लगता है, 1970 के दशक में छात्र आंदोलन से निकली राजनीति का चक्र पूरा हो चला है। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच आखिरी चुनावी मुकाबला हो सकता है। दोनों तीन दशक से भी ज्यादा से राज्य की राजनीति के अहम किरदार रहे हैं। नीतीश राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। लालू चुनावी मैदान में तो नहीं हैं, पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की अगुआई वाले महागठबंधन के मुख्य सूत्रधार हैं।
लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री रहते शुरुआती वर्षों में पिछड़े वर्गों का जोरदार सशक्तीकरण हुआ, लेकिन बाद में उनके राज में घोर कुशासन, आपराधिक गिरोहों, जातिगत संघर्षों, आर्थिक मंदी और सत्तारूढ़ बाहुबलियों का बोलबाला हो गया। यादवों और मुसलमानों के मजबूत समीकरण (एमवाइ) के बल पर लालू या राजद 2005 तक सत्ता में बने रहे, लेकिन उस साल राज्य की दुर्दशा से लोगों में गुस्सा चरम पर था।
इसी के बाद नीतीश का आगमन हुआ। उन्होंने एनडीए के समर्थन से कहानी पलट दी। उनके पहले कार्यकाल (2005-2010) में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए। सड़कें बनीं, अपराध दर में गिरावट आई, गांवों में बिजली पहुंची और सरकारी स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों जैसे अन्य क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय बदलाव आया।
लेकिन नीतीश का सफर सीधा नहीं रहा। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), फिर राजद के साथ बार-बार पाला बदलने से उनकी नैतिक छवि कमजोर हो गई। कई लोगों ने उसे राजनैतिक अवसरवाद माना। फिर भी, वे बिहार की सत्ता संरचना के केंद्र में बने हुए हैं।
बिहार के चुनावों में कभी भी नाटकीयता की कमी नहीं रही है, लेकिन 2025 का चुनाव अलग लग रहा है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह नीतीश-लालू युग के अंत का प्रतीक हो सकता है, बल्कि इसलिए भी कि यह एक नए राजनैतिक विमर्श की शुरुआत का संकेत दे सकता है। आज बिहार युवा है, ज्यादा आकांक्षी है और पहचान की राजनीति से मोहभंग दिखने लगा है। सड़क, बिजली और पानी जैसे पुराने मुद्दे अब पलायन, बेरोजगारी और आर्थिक संकट में बदल गए हैं। पहली बार वोट देने वालों की बढ़ती संख्या उम्मीदों को नया आकार दे रही है। सामाजिक न्याय के नारों के साथ नौकरी, शिक्षा और सम्मान के मुद्दे जोर पकड़ रहे हैं।
बिहार उसी दौर में है, जो 2017 में उत्तर प्रदेश में दिखा था, जातिगत गणित से प्रशासन-केंद्रित राजनीति की ओर बदलाव। यह बदलाव चुनावी नतीजों को बदलने के लिए पर्याप्त है या नहीं, यह देखना बाकी है।
बढ़ती आकांक्षाओं के बावजूद, बिहार के चुनावों में जाति अभी भी निर्णायक भूमिका निभाती है। भाजपा और जनता दल-यूनाइटेड (जदयू)) का एनडीए 2020 के मुकाबले 2025 में मजबूत पकड़ के साथ प्रवेश कर रहा है। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, रामविलास पासवान (लोजपा-रापा), उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा), और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) की वापसी ने गठबंधन को मजबूत किया है। 2020 में जदयू को भारी नुकसान हुआ था, कुछ हद तक चिराग के उम्मीदवारों के कारण, जिनकी पार्टी अलग लड़ी थी और नीतीश को निशाने पर लिया था। आरोप यह था कि उन्हें अलग लड़ाया गया था। आंतरिक विश्लेषण बताता है कि अगर लोजपा (रापा) एनडीए के साथ बनी रहती, तो एनडीए कम से कम 35 और सीटें जीत सकता था।
दूसरी ओर, इंडिया ब्लॉक या महागठबंधन की अगुआई राजद कर रहा है, जिसमें कांग्रेस, वामपंथी दल और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) शामिल हैं। एमवाइ वोट उसकी सबसे मजबूत ताकत है, लेकिन वह ईबीसी और दलित वोटों के कुछ हिस्सों को भी अपनी ओर खींचने की कोशिश करेगा। राजद ने हाल में ईबीसी समुदाय के मंगनीलाल मंडल को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर इसी दिशा में कदम उठाया है। ईबीसी में 112 जातियां शामिल हैं और जो कुल आबादी का 36 प्रतिशत से ज्यादा हैं। वे सबसे बड़े मतदाता समूह हैं और उनका वोट मोटे तौर पर नीतीश को मिलता रहा है। नीतीश की छवि बिगड़ने से उसमें बिखराव दिख रहा है। फिर, कांग्रेस को भी कुछ उच्च जाति के वोट मिलने की उम्मीद है।
ऊपरी तौर पर, एनडीए मजबूत दिख रहा है। पिछले दो दशकों में देखा गया है कि तीन प्रमुख दलों, भाजपा, जदयू और राजद में से जो भी दो पक्षों को साथ लाता है, वही जीतता है। यही वजह है कि लालू बार-बार सार्वजनिक बयान देते रहे हैं कि जदयू के लिए उनके दरवाजे खुले हैं। हालांकि, नीतीश 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद कई बार कह चुके हैं कि ‘‘अब वे एनडीए के साथ ही रहेंगे।’’ लेकिन उनके अतीत को देखते हुए कई लोग संशय में हैं।
अगर 1990 का दशक राजनैतिक उथल-पुथल का दशक था, तो 2020 का दशक उत्तराधिकार का दशक हो सकता है। लालू के बेटे तेजस्वी यादव पहले ही राजद की कमान संभाल चुके हैं। चिराग खुद को एक आधुनिक, अखिल बिहारी नेता के रूप में स्थापित कर रहे हैं। जदयू के भीतर कुछ नेता नीतीश के बेटे निशांत कुमार को राजनीति में लाने की पैरवी कर रहे हैं। इस बदलाव में जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर का उदय भी पेचदगी पैदा कर रहा है। बिहार भर में पदयात्रा करने के बाद प्रशंात किशोर ने लगातार सुशासन, शिक्षा और रोजगार जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया है। फिर भी, ऐसे राज्य में जहां चुनावी फैसले अक्सर मुद्दा-आधारित राजनीति से ज्यादा जाति पहचान से प्रभावित होते हैं, वहां अहम सवाल यह है कि क्या आदर्शवाद चुनावी ताकत में तब्दील हो सकता है?
2025 का चुनाव न केवल यह तय करेगा कि बिहार पर किसका शासन होगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि बिहार का शासन कैसे चलेगा।
(लेखक ब्रोकन प्रॉमिसेज़: कास्ट, क्राइम ऐंड पॉलिटिक्स इन बिहार के लेखक हैं। विचार निजी हैं)