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केंद्र की नीतियों पर आम आदमी की बिजली

अब दिल्ली दूर अस्त नहीं। आम आदमी पार्टी की दिल्ली फतह का अंजाम क्या होगा? इसका कितना असर पड़ेगा देश की सियासत पर, आर्थिक नीतियों के तौर-तरीकों पर शासन की नीति पर ? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली केंद्रीय बजट को अंतिम रूप देने से पहले दिल्ली विधानसभा चुनावों से निकले आम आदमी के जिन्न से प्रभावित होंगे ?
केंद्र की नीतियों पर आम आदमी की बिजली

ये ऐसे सवाल हैं जिन पर आने वाले दिनों में तीखी बहस सिर्फ संसद के गलियारों में ही नहीं बल्कि देश-भर के आर्थिक-सामाजिक संस्थानों और गली-मोहल्लों में होने जा रही है।

तमाम कयासों के बीच शायद दिल्ली में आम आदमी पार्टी की धमाकेदार ऐतिहासिक जीत का असर मोदी सरकार के बजट पर दिखाई पड़े। यह इस बात से समझा जा सकता है कि चुनाव प्रचार के दौरान आप के जन कल्याणकारी वादों और निम्न आय वर्गीय जन समर्थन के दबाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में ४० से अधिक बार गरीब शब्द का इस्तेमाल किया। राजनीतिक अर्थशास्त्र के जानकारों का मानना है कि कल्याणकारी योजनाओं की अनदेखी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के लिए असंभव होगी। भले ही वह शब्दजाल के रूप में सामने आए, लेकिन गरीबों के हितों में चलाई जा रही योजनाओं में एक सिरे से कटौती संभव नहीं हो पाएगी, जैसा केंद्र सरकार ने हाल में जारी किए गए अध्यादेशों के जरिये करने के शुरुआत की थी। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार कानून और खाद्य सुरक्षा कानून के लिए होने होने वाले आवंटनों पर भरपूर गाज गिरने की आशंका जताई जा रही थी। बाजार परस्त अर्थशास्त्रियों-नेताओं का एक खेमा पिछले कुछ समय से आम जनता को दी जाने वाली सब्सिडी को कम करने की पैरोकारी कर रहा था। यह खेमा दिल्ली में भाजपा की आम आदमी पार्टी से करारी हार के बाद थोड़ा चुप हुआ है। अर्थशास्त्री और योजना आयोग की पूर्व सदस्य डॉ. सॉमित्रा चौधरी का मानना है, यह जनादेश केंद्र सरकार के लिए राजनीतिक धक्का है और प्रधानमंत्री की राजनीतिक पूंजी को कमजोर करेगा। इससे नीतियों में बड़े जनविरोधी परिवर्तन करने मोदी सरकार के लिए मुश्किल हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली के ऊपर गरीबोन्मुखी कदम उठाने का दबाव बढ़ेगा। ऐसे में इस बात की संभावना ज्यादा है कि पहले मध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर कर में जो राहत दी जाने वाली थी, उसी तरह से गरीबों को भी कुछ -फील गुड-कराया जाएगा। हालांकि यह मानना अभी जल्दबाजी होगी कि बड़े आर्थिक सुधारों की रफ्तार कम होगी।

दूसरी तरफ बजट को जनोन्मुखी बनाने के साथ-साथ  बाजारपरस्त सुधारों की रफ्तार धीमी करने का दबाव केंद्र सरकार और भाजपा में इस कदर है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली को खुद आगे आकर कहना पड़ रहा है कि सुधारों की रफ्तार थमेगी नहीं। अरुण जेटली ने दो टूक शब्दों में कहा, -हमने हाल में चार विधानसभा चुनाव जीते हैं और एक में हमारी हार हुई है। इसलिए हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उससे पीछे नहीं हटेंगे। बजट पॉपुलिस्ट नहीं होगा। इसके बाद अंधाधुंध आर्थिक सुधारों के पैराकारों ने वित्त मंत्री का जमकर समर्थन किया। मिसाल के तौर पर इंडिया रेटिंग्स के चीफ इकॉनॉमिस्ट डी. के. पंत ने कहा, वित्त मंत्री का यह कहना अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी खबर है। इस बयान का सीधा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि जन-कल्याणकारी योजनाओं में खर्च को कम करके उद्योग परक नीतियों पर जोर बढ़ेगा। ऐसे में निश्चित तौर पर मोदी सरकार के लिए यह बजट एक टेस्ट केस साबित होगा, जिसमें उसे अपने राजनीतिक भविष्य और कॉरपरेट प्रेम के बीच का रास्ता चुनना होगा। इस बारे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के नेता डी. राजा ने कहा कि जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी सरकार ने कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में अहम नीतिगत फैसले लेने शुरू किए हैं, उससे यह तो तय है कि इस दिशा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। कुछ लच्छेदार शब्द जरूर उछाले जा सकते हैं, लेकिन इससे देश के गरीबों के पक्ष में कोई बड़ा कदम उठाए जाने की गुंजाइश नहीं है। कांग्रेस के सांसद और पूर्व मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि जिस तरह से तमाम नियमों को ढीला करके विकास के नाम पर पर्यावरण मंजूरियां दी गईं या भूमि अधिग्रहण अधिनियम लाया गया उससे लगता नहीं है कि बजट में असल में गरीबों का ध्यान रखा जाएगा। इस बात की संभावना जरूर है कि गरीबों के पक्ष में शब्दों की बाजीगरी हो।

यानी इस आशंका में अभी भी दम है कि खाद्य सुरक्षा कानून, स्वास्थ्य और शिक्षा आदि से संबंधित कार्यक्रमों में आबंटन की कमी हो। पहले से भारत मानव विकास सूचकांक में बहुत पीछे है। यहां स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी खर्च  बेहद कम है। इस समय भारत इन मदों में जीडीपी का 4.7 फीसदी खर्च कर रहा है, जो कि अल्प विकसित देशों (6 फीसदी) और अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र (7 फीसदी) से भी बहुत कम है।  और अब ये सारे मुद्दे राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन गए हैॆ। िदल्ली की जनता ने इन तमाम सवालों पर ही मोदी के तथाकथित विकास के दावे को झुठलाकर आम आदमी पार्टी को चुना है। मोदी सरकार जितना भी चाहे लेकिन जब आप की सरकार ४०० इकाई तक बिजली खर्च करने वालों का बिजली बिल आधा करेगी, डिस्कॉंम को सस्ते स्रोतों से बिजली खरीदने और उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली देने की राह खोलेगी तथा उपभोक्ताओं को बिजली कंपनियों में चुनाव करने की स्वतंत्रता देगी तो इसका असर देश भर में पड़ेगा। यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था और नीतियों में बड़े बदलाव की मांग को भी तेज करेगा। इसी तरह से दिल्ली में आप के वादे के अनुसार २०,०००लीटर मुफ्त पानी प्रत्येक घर को देने, मीटर लगाने, यमुना नदी को पुनर्जीवित करने तथा पानी माफिया पर नकेल कसने की घोषणा को अमली जामा पहनाने में अधिकारी माथा-पच्ची करने लगे हैं। इस पर अमल करना आप की दिल्ली सरकार के लिए तो चुनौती है ही, इसकी बिजली से केंद्र भी बचा नहीं रह पाएगा।

आप का असर सिर्फ बजट तक ही नहीं बल्कि व्यापक राजनीतिक विमर्श और शासन की नीतियों पर भी पड़ेगा। जब दिल्ली सरकार भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल विधेयक पारित करेगी तो देखना होगा कि केंद्र सरकार उसे मंजूरी देगी या नहीं। आप की जीत ने कम से कम दिल्ली के स्तर पर तो यह साबित किया है कि अकेले धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करके हमेशा चुनावी जीत सुनिश्चित नहीं की जा सकती है। दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की त्रिलोकपुरी, बवाना आदि इलाकों में बहुत कोशिश की गई थी। सांप्रदायिक तनाव फैलाया गया, चर्चों पर हमले किए गए, हिंदू महिलाओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील की गई, लेकिन ये सारे पांसे उलटे पड़ गए। दिल्ली चुनावों के बाद यह बहस तेज हो गई है कि उग्र हिंदुत्व के इस एजेंडे को इसी तरह से आगे बढ़ाना है या आर्थिक सुधारों पर जोर देना है। दोनों ही पक्षों की आवाजें तेज हो गई हैं। भाजपा सांसद साक्षी महराज सरीखे लोग हिंदुत्व के कार्ड को खुलकर न खेलने को हार की वजह बता रहे हैं जबकि दूसरा पक्ष ऐसी ताकतों को काबू में न रख पाने को वजह मान रहा है।

दिल्ली विधानसभा चुनावों ने राजनीतिक हमले की गरिमा का भी अहम सवाल उठाया। इन चुनावों के दौरान भाजपा ने जिस तरह से आक्रामक-अश्लील और व्यक्तिगत आरोपों की बौछार की, उसने तमाम तबकों की संवेदनाओं को आहत किया। खुद अरविंद केजरीवाल ने आउटलुक से बातचीत के दौरान बताया कि भाजपा के इस निचले स्तर के प्रचार ने आप के पक्ष में माहौल को मजबूत किया। भाजपा के भीतर भी जो आत्ममंथन चल रहा है, उसमें भी इस मुद्दे को गंभीरता से लिया गया है। दिल्ली में जिस तरह से भाजपा ने आखिरी क्षण में किरण बेदी को बाहर से लाकर स्थानीय भाजपा पर थोप दिया था, वह दांव भी उलटा पड़ा। ऐसा भाजपा के तमाम शीर्ष नेता मान चुके हैं। इसका असर बिहार में जीतन मांझी प्रकरण में दिखाई दे रहा है। इसमें भाजपा सीधे-सीधे मांझी पर दूर तक दांव लगाने को लेकर पसोपेश में है।

आप देश भर में भाजपा तथा उग्र हिंदुत्ववादी ताकतों की काट के तौर पर उभरी है। इसने गरीबों के लिए कल्याणकारी नीतियों के पक्ष में एक माहौल बनाया है, जिसका राष्ट्रव्यापी असर पड़ना शुरू हो गया है। आप की बिजली केंद्र की नीतियों पर न पड़े, ऐसा संभव नहीं। हालांकि अगर मोदी का बजट ज्यादा बदला तो इसे भी लोग आप की जीत के तौर पर ही देखेंगे। 

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