बिहार में सत्रह दिनों के अंदर एक दर्जन पुल धराशायी हुए हैं। प्रदेश में पुलों का गिरना कोई नई बात नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में कुछ निर्माणाधीन पुल, तो कुछ उद्घाटन के चंद महीनों के बाद ध्वस्त हुए हैं। आजकल हालांकि जिस गति से एक के बाद पुल गिर रहे हैं, वह हैरान करने वाला है। कार्रवाई के नाम पर बिहार सरकार ने कुछ इंजीनियरों को निलंबित किया है, कुछ ठेकेदारों के नाम काली सूची में डालकर उन्हें प्रतिबंधित किया है और जांच के आदेश दिए हैं।
इस तरह की जांच समितियों की रिपोर्ट अक्सर एक जैसी होती हैं जिनमें अमूमन इंजीनियरों पर लापरवाही के आरोप लगाए जाते हैं या पुल निर्माण करने वाली कंपनियों पर गुणवत्ता संबंधी नियमों की अनदेखी की बात सामने आती है। कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जाता। पुल गिरने की सबसे बड़ी वजह क्या होती है, यह जानने के लिए बहुत माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं है। जड़ भ्रष्टाचार ही है, जिसके कारण पुल निर्माण के दौरान गुणवत्ता के तमाम पहलुओं से समझौता किए जाने को विभिन्न स्तरों पर अनदेखा किया जाता है।
विडंबना यह है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल में पुल इस पैमाने पर गिर रहे हैं। वर्ष 2005 में नीतीश के सत्ता में आने के बाद बिहार में पुल-पुलियों का जाल बिछने लगा था। शुरुआत में ही मुख्यमंत्री ने बड़े अधिकारियों के सामने एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा। उन्होंने कहा कि प्रदेश में गुणवत्तापूर्ण सड़कों और पुल-पुलियों का निर्माण इस पैमाने पर हो कि कोई भी व्यक्ति बिहार के किसी कोने से राज्य की राजधानी पटना छह घंटों के भीतर पहुंच जाए। जिस राज्य में 100 किलोमीटर की सड़क यात्रा पूरी करने में पहले चार से छह घंटे लगते थे, यह निश्चित रूप से बहुत बड़ी योजना थी।
इसे पूरा करने में उनकी सरकार बहुत हद तक सफल भी हुई। कभी गड्ढों वाली सड़कों और जीर्ण-शीर्ण पुलों के लिए बदनाम प्रदेश में चमचमाती सड़कों और पुलों का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ। नीतीश के प्रयासों की देश भर में सराहना हुई, लेकिन हाल के वर्षों में पुलों के गिरने से उनकी सरकार की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है। विपक्ष का आरोप है कि पुल निर्माण करने वाली कंपनियों के साथ कुछ भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत है। अगर ऐसे आरोपों में थोड़ी भी सच्चाई है तो यह नीतीश के लिए बड़ी व्यक्तिगत चुनौती है।
बिहार की सत्ता पाने के बाद उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी सरकार हमेशा भ्रष्टाचार के प्रति “जीरो- टॉलरेंस” की नीति रखेगी। इसकी शुरुआत भी उन्होंने बड़ी शिद्दत से की। उनकी सरकार ने ऐसा नया कानून बनाया जिसके तहत किसी भ्रष्टाचारी लोकसेवक की चल और अचल संपत्ति को उसके खिलाफ चल रही कानूनी प्रक्रिया के दौरान जब्त किया जा सकता है। इस कानून के तहत आइएएस और आइपीएस सहित कई बड़े अधिकारियों की संपत्तियां जब्त की गईं और उनके बनाए आलीशान भवनों में बच्चों के लिए सरकारी स्कूल खोले गए। बिहार के इस कदम की व्यापक सराहना हुई क्योंकि पहले प्रदेश के भ्रष्ट अधिकारी निलंबित होने के बावजूद पैसों के बल पर नामवर वकीलों की मदद से वर्षों तक मुकदमा लड़ते रहते थे। नीतीश सरकार ने नया कानून इसीलिए बनाया कि सरकारी सेवकों में चल-अचल संपत्ति की जब्ती का डर बना रहे और वे भ्रष्ट आचरण से बचें, लेकिन क्या ऐसा वाकई हुआ?
आज बिहार में पुल-पुलियों के निरंतर गिरने को महज मानवीय भूल या तकनीकी चूक नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे ऐसी व्यवस्था है जो भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी दिखती है। यही वजह है कि नीतीश कुमार द्वारा भ्रष्टाचारियों पर तमाम अंकुश लगाने के बावजूद यह व्यवस्था फल-फूल रही है।
भ्रष्टाचार अकेले बिहार की समस्या नहीं है। देश के अधिकतर प्रदेश इससे जूझ रहे हैं। कई राज्यों के न सिर्फ बड़े अधिकारी बल्कि मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि इससे निबटने का प्रभावी तरीका अभी तक नहीं मिला है। अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए मुहैया राशि का सिर्फ पंद्रह प्रतिशत ही लाभार्थियों तक पहुंचता है। उसके बाद हर नई सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की घोषणा की, लेकिन जमीनी स्तर पर खास फर्क नहीं दिखा।
जब व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण कहीं कोई पुल ध्वस्त होता है, तो उसका सबसे बड़ा खमियाजा उसके आसपास के इलाकों के लोगों को उठाना पड़ता है। पुल के गिरने से कई इलाकों का संपर्क वर्षों के लिए फिर से टूट जाता है। जिस पुल के बनने का इंतजार वहां की जनता ने सालोसाल किया हो, वह एक झटके में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। यह सिर्फ लोगों की समस्या का सवाल नहीं है, यह सरकारों की विश्वसनीयता का भी सवाल है।