अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 के तीसरे पहर का वह मंजर याद करिए। हजारों की भीड़ उत्तेजना और उन्माद में जयजयकार कर रही थी। लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी समेत भाजपा और संघ परिवार के नेताओं के साथ उमा भारती, विनय कटियार जैसे हिंदुत्व की नई अलख जगाने वाले तमाम नए-पुराने चेहरे मौजूद थे। बाबरी मस्जिद के तीन गुंबदों पर 'कारसेवक' सवार थे। मंच से नारे और उद्घोष जारी हो रहे थे। रह-रहकर गुंबदों से नीचे आने की बातें भी हो रही थीं मगर जैसे वह अनसुनी करने के लिए ही थीं। वजह यह थी कि उस समय राज्य में भाजपा की कल्याण सिंह सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे चुकी थी कि बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं होगा। कहने को तो वहां 144 धारा भी लागू थी। केंद्रीय बल भी मौजूद था, मगर उन्हें दूर ही रखा गया था। लेकिन होना वही था, जो हुआ और अब इतिहास का अध्याय है।
कथित कारसेवकों (यह शब्द सिख परंपरा से उधार लिया गया था जिसका अर्थ सिर्फ अहिंसक, सकारात्मक धर्मसेवा से लिया जाता है) ने अपने औजारों से पहले बीच के गुंबद को ढहाया। फिर तो मंच पर ऐसा समां बंधा कि उमा भारती जोश में वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी के कंधों पर सवार हो गईं। सब एक-दूसरे को बधाइयां देने लगे। कहते हैं, आडवाणी के चेहरे पर जरूर कुछ सिकन थी। कुछ देर में तो तीनों गुंबद धराशायी हो गए और 'जय श्रीराम' के नारे से आकाश गूंजने लगा। इसी के साथ शामत आई उन पत्रकारों और प्रेस फोटोग्राफरों की, जो उस मंजर को कैमरों और अपनी नोटबुक में कैद करने की कोशिश कर रहे थे। कइयों के कैमरे रौंद दिए गए, कइयों को सिर-हाथ-पैर में गंभीर चोटें आईं। यह सब भी उस इतिहास का अब हिस्सा है, जिसके बाद देश में उग्र और कट्टर हिंदुत्व की आधारशिला रखी गई। तब उसके नायक एक तरह से लालकृष्ण आडवाणी थे, जिनका 2004 में चुनावी हार के बाद हृदय परिवर्तन जैसा हुआ और वह पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की मजार पर पहुंच गए, तो जैसे हिंदुत्ववादियों के हृदय से उतर गए। इसके पहले वे कह चुके थे कि मस्जिद का ढहाया जाना उनकी जिंदगी का सबसे दुखद दिन था। लेकिन 2002 में गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी उनकी जगह “हिंदू हृदय सम्राट” का तमगा हासिल कर चुके थे। वह 2012 में लगातार तीसरी बार विधानसभा चुनाव जीतकर अपनी यह छवि हिंदुत्व के पैरोकारों के हृदय में पुख्ता कर चुके थे। लेकिन इस दौरान हिंदुत्व के पुराने नायकों से उनकी नहीं बनी या कहिए कि पुराने फीके पड़ते चेहरों को वे ज्यादा तरजीह नहीं देना चाहते थे।
गुजरात से ही आने वाले विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अंतरराष्ट्रीय महासचिव प्रवीण तोगड़िया से उनकी अदावत मशहूर है, जो अब इससे हटकर अपना अलग संगठन बना चुके हैं। इसी तरह उमा भारती, विनय कटियार से भी उनकी दूरी स्पष्ट रही है। 2014 के चुनावों के पहले जब उत्तर प्रदेश के प्रभारी अमित शाह बनाए गए तो विनय कटियार उनके बुलावे पर कुछ भड़क से गए थे। तब उमा भारती ने भी एक पत्रकार के सवाल पर कहा था, “लोकप्रिय तो हम भी काफी हैं।” उनका आशय नरेंद्र मोदी से था। बाद में उन्हें केंद्र में मंत्री पद हासिल जरूर हो गया था, लेकिन पुराना जलवा कायम नहीं रह सका था। इस बार तो उन्होंने चुनाव लड़ने से भी इनकार कर दिया। जाहिर है, पिछले पांच साल में जिस तरह के हिंदुत्व के तेवर दिखे, उसमें ये चेहरे फिट नहीं बैठते। गोरक्षा के नाम पर सरेआम दलितों और मुसलमानों की पिटाई और हत्याएं ही इस दौर की सच्चाई नहीं बनीं, बल्कि हिंदुत्व का फोकस भी अयोध्या में राम मंदिर के बदले उग्र और दबंग राष्ट्रवाद की ओर बढ़ गया। इसमें राम मंदिर या स्वदेशी के पैरोकार हिंदुत्व के नायक काम नहीं आ सकते। ऐसे में उग्र राष्ट्रवाद की धारा के नायक वही हो सकते थे, जो कथित “टुकड़े-टुकड़े गैंग” और “अर्बन नक्सलों” के बरक्स खड़े हो सकते थे। इस दौर में प्रज्ञा ठाकुर और असीमानंद जैसे चेहरे ही उग्र धारा के माकूल बैठते हैं। ये मालेगांव, अजमेर, मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस में आरोपी रहे हैं। और 2014 के बाद एनआइए की पड़ताल में पुख्ता सबूत न मिलने के आधार पर या तो कुछ मामलों में बरी हो चुके हैं या फिर जमानत पर हैं।
प्रज्ञा तो मालेगांव विस्फोट में अभी जमानत पर हैं। उनका दोपहिया वाहन उस धमाके में मिला था, लेकिन एनआइए की अब दलील है कि उस वाहन का इस्तेमाल वे दो साल से नहीं कर रही थीं और जो इस्तेमाल कर रहा था, वह अभी भी फरार है। यही नहीं, प्रज्ञा पर इंदौर में आरएसएस के कार्यकर्ता सुनील जोशी की हत्या के भी आरोप थे। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार के दौरान पुलिस ने आरोप-पत्र दायर किया था। लेकिन निचली अदालत में ही वे छूट गई थीं। निचली अदालत ने अपने फैसले में पुलिस की लचर पड़ताल को दोषी ठहराया था। लेकिन आश्चर्य यह कि अभियोजन पक्ष ने इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी। इससे भी दिलचस्प प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल में कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के खिलाफ उम्मीदवार बनाने की दलीलें हैं। जब ये आलोचनाएं होने लगीं कि मालेगांव मुकदमे में वे अभी आरोपी हैं और गंभीर बीमारी (कैंसर) की वजह से जमानत पर हैं, तो उन्हें उम्मीदवार कैसे बना दिया गया। (हालांकि अब यह तथ्य भी उभर आया है कि मुंबई में मेडिकल जांच के दौरान उन्हें किसी गंभीर बीमारी का पता नहीं चला था)। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल के एक इंटरव्यू में कहा, “अमेठी और रायबरेली के उम्मीदवार जमानत पर हैं तो उन पर कोई सवाल नहीं उठाता।” उनका इशारा राहुल और सोनिया गांधी पर था, जो नेशनल हेराल्ड और एजीएल मामले में जमानत पर हैं। हालांकि, इससे कई लोगों की मौत वाले बम धमाके जैसे गंभीर अपराध में जमानत की तुलना कितना सही है, यह विचार का विषय है। लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक चुनावी सभा में कहा, “हिंदू आतंक जैसा शब्द गढ़ने वाले दिग्विजय से मुकाबले के लिए ही प्रज्ञा ठाकुर को उतारा गया।”
बहरहाल, जैसे हिंदुत्व का दायरा राम मंदिर से आगे बढ़ा और उग्र राष्ट्रवाद की ओर मुड़ा तो हिंदुत्व के अधिक उग्र चेहरों को आगे लाना शायद अनिवार्य हो गया। यही अब हिंदुत्व के अगले चमकते चेहरे कहला सकते हैं। इसमें और इजाफा ही हो सकता है, अगर भीमा-कोरेगांव के बाद उभरे चेहरों को भी जोड़ लें, जो अभी नेपथ्य में दिखते हैं तो अगले वर्षों में कुछ और भी उग्रता दिख सकती है, बशर्ते चुनावी नतीजे देश की अगली सियासत को कुछ नया रंग न दे दें।