शुरुआती संकेत इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि अगड़ी जातियों में यह संदेश सफलतापूर्वक बैठ गया है कि इस बार नहीं तो कभी नहीं। बिहार में सत्ता से यह तबका दो दशक से बाहर होने की वजह से भी बेतरह बेचैन है।
बिहार के जानकार, अर्थशास्त्री शैबाल गुप्ता ने आउटलुक को बताया , ‘लड़ाई (भाजपा और महागठबंधन) के बीच टक्कर की है। अभी पलड़ा महागठबंधन का भारी है। इसके पीछ बड़ी वजह जातिगत समीकरण नहीं, बल्कि बिहारी राष्ट्रवाद का जागना है। बिहारी गरिमा, बिहारी सम्मान, बिहारी नेतृत्व को अधिकार का सवाल चुनाव प्रचार में नीतीश को आगे किए हुए हैं।’ दो चरणों के मतदान के बाद भी बिहारी मतदाता खुलकर अपना पक्ष नहीं बता रहा है। इससे यह जरूर साफ होता है कि मतदाता के तौर पर बिहारी बेहद परिपक्व हो गया है। वह पक्ष या विपक्ष में अपनी राय या वोट को इस्तेमाल नहीं होने देना चाहता है।
वहीं डुमरांव के रविशंकर का मानना है कि असल लड़ाई तो फॉरवर्ड-बैकवर्ड की ही हो गई है, लेकिन भाजपा दलितों और पिछड़ों के वोटों में अच्छी सेंध लगाने में कामयाब हो गई है। इसके लिए दलितों और पिछड़े वर्ग के नेताओं को अपने साथ लेने की उसकी रणनीति बहुत कामयाब रही। हालांकि डुमरांव विधानसभा के अंतर्गत आने वाले चौगाई गांव में भाजपा की सभा में अगड़ी जातियों की ही भरमार थी, पिछड़ी और दलित जातियों के लोग नहीं के बराबर थे।
पटना में रिक्शा चालक कहार जाति के राजु और पासवान जाति के लालू ने बताया कि लड़ाई तो फॉरवर्ड और बैकवर्ड में ही है और इस बार बिहार की जनता फिर नीतीश को ही चुनने का मन बना रही है। अगर ज्यादा गड़बड़ न हुआ तो यही होगा। लालू पासवान ने कटाक्ष करते हुए कहा, अच्छे दिन में अरहर की दाल 200 रुपये हो गई, अब बिहार का सीएम भी अगर हम लोग पीएम को ही बना देंगे, तो फिर सोचो हम खाएंगे क्या ?