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प्रथम दृष्टि: टिकाऊ एकता

मोदी विरोधी शक्तियां अगर एकता की मुहिम को लेकर वाकई संजीदा हैं, तो उन्हें ऐसा फार्मूला निकालना पड़ेगा...
प्रथम दृष्टि: टिकाऊ एकता

मोदी विरोधी शक्तियां अगर एकता की मुहिम को लेकर वाकई संजीदा हैं, तो उन्हें ऐसा फार्मूला निकालना पड़ेगा जिससे मतदाताओं में कोई भ्रम न हो, खासकर तब जब लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच फासला महज कुछ महीने का है

भारत में विपक्षी एकता को हाल के दशकों में न तो सियासी दलों ने और न ही देश की राजनीति को करीब से समझने वालों ने गंभीरता से लिया है। आम तौर पर ऐसा समझा जाता है कि प्रतिपक्ष के नेता एका की कवायद तभी शुरू करते हैं जब चुनाव सिर पर होते हैं। ऐसे प्रयास खास तौर पर तब किए जाते हैं जब सत्तारूढ़ दल का मुखिया राजनैतिक रूप से ‘मजबूत’ समझा जाता है। 1977 के आम चुनाव में तमाम विपक्षी पार्टियां कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए एक साथ आगे आईं क्योंकि उनकी टक्कर इंदिरा गांधी जैसी शख्सियत से थी। 2004 के चुनावों में यूपीए के कुनबे में प्रतिपक्ष के नेता एकजुट दिखे क्योंकि मुकाबला अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री से था। इस बार भी भाजपा-विरोधी पार्टियों को एक साथ करने के पीछे कुछ ऐसा ही कारण दिखता है। भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में अपने बल पर लोकसभा में दो बार बहुमत पा चुकी है।

2014 और 2019 के चुनावों के नतीजे आने के बाद से एनडीए सत्ता में है। अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव तक इस सरकार के दस साल पूरे हो जाएंगे। इस पूरे दशक में मोदी भाजपा के ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जो न सिर्फ अपनी पार्टी में बल्कि अपने गठबंधन के सर्वमान्य नेता हैं। उनके सामने किसी विकल्प की चर्चा नहीं होती। जैसे कभी कांग्रेस में नेहरू और इंदिरा के होते और भाजपा में वाजपेयी के होते किसी अन्य नेता को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में नहीं देखा जाता था, आज वैसी ही स्थिति एनडीए में मोदी के साथ है। उनके खिलाफ विपक्ष के तमाम आरोपों के बावजूद मोदी एकमात्र नेता हैं जिनके कंधों पर अपने दल और गठबंधन की जीत तय करने का दारोमदार है। पिछले दस वर्षों में मोदी ही अपने दल और गठबंधन के लिए सबसे बड़े “वोट कैचर” साबित हुए हैं। इस बात से उनके विरोधी भी इत्तेफाक रखते हैं।

 ‘इंडिया’ गठबंधन के अधिकतर नेता इस बात से इनकार नहीं करते कि उनकी लड़ाई मोदी से है, न कि उनकी पार्टी से। जैसे विपक्ष की 1977 में लड़ाई सीधे इंदिरा गांधी से थी, न कि कांग्रेस से। यही वजह है कि मोदी विरोधी दलों ने इस बार देश स्तर पर ‘इंडिया’ नामक अपना गठबंधन तैयार किया है ताकि प्रधानमंत्री को आने वाले लोकसभा चुनाव में सीधी टक्कर दी जा सके। इस मुहिम को बढ़ाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी यही मत रहा है कि मोदी को सत्ता में वापस आने से तभी रोका जा सकता है जब विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर लड़ें ताकि भाजपा-विरोधी मतों का बिखराव रोका जा सके। विडंबना यह है कि उन्हीं की पार्टी जनता दल-यूनाइटेड ने मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं। यही नहीं, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच सीट को लेकर हुए विवाद के बाद अखिलेश यादव ने भी वहां कई क्षेत्रों से अपने उम्मीदवारों के लड़ने की घोषणा कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि न तो समाजवादी पार्टी और न ही नीतीश का दल मध्य प्रदेश में ऐसी स्थिति में है कि वे भाजपा या कांग्रेस को चुनौती दे सकें। उनके उम्मीदवारों को जो भी मत मिलेंगे, उससे कांग्रेस का ही नुकसान होगा, न कि भाजपा का।

जाहिर है ऐसे फैसलों से एक बात तो साफ होती है कि ‘इंडिया’ गठबंधन के एकजुट होने की कवायद सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए है, जहां मोदी को सत्ताच्युत करने की उम्मीद उन्हें एक मंच पर ले आई है। इससे इतर, राज्यों के चुनावों में इसके घटक दल एक-दूसरे से ही जोर आजमाइश करेंगे। वैसे हर बार की तरह इस बार भी कम से कम हिंदी पट्टी के तीन राज्यों– राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर के आसार हैं। किसी अन्य दल के चुनावी मैदान में होने या न होने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए यह सुनहरा मौका था जब इसके सारे दल एकता का प्रदर्शन कर लोकसभा चुनाव के पहले अपने एकजुट होने का संदेश मतदाताओं को देते। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल सहित कई ऐसे राज्य हैं जहां भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में ‘इंडिया’ गठबंधन की एकता की संभावना क्षीण है, लेकिन इस बार कम से कम उपरोक्त तीन प्रदेशों में यह मुमकिन हो सकता था जहां किसी भी क्षेत्रीय पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह भाजपा को दमदार चुनौती दे सके।

जहां तक मतदाताओं का सवाल है, उनके मन में विपक्ष के लोकसभा चुनाव में एकजुट होकर लड़ने और राज्यों के चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ होने को लेकर संशय होना लाजिमी है। इसलिए अगर मोदी विरोधी शक्तियों को अपनी एकता की मुहिम में वाकई संजीदगी दिखानी है, तो उन्हें कोई ऐसा फार्मूला निकालना पड़ेगा जिससे मतदाताओं में कोई भ्रम न हो, खासकर तब जब लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच फासला महज छह महीने का है। सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर उनका एका कितना टिकाऊ होगा, अगर इस पर कोई प्रश्नचिह्न खड़ा होता है, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

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