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बिहार जनादेश '25 / पलायनः प्रवासी पैंतरे

पलायन के मुद्दे को प्रवासी मजदूरों के अपमान में बदलने की भाजपा की कोशिश का चुनावी नतीजों पर असर तो...
बिहार जनादेश '25 / पलायनः प्रवासी पैंतरे

पलायन के मुद्दे को प्रवासी मजदूरों के अपमान में बदलने की भाजपा की कोशिश का चुनावी नतीजों पर असर तो संदिग्ध, मगर मुद्दा पलटने और विपक्ष के खिलाफ गोलबंदी का यह भी नमूना

तमिलनाडु और बिहार के बीच 2,000 किलोमीटर से भी ज्‍यादा की दूरी है, और पहली नजर में दोनों के बीच तुलना करने लायक कुछ खास नहीं लगता। फिर भी, दोनों राज्यों में एक अहम वैचारिक विरासत की समानता है, दोनों ही सामाजिक न्याय की राजनीति की प्रयोगशाला रहे हैं। तमिलनाडु में स्‍वाभिमान आंदोलन द्रविड़ राजनैतिक परंपरा के रूप में विकसित हुआ, जबकि बिहार में पिछड़ी जाति की राजनीति के उदय ने सकारात्मक कार्रवाई और सामाजिक सशक्तिकरण को राजनैतिक विमर्श के केंद्र में ला दिया। लेकिन उसे ही एक-दूसरे के बरक्‍स खड़ा करके मुद्दा पलटने की कोशिश हाल के बिहार विधानसभा चुनाव में दिखी। नतीजों पर चाहे जो असर पड़ा हो, मगर यह घटनाक्रम आगे की सियासत के लिए अहम संदेश है।

बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दोनों ने तमिलनाडु और उसके मुख्यमंत्री का जिक्र किया, दोनों दूर के राज्यों के बीच किसी वैचारिक समानता के लिए नहीं, बल्कि कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी के लिए। प्रधानमंत्री ने आरोप लगाया कि बिहार के प्रवासी मजदूरों को तमिलनाडु में द्रमुक कार्यकर्ता परेशान करते हैं। यह आरोप द्रमुक या मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन को रास नहीं आया कि तमिल लोग हिंदी भाषी बिहारियों से बुरा बर्ताव करते हैं।

तमिलनाडु के नेताओं की तीखी प्रतिक्रियाओं के बावजूद भाजपा ने आक्रामक रुख जारी रखा। राजद नेता तेजस्वी यादव पर कटाक्ष करते हुए शाह ने कहा कि तेजस्वी के ‘‘पसंदीदा मुख्यमंत्री’’ एम.के. स्टालिन ने बिहारियों की तुलना बीड़ी से कर उनका अपमान किया है। शाह ने एक चुनावी रैली में कहा, ‘‘किसी ने लालू के बेटे से पूछा कि उनका पसंदीदा मुख्यमंत्री कौन है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री, द्रमुक के स्टालिन हैं। क्या आप जानते हैं कि वे कौन हैं? उनकी पार्टी बिहारियों की तुलना बीड़ी से करती है और उनका अपमान करती है।’’

इन दोनों बयानों पर द्रमुक और उसके सहयोगियों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने प्रधानमंत्री को तमिलनाडु दौरे के दौरान ऐसी ‘‘अपमानजनक’’ टिप्पणी दोहराने की चुनौती दी। उन्होंने कहा कि बिहारी मेहनती लोग हैं और राज्य में प्रवासी मजदूरों पर लक्षित हमलों की कोई घटना नहीं हुई है।

स्टालिन ने एक समारोह के दौरान पत्रकारों से कहा, ‘‘यह भाईचारे और सिर्फ भाईचारे का राज्य है, जो यहां आने वालों का स्वागत करता है और उनका ख्‍याल रखता है। फिर भी, मोदी भूल गए कि वह सभी के प्रधानमंत्री हैं और उन्होंने बिहार में झूठ फैलाना चुना। मैं उन्हें यहां आकर ऐसा ही भाषण देने की चुनौती देता हूं।’’

तमिलनाडु राज्य योजना आयोग के अनुसार, राज्य में लगभग 35 लाख प्रवासी मजदूर हैं। उनमें 2.5 लाख से ज्‍यादा बिहार से हैं। इस तरह वे ओडिशा के मजदूरों के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रवासी समूह है।

आयोग की 2024-25 की रिपोर्ट के मुताबिक, चेंगलपट्टू, चेन्नै, कांचीपुरम और तिरुवल्लूर जिले वाले चेन्‍नै जोन में अधिकांश प्रवासी मजदूर पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्‍यों, खासकर बिहार, ओडिशा और असम से हैं।

प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के तमिलनाडु में प्रवासी श्रमिकों के साथ दुर्व्यवहार के आरोप लगाने से पहले कुछ तत्‍वों ने उनके खिलाफ हमलों की झूठी कहानियां फैलाने की कोशिश की थी। सोशल मीडिया में देश के अन्य हिस्सों की संबंधित 2023 की कुछ घटनाओं के वीडियो प्रसारित किए गए, जिनमें बिहार के प्रवासी श्रमिकों पर हमले का झूठा दावा किया गया। तमिलनाडु और बिहार दोनों सरकारों की फौरी कार्रवाई, पुलिस जांच से इन अफवाहों पर विराम लगा।

द्रमुक सांसद डॉ. पी. गणपति राजकुमार कहते हैं, ‘‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री जैसे पदों पर बैठे नेता उस राज्य के बारे में झूठी अफवाहें फैला रहे हैं जो प्रवासी मजदूरों को अवसर प्रदान करता है।’’ उन्होंने आउटलुक से कहा, ‘‘मेरे निर्वाचन क्षेत्र कोयंबत्‍तूर में हजारों प्रवासी मजदूर हैं और मुझे उनके साथ दुर्व्यवहार का एक भी मामला देखने को नहीं मिला।’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘यही बात पूरे राज्य में लागू होती है। हम भाषा, धर्म या नस्ल के आधार पर किसी भी पूर्वाग्रह के बिना सभी के साथ समान व्यवहार करते हैं। हमारा विरोध केवल हिंदी थोपने पर है, हिंदी बोलने वालों के खिलाफ नहीं।’’

द्रमुक बनाम भाजपा

द्रमुक के 2021 में सत्ता में आने के बाद से तमिलनाडु केंद्र सरकार की कई नीतियों का मुखर विरोध करता रहा है, जिसे वह राज्य के अधिकारों का अतिक्रमण बताता है। द्रमुक सरकार लगातार केंद्र सरकार पर फंड रोकने से लेकर विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपाल की हीला-हवाली के लिए निशाना साधती रही है। उसने सुप्रीम कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाया और आरोप लगाया कि केंद्र ने समग्र शिक्षा योजना के तहत 2,000 करोड़ रुपये की शिक्षा निधि जारी करने में अड़चन डाली है। राज्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) और त्रि-भाषा फॉर्मूले का विरोध जारी रखे हुए है। सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राज्यपालों के लिए एक समय सीमा निर्धारित की है। इसे न केवल राज्यपालों के लिए, बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी झटका माना जा रहा है, जिस पर राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया है। इसके जवाब में, केंद्र ने अदालत ने राष्ट्रपति संदर्भ दायर किया है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना बाकी है।

इन मामलों से तमिलनाडु की द्रमुक सरकार और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के बीच कटुता को और गहरा कर दिया है।

भाजपा का दक्षिणी राज्यों के प्रति सौतेला रवैया कोई नया नहीं है। 2016 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल की तुलना सोमालिया से की थी। भारत के मानव विकास सूचकांक में लगातार शीर्ष पर रहने वाले राज्य की उस तुलना को गलत और अपमानजनक दोनों ही माना गया था।

व्यापक पैटर्न का हिस्सा?

क्या भाजपा के दक्षिणी राज्यों को बार-बार निशाना बनाए जाने के पीछे कोई वैचारिक कारण है? राजनैतिक सिद्धांतकार तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनैतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अजय गुडावर्ती इसे व्यापक राजनैतिक पैटर्न का हिस्सा मानते हैं।

डॉ. गुडावर्ती ने आउटलुक से कहा, ‘‘केरल और तमिलनाडु पर मौजूदा केंद्र सरकार के निशाना साधने की कोशिशें उसी रवैए का विस्‍तार है, जो पंजाब में सिख किसानों को खालिस्तानी, लद्दाख में बौद्ध और मणिपुर में ईसाई आदिवासियों को राजद्रोही बताने या फिर आम मुसलमानों, खासकर कश्मीरियों को बदनाम करने में दिखता है। इससे मौजूदा सरकार की ध्रुवीकरण की कोशिश और हिंदी पट्टी में हिंदू वोट बैंक को मजबूत करने की व्यापक रणनीति जाहिर होती है।’’

वर्षों से, दक्षिणी राज्य केंद्रीय निधियों के आवंटन के मानदंडों पर चिंताएं जताते रहे हैं। उनका तर्क है कि जनसंख्या नियंत्रण और शिक्षा में उनकी सफलता को ही उनके खिलाफ खड़ा किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप केंद्रीय निधि से उन्हें कम हिस्सा मिलता है। आने वाले वर्षों में संसदीय क्षेत्रों का प्रस्तावित परिसीमन इस बेचैनी को और बढ़ाने वाला है। आबदी में स्थिरता प्राप्त करने के बाद, इन राज्यों को डर है कि उनकी लोकसभा सीटों की संख्या घट सकती है, जिससे संसद में उनका राजनैतिक प्रतिनिधित्व कम हो सकता है।

फिलहाल, प्रवासी मजदूर, जिनके नाम पर राजनैतिक लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं, इन आरोपों से काफी हद तक अछूते हैं। वे दूर-दराज के राज्‍यों में शांतिपूर्वक रह रहे हैं और काम कर रहे हैं। साथ ही वे राजनैतिक द्वंद्व में फंसे इन राज्यों की अर्थव्यवस्था में चुपचाप योगदान दे रहे हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री जैसे पदों पर बैठे नेता उस राज्य के बारे में झूठी अफवाहें फैला रहे हैं जो प्रवासी मजदूरों को अवसर प्रदान करता है।

डॉ. पी. गणपति राजकुमार, द्रमुक सांसद

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