“कर्नाटक के परिणामों ने 2024 की पहेली को जटिल बना दिया, सारे दल अपनी बिसात बिछा रहे हैं, लेकिन भाजपा के खिलाफ नामुमकिन नहीं, तो आसान भी नहीं घेराबंदी, नई रणनीतियों का हुआ आगाज”
हफ्ते भर भी नहीं बीते कि घटनाएं इतनी तेजी से करवट लेने लगीं कि ठहरकर सोचने पर मजबूर कर दें, कुछ के पक्ष-विपक्ष में दलीलें भी हकलाहट जैसी लगने लगीं। हाल में हुए कर्नाटक चुनाव के नतीजों की अहमियत क्या है, इसका अंदाजा देने को शायद यही काफी है। ऐसा लगता है कि कन्नड़भाषी लोगों ने देश की राजनीति की चूलों को कुछ हद तक हिला दिया है। मामला सिर्फ कांग्रेस (135 सीटें) के भारी बहुमत और भारतीय जनता पार्टी (66 सीटें) की बुरी पराजय का ही नहीं है, बल्कि उससे बढ़कर उन मुद्दों का है जो इस चुनाव से उभर कर आए हैं। नतीजे विपक्ष के खेमे में उन दलों को भी उत्साहित कर गए, जिनसे कांग्रेस का कांटा नहीं भिड़ता या खुन्नस बनी रहती है। मसलन, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, बीआरएस के के. चंद्रशेखर राव, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने न सिर्फ स्वागत किया, बल्कि कुछ ने विपक्षी एकता पर बल देकर कांग्रेस से आगे आने को कहा। 20 मई को मुख्यमंत्री सिद्धारामैया के शपथ ग्रहण में जो पहुंचे थे, उनमें नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, शरद पवार वगैरह सक्रिय हो गए। नीतीश दिल्ली पहुंचे, अरविंद केजरीवाल से मिले और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे तथा राहुल गांधी से मिलकर मई के अंत तक व्यापक विपक्षी बैठक की रूपरेखा तय कर आए। अरविंद केजरीवाल तमाम गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों और क्षत्रपों से मिलने निकल रहे हैं।
दिल्ली दौराः अरविंद केजरीवाल के साथ नीतीश और तेजस्वी
केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार की सक्रियता पर गौर कीजिए। अचानक, बिना कोई वजह बताए या रत्ती भर भनक दिए केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की जगह अर्जुन मेघवाल को विधि विभाग सौंप दिया गया। दिल्ली में उप-राज्यपाल की सत्ता बहाल करने के लिए अध्यादेश लाया गया। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2016 की नोटबंदी के वक्त लाए गए 2000 रुपये के नोट को वापस लेने का फैसला सुना दिया। यही नहीं, ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी के घर सीबीआइ पूछताछ करने पहुंच गई और अन्य विपक्षी नेताओं पर भी दबिश तेज होने के संकेत मिलने लगे। यानी दोनों तरफ जैसे सूखी लकड़ियों और झाड़ियों को चिंगारी-सी मिल गई।
दरअसल कर्नाटक के फैसले अकेले नहीं आए। 13 मई को मतदान के नतीजे जाहिर होने के दो दिन पहले 11 मई को सुप्रीम कोर्ट के दो अहम फैसले इस दौर में राज्यपालों की अवैधानिक भूमिका और उनके अधिकार-क्षेत्र की हद बताने वाले आए। एक में, महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का उद्धव ठाकरे की महाविकास अघाड़ी सरकार से विश्वास मत हासिल करने को कहना गैर-कानूनी करार दिया गया, और यहां तक कहा गया कि अगर उद्धव ठाकरे ने विश्वास मत से पहले स्वत: इस्तीफा न दिया होता तो अदालत एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली भाजपा गठजोड़ सरकार के बदले उद्धव ठाकरे की सरकार को बहाल करने का फैसला सुना देती। दूसरा फैसला दिल्ली की निर्वाचित सरकार को उप-राज्यपाल की दखलंदाजी से आजाद करने वाला था।
इन क्षेत्रों में कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला है
कर्नाटक के संदेश
फिर, कर्नाटक चुनावों के संदेश सिर्फ कांग्रेस की जीत और भाजपा की हार तक ही सीमित नहीं हैं। वहां तीसरे पक्ष जनता दल (सेकुलर) या जद-एस की सीटों और वोट हिस्सेदारी में भारी गिरावट भी हलचल पैदा कर रही है। शायद उससे भी बढ़कर इस चुनाव में उभरे मुद्दे कहीं परेशानी तो कहीं उमंग का सबब बन रहे हैं। कहा गया कि कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया तो लगभग एकतरफा जीत हाथ लग गई और भाजपा कथित राष्ट्रीय मुद्दों पर अटकी रही तो मुंह की खानी पड़ी। लेकिन फिर जद-एस की बुरी गत क्यों हुई? या कांग्रेस के उठाए महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार (40 परसेंट सरकारा), बढ़ती गैर-बराबरी, लोगों को तात्कालिक राहत देने की योजनाएं अगर स्थानीय मुद्दे हैं तो राष्ट्रीय मुद्दे क्या हैं? पूर्व केंद्रीय मंत्री, दिग्गज नेता यशवंत सिन्हा आउटलुक से कुछ व्यंग्य के लहजे में कहते हैं, ‘‘राष्ट्रीय मुद्दा मोदी जी हैं।’’
गौर करें तो प्रचार के दौरान हुआ भी यही। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कई रैलियों में यही कहते रहे कि राज्य मोदी जी के हवाले कर दें। भाजपा केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य में वासवराज बोम्मई सरकार की एंटी-इन्कंबेंसी से निपटने के लिए ज्यादा उम्मीदवारों को बदल देने और मोदी की छवि पर लड़ने की रणनीति अपनाई। इससे जगदीश शेट्टार, लक्ष्मण सावदी जैसे कई नेता नाराज हो गए और कांग्रेस की ओर चले गए। कुछ जद-एस में भी गए। लिंगायत नेता बी.एस. येदियुरप्पा लगभग निष्क्रिय-से हो गए। आरएसएस से जुड़े पार्टी महासचिव बी.एल. संतोष की चली, जिनसे पार्टी के जमीनी असर रखने वाले नेताओं की नहीं बनती। मुख्यमंत्री बोम्मई को भरोसा था कि उनकी सरकार और केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं के करीब पांच करोड़ लाभार्थी पार्टी को दोबारा सत्ता दिलाने के लिए काफी हैं। फिर उनके हिंदुत्व के मुद्दे तो थे ही। और अंत में, मोदी ने आखिरी दस दिनों में रैलियों और रोड शो में अपना करिश्मा दिखाना चाहा। उन्होंने न सिर्फ अपने मान-सम्मान का (कांग्रेस ने मुझे 91 गालियां दीं) मुद्दा उठाया, बल्कि जय बजरंगी बली का नारा लगाकर ध्रुवीकरण को हवा देने की कोशिश की।
भाजपा को क्षेत्रीय दलों से भी जूझना होगा
लेकिन ये सभी रणनीतियां काम नहीं आ सकीं, जो अब तक भाजपा के लिए कई राज्यों में कारगर साबित हुई हैं। इसके विपरीत, भाजपा ने पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआइ) के सवाल पर कांग्रेस को घेरना चाहा तो कांग्रेस ने पीएफआइ के साथ बजरंग दल पर प्रतिबंध की बात घोषणा-पत्र में कहकर तकरीबन पहली बार आरएसएस और हिंदुत्व के मुद्दे से सीधे टकराने का साहस दिखाया। भाजपा के नेताओं ने इसे मोड़कर बजरंग बली का अपमान बताने की कोशिश की, जिसका लाभ शायद हासिल नहीं हुआ। उलटे कांग्रेस को इसका फायदा- खासकर पुराने मैसूरू इलाके में- मुसलमान वोटों की बड़ी गोलबंदी के रूप में मिला जिससे जद-एस को काफी झटका लगा।
इस तरह कर्नाटक ने एक मायने में मुद्दों की धुरी बदल दी और मतदाताओं ने कहने की कोशिश की कि वे महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार ही असली मुद्दे हैं, बाकी सांप्रदायिक और दूसरे मुद्दे गौण हैं। यहीं, कई एक्जिट पोल और पोस्ट पोल सर्वे में यह भी जाहिर होता है कि आर्थिक मुद्दे लोगों का रुझान तय करने में अहम साबित हुए। एक स्थानीय वेब चैनल इदिना डॉट कॉम के मतदान पूर्व जनमत सर्वेक्षण में यह भी जाहिर हुआ कि तकरीबन सभी जातियों के संपन्न लोगों का रुझान भाजपा के पक्ष में और गरीबों का रुझान कांग्रेस के पक्ष में रहा। इसी मामले में शायद कांग्रेस की पांच गारंटियां काम आई हो सकती हैं। जाहिर है, ये रुझान देश के दूसरे राज्यों की ओर भी बढ़ते हैं तो राजनैतिक पार्टियों को अपनी नीतियों-रणनीतियों पर नए सिरे से विचार करना पड़ सकता है।
शुरू हुई नई चालें
इस फैसले के बाद मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कई अफसरों की अदला-बदली के आदेश जारी कर दिए। उसके फौरन बाद केंद्र सरकार उप-राज्यपाल की सर्वोच्चता बहाल करने के लिए अध्यादेश लेकर आ गई जिसमें अफसरों की नियुक्तियों के मामले में मुख्यमंत्री की अगुआई में तीन सदस्यीय समिति बनाने का प्रावधान है, जिसमें दूसरे सदस्य मुख्य सचिव और केंद्र का एक सचिव होगा। यानी निर्वाचित सरकार के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री अल्पमत में होंगे। अध्यादेश लाने के अगले दिन केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका भी दायर कर दी, जो कुछ अजीब-सा लगता है। कायदे से अध्यादेश याचिका के निपटारे के बाद आना चाहिए था। फिर, उपराज्यपाल ने मुख्यमंत्री के आदेश पर रोक लगा दी। क्या यह हड़बड़ी दिखा रहा है?
ममता बनर्जी : विपक्षी एकता के केंद्र में
यही नहीं, न्यायपालिका के खिलाफ तीखे बयान देने वाले, यहां तक कि असहमति जताने वाले पूर्व न्यायाधीशों को ‘एंटी-इंडिया’ प्रचार से प्रभावित बताने वाले कानून मंत्री किरण रिजिजू बदल दिए गए। उनकी जगह अपेक्षाकृत शांत अर्जुन मेघवाल लाए गए। फिर 2000 रुपये के नोट वापस लेने का फैसला तो भारतीय रिजर्व बैंक का है मगर उसमें सरकार के हाथ से इनकार कर पाना मुश्किल है। उसके फौरन बाद भारतीय स्टेट बैंक का संदेश आया कि नोट बदलने के लिए न किसी पहचान की दरकार है, न बैंक में खाता होना जरूरी है, न कुछ और पूछा जाएगा। अब आरबीआइ के गवर्नर शक्तिकांत दास का बयान आया कि हड़बड़ी न करें, कोई अफरातफरी नहीं है क्योंकि ये नोट वैध बने रहेंगे और बदलने के लिए नोट पर्याप्त हैं।
जाहिर है, यह सावधानी पिछली नोटबंदी के समय हुई लोगों को तकलीफों को ध्यान में रखकर जारी की गई है, लेकिन महज सात साल में दोबारा नोटबंदी और वह भी तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा मात्रा की मुद्रा की, हैरान करती है। ऐसा शायद ही कभी हुआ है। सरकारी मकसद तो सर्कुलेशन में कमी और काले धन पर अंकुश लगाना बताया गया। कुछ लोग इसे पहली नोटबंदी की तरह विपक्ष के चुनावी धन के स्रोत पर चोट करने की मंशा बता रहे हैं। जो भी हो, 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले ये घटनाक्रम यूं ही नहीं हो सकते।
रणनीतियां और भी हैं। जरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान, पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया की यात्राओं के महिमामंडन पर गौर कीजिए। टीवी चैनलों और सोशल मीडिया में वायरल किया गया कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने मोदी का ऑटोग्राफ मांगा, जिसकी अमेरिकी मीडिया में कहीं चर्चा तक नहीं। फिर, छोटे-से देश पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री ने मोदी के पैर छू लिए (इन्हीं टैक्स हैवेन कहे जाने वाले बेहद छोटे देशों में भारतीय बैंकों के हजारों करोड़ के कर्ज न लौटाने वाले कई कारोबारियों ने शरण ली हुई है)। ऑस्ट्रेलिया में मोदी का भव्य स्वागत हुआ, जबकि वहां क्वाड की बैठक अमेरिका अपनी वित्तीय दिक्कतों के चलते रद्द कर चुका है, जिसके लिए प्रधानमंत्री की यह यात्रा होनी थी। फिर भी यात्रा जारी है! तो, क्या यह सब कर्नाटक के चुनावी नतीजों से झटका खाई मोदी की छवि को नए सिरे से संवारने का सरंजाम है?
चुकता प्रचारः (बाएं से) प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा
लेकिन भाजपा की ओर से यही नहीं हो रहा है। 26 मई को नरेंद्र मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के दसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है तो उसकी उपलब्धियों को देश भर में लोगों तक ले जाने के महीनों लंबे कार्यक्रम तय कर लिए गए हैं। मोदी 28 मई को नए संसद भवन का उद्घाटन करने वाले हैं। विपक्ष, खासकर कांग्रेस ने यह मुद्दा उठाया है कि उद्घाटन राष्ट्रपति से क्यों नहीं करवाया जा रहा है? उसके बाद उत्तर प्रदेश में ही मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अन्य भाजपा नेताओं की तकरीबन सौ रैलियां रखी गई हैं। यही नहीं, विदेश में मोदी की छवि गढ़ने की भी प्रक्रिया शुरू करने की योजनाएं हैं ताकि घरेलू राजनीति में उनका कद ऊंचा बताया जा सके, जैसा कि पहले भी किया जा चुका है। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं और विभिन्न देशों में एनआरआइ समुदाय के बीच रैलियों का नया सिलसिला 22 जून को अमेरिका यात्रा से शुरू हो सकता है। यूं तो अमेरिका यात्रा कांग्रेस के राहुल गांधी की भी तय है। इसमें कितना खर्च किया जा रहा है, उसका अंदाजा सिर्फ इससे लगाया जा सकता है कि दूर-दराज के प्रदेशों में सरकारी कार्यक्रमों के विज्ञापन भी देश भर के अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं। यह जरूर है कि इस सब की शुरुआत बेशक 2014 के बाद भाजपा ने की, लेकिन अब शायद कोई भी पार्टी इसमें पीछे छूट जाने से भयाकातर है। हाल में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के पहले दिन पांच गारंटियों पर मुहर लगाने के पूरे पन्ने के विज्ञापन अखबारों में थे। विदेश यात्राओं के खर्च की क्या कहिए, कोविड के पहले प्रधानमंत्री की अमेरिका की तीन दिन की यात्रा पर खर्च 20 करोड़ रुपये पीएमओ की वेबसाइट पर बताया गया, लेकिन कोविड के बाद खर्च जाहिर करने का सिलसिला रुक गया। प्रधानमंत्री मोदी अब तक के किसी भी प्रधानमंत्री से तकरीबन दोगुनी विदेश यात्राएं कर चुके हैं।
भाजपा का चुनावी गणित
भाजपा या मोदी सरकार अपनी उन्हीं भरोसेमंद नीतियों पर आगे बढ़ती लग रही है जिससे अब तक उसका दबदबा बना हुआ है। यानी विपक्ष की पांत में केंद्रीय एजेंसियों का डर पैदा करना, अपने प्रचार में तेजी लाना, मोदी की छवि सबसे ऊपर करना और सभी विपक्षी नेताओं को भ्रष्टाचार के मुकदमों में फंसाना। गौर करें कि 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा मोटे तौर पर महंगाई, बेरोजगारी, विकास के मुद्दों और खासकर पंजाब को छोड़कर उत्तर भारत तथा पश्चिम भारत में साख गंवा चुकी कांग्रेस व अन्य पार्टियों की बदौलत सत्ता में पहुंची थी। उसमें थोक भाव में कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को अपने में शामिल करना भाजपा की कामयाबी का सबब बना था। यह समूचे उत्तर और पश्चिम भारत में ही नहीं, पूर्वोत्तर के राज्यों में भी फैलने की मूल वजह है। वहां उसके मूल सूत्रधार हेमंत विस्व सरमा हैं। असम, त्रिपुरा से लेकर मेघालय, अरुणाचल, मिजोरम जैसे तमाम राज्यों में कांग्रेस के ही नेता अब भाजपा के हैं, लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि असर रखने वाले नेताओं के पाला बदलने की ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आरएसएस की विचारधारा या हिंदुत्व के एजेंडों का असर सीमित है। हां, सत्ता में आने के बाद जरूर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें हो पाती हैं। इसका उदाहरण हाल में मणिपुर ही नहीं, गुजरात और उत्तर प्रदेश भी है जहां सत्ता हासिल करने के बाद ही ध्रुवीकरण का असर बड़े पैमाने पर फैलाया जा सका है। इसलिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के असर को लेकर भाजपा में भी चिंताएं झलकती हैं।
अगर हम भाजपा के चुनावी प्रदर्शन पर गौर करें तो भी यह बात शिद्दत से समझ आती है। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र वगैरह में तो भाजपा का परचम लहराया लेकिन 2015 से दिल्ली, बिहार में हार हुई और फिर ज्यादातर राज्यों में हार (यह अलग बात है कि उसने कई राज्यों में हार के बावजूद विधायकों को तोड़कर सरकार बना ली) और कुछ में जीत का मिश्रित दौर चलता रहा है। 2014 के बाद करीब 32 राज्य चुनावों में भाजपा हार चुकी है (देखें चार्ट)। मतलब यह है कि जो अजेय होने का तमगा भाजपा और नरेंद्र मोदी को दिया जाता है, वह बनाई हुई धारणा ज्यादा है। यह धारणा कैसे बनाई गई और उस पर कितना खर्च किया गया, यह अलग कहानी है।
बेशक, 2019 के चुनावों में भाजपा बड़े अंतर से जीती, लेकिन तब पाकिस्तान के बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक का असर ज्यादा था। उसमें हिंदुत्व के मुद्दों या मोदी की छवि का असर उतना नहीं कहा जा सकता क्योंकि 2019 के आखिरी महीनों में ही हुए हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में पार्टी की सीटें कम हो गई थीं, जबकि उसी साल राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और अनुच्छेद 370 हटाया जा चुका था।
विपक्ष का चुनावी गणित
जैसा कि यशवंत सिन्हा कहते हैं, भाजपा को अगर हराना है तो उसका दारोमदार कांग्रेस पर ही है। वजह यह है कि उत्तर, मध्य, पश्चिम भारत में करीब 205 संसदीय सीटों पर कांग्रेस की भाजपा से लगभग सीधी टक्कर है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में इनमें कांग्रेस की सीटें इकाई में ही सिमटी हुई हैं। 193 सीटें भाजपा के पास हैं (देखें चार्ट)। इनमें कांग्रेस अगर भाजपा से 75-100 सीटें जीतने में कामयाब हो गई, तभी भाजपा को हराया जा सकता है वरना 2024 में भी भाजपा की सीटों की संख्या ज्यादा कम नहीं की जा सकेगी। भाजपा के लिए भी यही चुनौती होगी कि इस इलाके में वह अपनी सीटें बचाए रखे। कांग्रेस को इसी साल होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ चुनावों में बेहतर प्रदर्शन की चुनौती है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में तो उसकी संभावनाएं बेहतर दिख रही हैं लेकिन राजस्थान में सचिन पायलट और मुख्यमंत्री गहलोत की खाई का असर क्या होगा, यह संदिग्ध है (देखें राजस्थान की रिपोर्ट)। कांग्रेस की चुनौती हरियाणा और पंजाब में भी बड़ी हैं। पंजाब में उसके ढेरों नेता भाजपा में जा चुके हैं और हाल में जालंधर उपचुनाव भी वह आम आदमी पार्टी के हाथों गंवा चुकी है। हरियाणा में जरूर किसान आंदोलन और महिला पहलवानों के उत्तर प्रदेश के भाजपा सांसद ब्रजभूषण सिंह के खिलाफ आंदोलन से फिजा कांग्रेस के पक्ष में दिख रही है।
क्षत्रपों के चेहरेः फारूक अब्दुल्ला और शरद पवार
इसके अलावा, क्षेत्रीय पार्टियों के असर वाली 268 सीटें हैं जो उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडिशा से लेकर तेलंगाना के अलावा कश्मीर घाटी और दिल्ली तथा पंजाब में हैं। इसमें राकांपा और उद्घव ठाकरे की शिवसेना के असर वाले महाराष्ट्र की भी कुछ सीटें जोड़ लें। इन सीटों में भी भाजपा को 141 और विपक्षी दलों को 106 सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में मिली हैं (देखें चार्ट)। इसमें सबसे ज्यादा कुल 80 में से 62 सीटें भाजपा के पास हैं। यानी उत्तर प्रदेश में बड़े असर वाली समाजवादी पार्टी अगर कांग्रेस और अन्य दलों के साथ गठजोड़ करके अगर भाजपा को टक्कर दे सकी, तभी विपक्ष की बात कुछ बन सकती है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को लेकर भी इस बार शंकाएं हैं (देखें उत्तर प्रदेश की रिपोर्ट)।
नवीन पटनायक, केसीआर, उद्धव ठाकरे और जगनमोहन रेड्डी
बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के कंधों पर दारोमदार है। वहां जाति जनगणना हाइकोर्ट के आदेश से रुक गई है, जिसे वे बड़ा मुद्दा बनाना चाहते थे। बंगाल में ममता बनर्जी अगर कोशिश करती हैं तो भाजपा की सीटें 18 से कुछ घट सकती हैं। इसी तरह बाकी राज्यों में भी तगड़ी कोशिशें हो तो तभी विपक्ष की बिसात पर मोहरे खिल सकते हैं।
अभी आठ-नौ महीने का समय है और राजनीति में यह कम नहीं होता। संभावनाएं और चुनौतियां दोनों तरफ काफी हैं। देखना है आगे क्या होता है, किसकी गोटी लाल होती है।