताकत के कारण नहीं हो रहा था। महागठबंधन के अंदर भी उनके सहयोगी दल उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर न सिर्फ असहज थे, बल्कि उनके खिलाफ अपनी आवाज भी मुखर कर रहे थे। चाहे वह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा हों, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा-सेक्युलर के जीतन राम मांझी हों या विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी। उनमें से कोई भी तेजस्वी को चुनाव पूर्व महागठबंधन के निर्विवाद नेता के रूप में सहर्ष स्वीकार करने को तैयार न था। और तो और, लोकसभा चुनाव में मिली भारी पराजय का ठीकरा भी वे तेजस्वी के सिर पर फोड़ना चाहते थे। राजद के बाद गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस भी यह संकेत दे रही थी कि सीटों का बंटवारा उसके लिए सम्मानजनक न हुआ तो, उसे अपने बलबूते अकले विधानसभा चुनाव लड़ने में कोई परहेज नहीं होगा। स्पष्ट था कि महागठबंधन के घटक दलों में एकता और आपसी तालमेल का घोर अभाव था। लालू उनके बीच सामंजस्य बनाने को मौजूद न थे। अगर तेजस्वी के भविष्य पर सवालिया निशान लग रहे थे, तो यह बेवजह न था।

लेकिन इस चुनाव में तेजस्वी के तेवर बदले-बदले से दिख रहे हैं और वे अपने विरोधियों पर पहले से ज्यादा आक्रामक नजर आ रहे रहे हैं। उनकी चुनावी सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही है, खासकर युवाओं में उनके लिए अच्छा-खासा जोश दिख रहा है। हर रैली के बाद उनका उत्साह बढ़ रहा है। राजद और महागठबंधन के नेता इसे अपने लिए व्यापक समर्थन के रूप में देख रहे हैं। राजद नेता मृत्युंजय तिवारी का मानना है कि जनता में नीतीश सरकार के विरुद्ध जो रोष है, वह तेजस्वी की सभाओं में साफ दिख रहा है। वे कहते हैं, “लोगों का सरकार के खिलाफ आक्रोश नीतीश की सभाओं में भी दिख रहा है।” हाल के दिनों में वहां कई बार 'तेजस्वी जिंदाबाद' के नारे गूंजे हैं।

तेजस्वी खुद भी आत्मविश्वास से लबरेज दिखते हैं। वे कहते हैं, “नौ नवंबर को मेरा जन्मदिन है और संयोग से उसी दिन मेरे पिता रिहा भी हो रहे हैं और उसके अगले ही दिन नीतीश चाचा की भी विदाई है।” उन्हें विश्वास है कि नौ नवंबर को उनके पिता को जमानत मिल जाएगी और अगले ही दिन होने वाले चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद राजद की सत्ता में वापसी और मुख्यमंत्री के रूप में उनकी ताजपोशी होगी। अगर ऐसा होता है, तो 31 साल की उम्र में देश के इतिहास में वे सबसे युवा मुख्यमंत्री होंगे।

लेकिन इस चुनाव का एक यक्ष प्रश्न अभी बरकरार है। क्या इसकी वाकई संभावना है या यह जमीनी हकीकत से कोसों दूर कोरी कल्पना मात्र है? क्या तेजस्वी में वह दमखम है कि वे अपने बलबूते नीतीश को सत्ताच्युत कर पाएं, जिसके लिए लालू पंद्रह साल से लगातार संघर्षरत रहे हैं? बिहार में चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी करना जोखिम भरा है और इन सवालों के उत्तर के लिए तीन चरणों के चुनाव के बाद 10 नवंबर तक इंतजार करना होगा। 

हालांकि भाजपा को इस बार भी फिर एनडीए की सरकार बनने के बारे में कोई शक नहीं है। पार्टी के राष्ट्रीय मीडिया सह-प्रभारी संजय मयूख कहते हैं, “बिहार में एक बार फिर नीतीश कुमार के नेतृत्व में भारी बहुमत के साथ सरकार बनने जा रही है। अभी तक सभी ओपिनियन पोल नीतीश की सत्ता में लगातार चौथी बार वापसी के संकेत दे रहे हैं।” लेकिन चुनावी मैदान में तेजस्वी बार-बार दोहरा रहे हैं कि अंतिम परिणाम ओपिनियन पोल से अलग होंगे। क्या वे वाकई इस बार एनडीए को चुनौती दे रहे हैं? अधिकतर राजनैतिक विश्लेषक इस बात से सहमत हैं कि स्थितियां पिछले लोकसभा चुनाव जैसी नहीं है। मुकाबला एकतरफा तो बिलकुल नहीं है। आखिर पिछले कुछ महीनों में ऐसा क्या बदल गया? चुनाव की घोषणा तक जिस तेजस्वी की चुनौती को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा था, आज उसी पर देश की निगाहें हैं। हाल तक जिसकी राजनैतिक परिपक्वता पर लोगों को शुबहा था, उसे अब बिहार की सियासत की लंबी रेस का घोड़ा समझा जा रहा है, इसके बावजूद कि उन पर और उनके परिवार पर पहले भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। पिता लालू तो चारा घोटाला केस में सजायाफ्ता होने के कारण जेल में हैं, और फिलहाल रांची के एक अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। यह बात और है कि वे वहीं से तेजस्वी को जरूरी दिशा-निर्देश भेजते रहे हैं।   

दरअसल, आजकल तेजस्वी की सभाओं में भारी भीड़ का उमड़ना अप्रत्याशित-सा रहा है और इसके कारणों की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा रही है। लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार तेजस्वी की रणनीतियां काफी बदली हुई हैं। उनकी बदली रणनीति का एहसास सबसे पहले इस चुनाव के पहले तब हुआ, जब उन्होंने लोगों से अपने माता-पिता के पंद्रह साल के शासनकाल के दौरान हुई किसी भी गलती के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। यकीनन, उन्हें यह पता लग चुका था कि उनके विरोधी उस दौर को हर चुनाव की तरह इस बार भी ‘जंगल राज’ की संज्ञा देकर सियासी फायदा उठाने की कोशिश करेंगे। यही नहीं, चुनाव प्रचार में पार्टी के पोस्टरों से लालू और राबड़ी गायब रहे, भले ही तेजस्वी ने हमेशा ही गर्व से लालू को “व्यक्तित्व नहीं विचारधारा” के रूप कई बार पेश किया। यह सब राजद द्वारा तेजस्वी को नए बिहार के ऐसे युवा और प्रगतिशील नेता के रूप में पेश करने की कवायद है, जो अपनी पार्टी की अतीत की पोटली को पीछे छोड़कर आगे बढ़ गया है। इसके अलावा, तेजस्वी ने गठबंधन बनाने में भी काफी सावधानी बरती। पिछले चुनाव के अनुभव को आधार मानकर वे उन जाति आधारित पार्टियों को तरजीह देने के मूड में बिलकुल नहीं दिखे, जो अपनी पार्टी के मत गठबंधन के अन्य घटक दलों को स्थानांतरित करने में विफल रहे थे। नतीजतन, राजद की तरफ से ऐसी परिस्थितियां बनाई गईं, जिनके कारण जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी जैसे नेता धीरे-धीरे अपने आप महागठबंधन से निकल गए।

चिराग पासवान

एक रोड शो में लोजपा के युवा चेहरे चिराग पासवान

दरअसल, तेजस्वी इस बार सिर्फ उन दलों के साथ गठजोड़ बनाना चाहते थे, जिससे महागठबंधन को कुछ हासिल हो सके। राजद का आकलन था कि रालोसपा, हम और वीआइपी जैसी पार्टियों से पिछले चुनाव में गठबंधन को कुछ खास फायदा नहीं पहुंचा था। लिहाजा, तेजस्वी ने इस बार सिर्फ कांग्रेस और वामदलों के साथ गठबंधन बनाना श्रेयस्कर समझा। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि इस गठबंधन में भाकपा-माले भी शामिल थी, जिससे राजद का दशकों पुराना बैर रहा है। नब्बे के दशक में जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की राजद नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन के वर्चस्व वाले इलाके सिवान में हुई हत्या ने दोनों पार्टियों को एक-दूसरे के सामने ला दिया था। लेकिन तेजस्वी के लिए अब वक्त का तकाजा यही था कि पुरानी रंजिश भूलकर एक नई सियासी शुरुआत की जाए। तेजस्वी ने न सिर्फ बिहार की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी भाकपा-माले, बल्कि भाकपा और माकपा के साथ भी गठजोड़ किया। लोकसभा चुनाव के दौरान राजद ने भाकपा के जुझारू युवा नेता और जेएनयू छात्र संघ के एक अन्य पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के पक्ष में बेगूसराय सीट से अपना उम्मीदवार न खड़ा करने से साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इस बार स्पष्ट था कि पिछली गलतियों से उन्होंने काफी कुछ सीखा है।       

उम्मीदवारों के चयन में भी तेजस्वी ने तमाम सियासी और जाति समीकरणों को ध्यान में रखा। अगर किसी क्षेत्र में उन्हें कोई सवर्ण उम्मीदवार जीतने की क्षमता रखने वाला मिला, तो वे उसे टिकट देने से नहीं झिझके। भले ही वह अनंत सिंह जैसा बाहुबली ही क्यों न हो, जिसे कुछ साल पहले तक राजद नेता ‘बैड एलिमेंट’ कहकर पुकारते थे। हालांकि एक तरफ उन्होंने अनंत सिंह और सुरेंद्र प्रसाद यादव जैसे बाहुबलियों को टिकट दिया, तो दूसरी तरफ सीतामढ़ी जिले में रितु जायसवाल जैसी कर्मठ महिला मुखिया को अपने पाले में किया, जिनके बारे में कहा जा रहा था कि उन्हें जद-यू का टिकट मिलेगा। उन्होंने गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया की हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे राजपूत नेता आनंद मोहन की पत्नी तथा पूर्व सांसद लवली आनंद और उनके पुत्र चेतन आनंद को भी राजद उम्मीदवार के रूप में उतारा है। पिछले कुछ चुनावों में नीतीश ने आनंद के सहरसा स्थित पैतृक गांव जाकर उनके जेल में बंद रहने के बावजूद उनका समर्थन हासिल करने की कोशिश की थी। दिलचस्प यह है कि नब्बे के दशक में आनंद की गिनती लालू के धुर विरोधियों के रूप में होती थी। लेकिन तेजस्वी के लिए वह बीते दौर की बात है।   

सासाराम की पहली साझा सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

सासाराम की पहली साझा सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

इन कारणों से ज्यादा महत्वपूर्ण तेजस्वी द्वारा उठाया गया बेरोजगारी का मुद्दा साबित हुआ, जिसने युवकों का ध्यान अनायास उनकी ओर खींचा। दस लाख सरकारी नौकरी देने की उनकी घोषणा तुरूप का इक्का साबित हुई, जिसने बाकी पार्टियों को भी रोजगार के मुद्दे पर बात करने को मजबूर किया। तेजस्वी ने कहा, “अगर उनकी सरकार बनती है, तो वे अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में 10 लाख सरकारी नौकरियां देने वाली फाइल पर हस्ताक्षर करेंगे।” पार्टी के घोषणा पत्र में उन्होंने राज्य के लोगों के लिए 85 फीसदी नौकरी के आरक्षण की बात करके डोमिसाइल कार्ड भी खेला।

शुरुआत में एनडीए ने तेजस्वी की 10 लाख सरकारी नौकरियां देने की घोषणा को महज चुनावी स्टंट बताया। नीतीश ने कहा कि कुछ लोगों को बिहार के विकास से कुछ मतलब नहीं है। उन्हें सिर्फ अपने और अपने परिवार की चिंता है। जहानाबाद की चुनावी सभा में उन्होंने लालू और तेजस्वी का नाम लिए बिना तंज कसा, “वे कहते हैं कि इतने लोगों को रोजगार देंगे। जब इतने लोगों को रोजगार देंगे तो बाकी लोगों को क्यों नहीं देंगे? सबको दो। पैसा कहां से आएगा? जिसके लिए अंदर (जेल) गए, उसी पैसे से रोजगार मिलेगा क्या? ऊपर से पैसा आएगा क्या? नकली नोट मिलेगा क्या?” उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के अनुसार, “इतनी नौकरियां देने से सरकार पर 58,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और उसकी भरपाई कहां से होगी?” लेकिन तेजस्वी ने पलटवार करते हुए कहा, “पैसे की कोई समस्या नहीं होगी।” वे कहते हैं, बिहार सरकार अपने निर्धारित बजट में से लगभग 80,000 करोड़ रुपये खर्च न होने के कारण केंद्र को लौटा देती है। उस राशि का उपयोग नव-नियुक्त सरकारी सेवकों के वेतन भुगतान के लिए किया जा सकता है। जाहिर है, यह घोषणा करने से पहले उन्होंने जरूरी होमवर्क कर लिया था। उनके अनुसार, राज्य में अभी 4.5 लाख पद रिक्त हैं और नीति आयोग के आकलन के अनुसार 5.5 लाख और नौकरियों की जरूरत है।

जानकारों का मानना है कि निस्‍संदेह बेरोजगारी के मुद्दे ने युवाओं को उनकी ओर आकर्षित किया है। गौरतलब है कि बिहार में बेरोजगारी दर 46 फीसदी तक पहुंच चुकी है, जबकि राज्य में 52 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है। कई राजनैतिक टिप्पणीकार मानते हैं कि बेरोजगारी जैसे मुद्दे को उछाल कर तेजस्वी युवाओं के बीच अपनी वैसी पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसी नीतीश ने बालिका साइकिल योजना और शराबबंदी जैसे कदम उठाकर जात-पात से अलग अपने पक्ष में महिला वोट बैंक बनाने में सफलता पाई थी।  

इस चुनाव में तेजस्वी को जहां भी मौका मिला, वे नीतीश पर हमला करने से नहीं चूके। हाल के महीनों में लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों से आए प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए और तेजस्वी ने नीतीश सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराने में देर नहीं की। उन्होंने नीतीश पर कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी से निपटने में विफल होने का आरोप भी लगाया। कुल मिलाकर, उन्होंने राज्य सरकार पर साठ घोटाले करने का आरोप लगाया है, जिनमें सृजन घोटाला और मुजफ्फरपुर बालिका संरक्षण गृह जैसे बहुचर्चित मामले शामिल हैं। इन आरोपों को खारिज करते हुए राज्य के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा कहते हैं, “नीतीश देश के उन चंद नेताओं में से हैं जिनकी ईमानदारी की कसमें खाई जा सकती हैं।”

बेगूसराय की एक सभा में कन्हैया कुमार और वृंदा करात

बेगूसराय की एक सभा में कन्हैया कुमार और वृंदा करात

दरअसल, नीतीश की सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी छवि और उनके द्वारा किया गया विकास कार्य है। वे ‘परफॉर्मर’ मुख्यमंत्री के रूप में शुमार होते हैं और इस चुनाव में वे जोर देकर कह रहे हैं कि उन्होंने राजद के 15 साल के शासनकाल के बाद बिहार की तकदीर बदली है। जाहिर है, तेजस्वी की राहें आसान नहीं हैं। नीतीश चुनावी समर के पुराने योद्धा रहे हैं। तेजस्वी की बात तो दूर, उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर लालू जैसी शख्सियत को सत्ता से दूर रखा। 2015 में जब उन्होंने लालू के साथ हाथ मिलाया भी था, तब भी मुख्यमंत्री वही थे। चाहे भाजपा हो या राजद, दूसरों के लिए सत्ता में भागीदारी के लिए नीतीश के नेतृत्व को स्वीकारने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं रहा है। शायद यही वजह है कि इस बार भी भाजपा ने चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश के नाम की घोषणा कर दी। यहां तक कि जब लोजपा द्वारा अलग चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद खबरें उड़ीं कि चिराग पासवान भाजपा के प्रॉक्सी के रूप में नीतीश को चुनौती देने के उद्देश्य से चुनाव मैदान में उतरे हैं, इस पर भाजपा के शीर्ष नेताओं ने बार-बार जोर दिया कि उनकी पार्टी भले ही ज्यादा सीटें जीत जाए, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश ही रहेंगे। हालांकि लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान लगातार कह रहे हैं कि सरकार भाजपा और लोजपा की ही बनेगी। उनकी इस तरह की टिप्पणी से जद-यू के भीतर असंतोष है। जद-यू के एक बड़े नेता कहते हैं, उन्हें पता चल गया है कि चिराग के पीछे कौन-सा मदारी काम कर रहा है।

चिराग के अलग चुनाव लड़ने से नीतीश को कोई नुकसान हो न हो, तेजस्वी को परोक्ष रूप में फायदा हो सकता है। बहुकोणीय संघर्ष में अगर राजद का पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बैंक उनके पक्ष में मजबूती से खड़ा रहता है, तो तेजस्वी को फायदा होने की उम्मीद है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रेमचंद्र मिश्रा कहते हैं, तेजस्वी द्वारा बेरोजगारी का मुद्दा उठाने, नीतीश कुमार के खिलाफ जबरदस्त एंटी-इंकम्बेंसी और एनडीए की अंदरूनी कलह के कारण महागठबंधन के प्रति जनता का सकारात्मक और स्वतःस्फूर्त समर्थन है। मिश्रा पूछते हैं, “भाजपा ने अपने पोस्टर से नीतीश कुमार की तस्वीर हटा दी, जबकि वे उनके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। प्रधानमंत्री मोदी अपनी रैली में दिवंगत रामविलास पासवान की प्रशंसा करते हैं, जबकि चिराग उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। यह क्या दर्शाता है? पब्लिक के लिए मैसेज स्पष्ट है कि भाजपा नीतीश को हटाकर अब अपना मुख्यमंत्री लाना चाहती है।”   

लेकिन क्या तेजस्वी इस सबका फायदा उठा सकते हैं? राजनैतिक टिप्पणीकार बद्री नारायण के अनुसार, “पिछले चुनाव की तुलना में इस बार तेजस्वी का ट्रस्ट डेफिसिट घटा है और राजद ने ‘माय’ समीकरण से इतर ओबीसी और अति पिछड़ी जातियों में भी अपना आधार बढ़ाया है। तेजस्वी को सभाओं में जनसमर्थन मिल रहा है, लेकिन वे कुछ गलतियां भी कर रहे हैं। मसलन, एक चुनावी सभा में उनका कथित रूप से राजपूतों के खिलाफ बयान अगड़ी जातियों को उनके खिलाफ गोलबंद कर सकता है। उन्हें ऐसा करने से परहेज करना चाहिए।” उनका कहना है कि तेजस्वी इस चुनाव में भले ही बाजी मारने में सफल न हों, लेकिन अगले चुनाव में उनके सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त लगता है। हालांकि उनके समर्थक पांच साल इंतजार करने के मूड में नहीं लगते। उनके लिए इस चुनाव में तेजस्वी का जीतना लगभग तय है, चाहे नीतीश अपना सिंहासन खाली करने का इरादा रखते हों या नहीं। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि बिहार का चुनाव इस बार दिलचस्प मोड़ पर है और नए चेहरे पेश कर रहा है।

तंत्र-मंत्र और षड्यंत्र

सुशील मोदी

बि हार की राजनीति में राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव और भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी का संबंध भले ही दशकों पुराना है, लेकिन दोनों की सियासी वैमनस्यता जगजाहिर है। इस विधानसभा चुनाव में भी कुछ नहीं बदला है। सत्तर के दशक में लालू जब पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे, तब सुशील वहां महासचिव थे। लालू आज भी कहते हैं कि सुशील उनके ‘सेक्रेटरी’ हुआ करते थे। दोनों ने जेपी आंदोलन से अपना राजनैतिक सफर शुरू किया, लेकिन बाद में उनकी राहें जुदा हो गईं। लालू समाजवाद से प्रभावित थे, तो सुशील आरएसएस की विचारधारा से। नब्बे के दशक में दोनों एक-दूसरे से फिर टकराए, जब लालू मुख्यमंत्री बने और सुशील भाजपा विधायक। विपक्ष में रहते हुए सुशील हमेशा लालू पर हमलावर रहे। चारा घोटाला में सीबीआइ जांच के लिए पटना हाइकोर्ट में अर्जी देने से लेकर तेजस्वी प्रसाद यादव सहित लालू के बच्चों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगाने तक सुशील ने यादव परिवार के लिए हमेशा मुश्किलें खड़ी की हैं। कोरोना संक्रमण के बाद स्वस्थ होकर बिहार के उप-मुख्यमंत्री हाल ही में पटना एम्स से लौटे हैं, लेकिन अभी लालू उनके निशाने पर हैं। लालू फिलहाल रांची के राजेन्द्र आयुर्विज्ञान संस्थान में इलाज करा रहे हैं। सुशील ने ट्वीट कर लालू पर अंधविश्वासी और तंत्र-मंत्र करने का आरोप लगाते हुए कहा कि तीन साल पहले वे उन्हें मारने के लिए भी तांत्रिक अनुष्ठान करा चुके हैं। लालू ने एक तांत्रिक के कहने पर न सिर्फ सफेद कुर्ता पहनना छोड़ दिया, बल्कि एक तांत्रिक को पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता भी बना दिया। सुशील के अनुसार, लालू को जनता पर भरोसा नहीं है। इसलिए वे तंत्र-मंत्र, पशुबलि और प्रेत साधना जैसे कर्मकांड कराते रहे हैं। वे कहते हैं कि तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास के बावजूद लालू न जेल जाने से बचे, न सत्ता बचा पाए। सुशील के अनुसार, 2009 में पूर्ण सूर्य ग्रहण देखने तारेगना पहुंचे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ग्रहण के समय बिस्किट खा लेने पर लालू ने कहा था, इससे अकाल पड़ जाएगा। लेकिन एनडीए शासन में बिहार में कृषि पैदावार बढ़ी। यह भी कि 2005 में राजद सत्ता से बाहर हुई, तो लालू को मुख्यमंत्री आवास छोड़ने में डेढ़ महीने लग गए थे। बकौल सुशील, लालू ने कहा था कि वे सीएम आवास की दीवार में ऐसी तंत्रसिद्ध पुड़िया रख आए हैं कि अब कोई वहां नहीं टिक पाएगा। लेकिन नीतीश पंद्रह वर्षों से हैं। 26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी ने जब गोधूलि बेला में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो लालू ने कहा था कि यह अशुभ मुहूर्त है और सरकार पांच साल नहीं चलेगी।

सुशील के सभी आरोपों के जवाब में तेजस्वी कहते हैं, “आज के जमाने में तंत्र-मंत्र की बात करना सुशील मोदी की सोच दर्शाता है। बेहतर होता कि वे अपनी सरकार की कुछ उपलब्धियों के बारे में बताते।”

कृष्‍ण-अर्जुन

तेज प्रताप यादव

बिहार चुनाव में तेजस्वी प्रसाद यादव महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सुर्खियों में हैं, मगर उनके बड़े भाई तेज प्रताप यादव लाइमलाइट से दूर हैं। तेज प्रताप अपने आप को कृष्ण और तेजस्वी को अर्जुन कहते हैं, लेकिन इस चुनावी महाभारत में 'कृष्ण' को 'अर्जुन' के साथ कम ही देखा जा रहा है। दरअसल, तेज प्रताप इस बार समस्तीपुर जिले के हसनपुर से चुनाव लड़ रहे हैं, जिसे राजद का सुरक्षित सीट समझा जाता है। पिछला चुनाव उन्होंने वैशाली के महुआ से लड़ा था और उन्हें अपने छोटे भाई से बड़ी विजय मिली थी। दोनों भाइयों ने 2015 के विधानसभा चुनाव से अपनी सियासी पारी शुरू की थी, लेकिन तेजस्वी को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिली। दोनों भाइयों को नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी महागठबंधन सरकार में डेढ़ साल तक तीन-तीन मंत्रालयों का प्रभार मिला, लेकिन उप-मुख्यमंत्री की जिम्मेवारी तेजस्वी को ही मिली, क्योंकि वही लालू प्रसाद यादव के अघोषित राजनैतिक वारिस हैं। कागजों पर भी तेजस्वी ही बड़े भाई हैं। इस चुनाव में तेजस्वी ने 31 वर्ष की आयु पूरी कर ली है, लेकिन तेज प्रताप आधिकारिक तौर पर अभी 30 वर्ष के ही हैं। हालांकि तेज प्रताप की शैक्षणिक योग्यता तेजस्वी से अधिक है। उनके पास इंटरमीडिएट की डिग्री है, जबकि छोटे भाई ने नवीं कक्षा के बाद पढाई छोड़ दी। तेज प्रताप सियासत के प्रति बहुत गंभीर नहीं लगते और उनका नाम अधिकतर गैर-राजनैतिक वजहों से सुर्खियों में रहा। पिछले दो वर्षों से वे अपनी पत्नी ऐश्वर्य से तलाक पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। सियासत से ज्यादा उनका रुझान अध्यात्म की ओर लगता है। कभी वे कृष्ण भगवान की वेशभूषा में नजर आते हैं, तो कभी भगवान शंकर की। उन्हें अक्सर वृंदावन में देखा जाता है। जब वे राज्य के स्वास्थ्य मंत्री थे, तो एक बार विधानसभा सत्र के दौरान उन्हें शिरडी में देखा गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भौतिकवादी वस्तुओं में उनकी दिलचस्पी नहीं है। उनके पास एक बीएमडब्लू कार और एक सीबीआर 1000 आरआर बाइक भी है। आइडिया की कमी भी उनके पास नहीं है। एक बार तो उन्होंने आरएसएस से टक्कर लेने के लिए धर्मनिरपेक्ष सेवक संघ यानी डीआरएस की स्थापना कर डाली। यह बात और है कि पार्टी में तेजस्वी की तरह उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता है, लेकिन वे इसका बुरा नहीं मानते। उन्हें लगता है कि सारथि के रूप में उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी अपने अर्जुन को विजय दिलाना है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad