Advertisement

प्रथम दृष्टि: कांग्रेस का संकट

राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का कोई साझा मंच तैयार होता है तो प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं को उसका...
प्रथम दृष्टि: कांग्रेस का संकट

राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का कोई साझा मंच तैयार होता है तो प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं को उसका सिरमौर कांग्रेस को ही मानना होगा। जिन्हें यह स्वीकार नहीं होगा उनकी राहें जुदा हो जाएंगी, जैसा संभवतः नीतीश के मामले में हुआ। बेहतर है कांग्रेस अपने संगठन को हिंदी पट्टी में मजबूत करे

अजीब-सी दुविधा में दिखती है कांग्रेस पार्टी। दस वर्ष पूर्व केंद्र की सत्ता गंवाने के बाद मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए के खिलाफ उसकी कोई रणनीति कारगर नहीं रही है। पार्टी को कुछ प्रदेशों में सत्ता में काबिज होने का मौका तो मिला, लेकिन दिल्ली की गद्दी अब भी उससे दूर है। इस साल अप्रैल-मई में होने जा रहे आम चुनाव के पहले कांग्रेस ने तमाम भाजपा विरोधी दलों को ‘इंडिया’ नामक गठबंधन के साझा मंच पर एकजुट करने की कोशिश इस उम्मीद में की थी कि विपक्षी एकता के बल पर वह मोदी को लोकसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक बनाने से रोक सकेगी, लेकिन यह गठबंधन चुनाव की घोषणा के पहले ही ताश के पत्तों जैसे ढेर होता दिख रहा है। ममता बनर्जी ने राहुल गांधी की बंगाल यात्रा से दूरी बना ली तो आम आदमी पार्टी ने पंजाब की सभी 13 लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा की। नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ हाथ मिला कर इस गठबंधन के ताबूत में मानो आखिरी कील ठोंक दी। यह वही नीतीश हैं, जिन्होंने सभी मोदी-विरोधी दलों को एकजुट करने की पहल की थी। इन सभी क्षेत्रीय दलों के नेताओं के निशाने पर कांग्रेस ही रही है, जिस पर गठबंधन में मनमानी करने का आरोप लगा है। जाहिर है, कांग्रेस नेतृत्व के लिए यह ऐसा संकट है जिससे वह उबर नहीं पा रही है। कांग्रेस के अधिकतर घटक दल, खासकर वे प्रादेशिक पार्टियां उसके नेतृत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं जो अपने-अपने राज्यों में राजनैतिक रूप से ताक़तवर हैं। उनमें से अधिकतर पार्टियों में यह विश्वास नहीं दिखता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव जीता जा सकता है। अपने प्रति सहयोगी दलों का ऐसा अविश्वास कांग्रेस के लिए बड़ी समस्या रही है जिससे वह लगभग हर चुनाव में जूझती रही है। इस बार भी ‘इंडिया’ गठबंधन के बिखरने के पीछे यही सबसे बड़ी वजह लगती है। गौरतलब है कि जो प्रादेशिक क्षत्रप सियासी तौर पर जितना सशक्त है, कांग्रेस के प्रति उसका अविश्वास उतना ही अधिक दिखता है। उन्हें लगता है कि विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने में वे राहुल गांधी से ज्यादा सक्षम हैं। पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन के बाद उनकी महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई है कि हर बड़े प्रादेशिक दल के नेता को अपने आप को साझा विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखने की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ख्वाहिश रखने में कोई गुरेज नहीं है।

 

ऐसे में देश की सबसे पुरानी पार्टी करे तो क्या करे? कांग्रेस अपने आप को विपक्ष की एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में देखती है। ऐसी स्थिति में किसी भी प्रादेशिक क्षत्रप को विपक्षी एकता के रथ का सारथी बनाना उसे गवारा नहीं हो सकता। ममता की भले ही बंगाल के चुनावों में तूती बोलती हो और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी भले ही उत्तर प्रदेश में अपने आप को कांग्रेस से बड़ा जनाधार वाली पार्टी समझती हों, कांग्रेस के लिए वे सिर्फ प्रादेशिक पार्टियां हैं जिनके हाथों में मोदी-विरोधी राष्ट्रीय नेतृत्व की कमान वह नहीं सौंप सकती। प्रथम दृष्टि, नीतीश के ‘इंडिया’ गठबंधन छोड़ने का सबसे बड़ा कारण यही दिखता है कि जिस मंसूबे के साथ उन्होंने विपक्षी एकता को हकीकत में बदलने का प्रयास किया, उसके अनुरूप उन्हें कांग्रेस से प्रतिक्रिया नहीं मिली। नीतीश को शायद लगता होगा कि कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल उन्हें 2024 के आम चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन के चेहरे के रूप में पेश करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

 

क्या कांग्रेस के लिए ऐसा करना मुमकिन था? क्या पार्टी नीतीश, ममता या किसी अन्य क्षत्रप को राहुल गांधी के स्थान पर गठबंधन का नेतृत्व सौंप सकती थी? कांग्रेस आखिरकार एक पुराना सियासी दल है जिसकी अपनी महत्वाकांक्षा है। अपने राजनैतिक वजूद की कीमत पर वह किसी क्षेत्रीय दल के नेता को मोदी-विरोधी अभियान की अगुआई करने का मौका कैसे दे सकती है? विगत में बिहार समेत कई राज्यों में पार्टी ने भाजपा को हराने के नाम पर प्रादेशिक दलों का पिछलग्गू बन कर अपनी सियासी जमीन खो दी है, जिसे पुनः हासिल करने की अब कोई उम्मीद नहीं दिखती। भले ही किसी राज्य का क्षत्रप कितना भी ताकतवर और स्वच्छ छवि का हो, कांग्रेस उसके नेतृत्व को स्वीकार कर अपनी बची हई जमीन खोने का खतरा मोल नहीं ले सकती। जो क्षत्रप कांग्रेस की कमजोरियों का आकलन करके यह सोचते हैं कि पार्टी उन्हें अपने गठबंधन का नेता घोषित कर देगी, वे मुगालते में हैं। उन क्षत्रपों को यह समझना होगा कि अगर राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का कोई साझा मंच तैयार होता है तो उन्हें उसका सिरमौर स्वाभाविक रूप से कांग्रेस को ही मानना होगा। जिन्हें यह स्वीकार नहीं होगा उनकी राहें जुदा हो जाएंगी, जैसा संभवतः नीतीश के मामले में हुआ। कांग्रेस के लिए भी यही बेहतर है कि दूसरों की बैसाखी पर निर्भर होने के बजाय वह अपने संगठन को हिंदी पट्टी में मजबूत करे और आम लोगों से सीधा संपर्क बनाए, जिनसे वह कट गई सी लगती है।

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad