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प्रथम दृष्टिः खड़ाऊं या खंजर

ऐसे अवसर आते हैं जब कोई शासक खास परिस्थितियों में अपने पसंदीदा व्यक्ति को सत्ता की चाबी सौंप देता है।...
प्रथम दृष्टिः खड़ाऊं या खंजर

ऐसे अवसर आते हैं जब कोई शासक खास परिस्थितियों में अपने पसंदीदा व्यक्ति को सत्ता की चाबी सौंप देता है। कुछ उसे नेता की अमानत मानते हैं और कुछ उसका इस्तेमाल सियासत में आगे बढ़ने के लिए कर लेते हैं

सियासत और वफादारी अमूमन परस्पर विरोधी शब्द रहे हैं। दरअसल वफा और मोहब्बत सत्ता की कुर्सी के लिए होती है, किसी नेता या पार्टी विशेष के लिए नहीं। सियासत के मैदान में अगर आगे बढ़ना है तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से अधिक महत्व की कोई और चीज नहीं होती है। किसी बड़े नेता की छत्रछाया में रहकर सत्ता की रेवड़ियां तो मिल सकती हैं, लेकिन शीर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से पटा है जब अपने नेता के खड़ाऊं पूजने वालों ने मौका आने पर आकाओं की पीठ में खंजर से वार करने में देर नहीं लगाई। ऐसा इतिहास अपने आप को दोहराता रहता है।

इसलिए हाल में जब आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनी पार्टी की विश्वासपात्र नेत्री आतिशी को सौंपने का निर्णय किया, तो आतिशी ने वैसी ही टिप्पणी की जैसी उम्मीद की जा रही थी। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री की कुर्सी अरविंद केजरीवाल की है और जब तक वे वापस इस पद पर नहीं आते, उनके कार्यालय में उनकी कुर्सी खाली रखी जाएगी। उन्होंने नेता के प्रति अटूट वफादारी दिखाई।

     इसमें दो मत नहीं कि केजरीवाल आम आदमी पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं और उनकी पसंद का कोई भी नेता मुख्यमंत्री बन सकता था, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आतिशी आने वाले दिनों में सत्ता के ऊंचे पद पर रहने के बाद व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर उठकर केजरीवाल के प्रति वैसी ही आस्था बरकरार रखते हुए उनको उनकी कुर्सी वापस सौंप देंगी? राजनीति में आम तौर पर ऐसा करना आसान नहीं होता क्योंकि कुर्सी का मोह वफादारी पर अक्सर भारी पड़ता है, जैसा झारखंड में पिछले दिनों देखा गया।

प्रदेश के मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन के जेल से वापस आने पर उन्हें उनकी कुर्सी सौंप दी, जो जेल जाने से पहले उस पर काबिज थे। लेकिन, चंपाई के मन में इस बात को लेकर मलाल रह गया। इसलिए उन्होंने जल्द ही अपनी वर्षों पुरानी पार्टी को छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने निस्संदेह उन्हें महज केयरटेकर मुख्यमंत्री बनाया था और पार्टी को उनसे उम्मीद भी यही थी कि वे सिर्फ हेमंत की अनुपस्थिति में यह जिम्मेदारी विश्वस्त सिपहासालर की तरह निभाएंगे। चंपाई झामुमो संस्थापक शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन के विश्वासपात्र नेताओं में एक थे। यही वजह थी कि हेमंत ने उन्हें अपनी कुर्सी सौंप दी लेकिन मुख्यमंत्री के पद पर कुछ महीनों रहने के बाद चंपाई को शायद लगा कि वे उस पद के हकदार थे और उन्हें हटा कर पार्टी ने आदिवासी समाज के लिए अच्छा नहीं किया। ऐसा ही वाकया कुछ वर्षों पूर्व बिहार में हुआ जब नीतीश कुमार ने महादलित नेता जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। 2014 के लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड के खराब प्रदर्शन के बाद नीतीश ने अपने पद से त्यागपत्र देकर मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। मांझी शुरुआत में तो नीतीश के भरोसेमंद प्रतिनिधि के रूप में काम करते रहे लेकिन बाद में उन्होंने उनके खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। नीतीश को उन्हें पद से हटाकर खुद फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।

सत्ता के लिए वफादारी को त्याग देना नैतिकता के दृष्टिकोण के सही हो न हो, सियासत की नजर से गलत नहीं ठहराया जा सकता। अगर नीतीश कुमार पटना यूनिवर्सिटी के दिनों के अपने पुराने साथी लालू के साथ होते तो कभी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। लालू के मुख्यमंत्री बनने के तीन साल बाद ही वे उनसे अलग हुए, नई पार्टी बनाई और अंततः लालू की पार्टी को बिहार की सत्ता से बाहर किया। लेकिन बाद में उसी लालू से उन्होंने फिर से राजनैतिक रिश्ता बहाल किया और एक बार फिर तोड़ डाला। इन तमाम प्रकरणों से स्पष्ट है कि राजनीति में वफादारी की परिभाषा परिस्थितियों के साथ बदलती रहती है।

प्रशांत किशोर का उदाहरण भी सामने है। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में वे वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रणनीतियां बना रहे थे। तीन वर्ष बाद बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान वे मोदी के खिलाफ नीतीश और लालू की चुनावी जीत की योजनाएं बना रहे थे। इस बीच उन्होंने कांग्रेस से लेकर तृणमूल तक कई बड़ी-बड़ी पार्टियों के चुनावी रणनीतिकार के तौर पर भी काम किया। उनका मानना था कि पेशेवर होने के नाते उन्हें किसी पार्टी कि विचारधारा से मतलब नहीं है। अब उन्होंने जन सुराज नाम की अपनी नई पार्टी बना ली है जो नीतीश, लालू और मोदी के दलों के खिलाफ आगामी बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेगी।

राजनीति में ऐसे अवसर आते रहते हैं जब कोई शासक खास परिस्थितियों में अपने पसंदीदा व्यक्ति को नामित कर उसे सत्ता की चाबी सौंप देता है। उनमें कुछ उसे नेता की अमानत के रूप में देखते हैं और कुछ उसका उपयोग सियासत में आगे बढ़ने के लिए एक सुनहरे अवसर के रूप में करते हैं। अरविंद केजरीवाल की वापसी के बाद आतिशी राजनीति के लिए कौन-सा रास्ता चुनती हैं, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा।

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