सरकारी कामकाज और परीक्षाओं में हिंदी के इस्तेमाल पर भाजपा नीत केंद्र सरकार के जोर से जम्मू-कश्मीर में भाषा का मुद्दा गरमा गया है। स्थानीय कश्मीरी नेता और कार्यकर्ता उर्दू और कश्मीरी भाषाओं की उपेक्षा पर नाराजगी जता रहे हैं। यह विवाद जम्मू-कश्मीर सेवा चयन बोर्ड (एसएसबी) के राजस्व विभाग के नायब तहसीलदार पद के लिए जारी विज्ञापन के बाद उपजा। इसके लिए उर्दू भाषा अनिवार्य रखी गई थी। इस पर भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा कि ऐसा करने से जम्मू क्षेत्र के हिंदू बहुल इलाकों के छात्र नौकरियों से वंचित रह जाएंगे।
जम्मू-कश्मीर भाजपा के संगठन महासचिव अशोक कौल ने कहा, ‘‘हम किसी भाषा के खिलाफ नहीं हैं। पांच भाषाओं को आधिकारिक भाषा घोषित किया गया है: उर्दू, कश्मीरी, हिंदी, डोगरी और अंग्रेजी। हमें उम्मीदवारों पर किसी विशेष भाषा को नहीं थोपना चाहिए। हिंदी या डोगरी जानने वाले उम्मीदवारों को भी समान रूप से सरकारी पदों के लिए मौका मिलना चाहिए। उन्हें सिर्फ इसलिए बाहर नहीं किया जा सकता कि वे उर्दू के अलावा दूसरी भाषाएं जानते हैं। हम ऐसी नीतियां बर्दाश्त नहीं कर सकते।’’
इस मामले पर राजनैतिक वाद-विवाद के अलावा एक बार फिर, ‘मुसलमानों के लिए उर्दू और हिंदुओं के लिए हिंदी’ पर विभाजनकारी बहस शुरू हो गई है। कश्मीर के भाषाविद और भाषा के लिए काम करने वाले लोग कश्मीरी और उर्दू भाषा की उपेक्षा पर गंभीर चिंता व्यक्त कर रहे हैं।
कश्मीर में अंग्रेजी के अलावा उर्दू आधिकारिक भाषा है। खास तौर पर यहां दस्तावेज भी इन्हीं दोनों भाषाओं में जारी किए जाते हैं। सरकारी दफ्तरों में काफी हद तक अंग्रेजी और उर्दू में ही काम होता है। राजस्व और पुलिस विभाग में उर्दू ही इस्तेमाल की जाती है।
उर्दू भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने वाले वकील और कार्यकर्ता अब्दुल रशीद हंजूरा कहते हैं, ‘‘राजस्व विभाग और पुलिस में सारा काम उर्दू में हो रहा है। पुलिस रिपोर्ट और राजस्व दस्तावेज उर्दू में तैयार किए जाते हैं। हम यह काम हिंदी में नहीं कर सकते।’’
भाषा के झगड़े पर कश्मीर के जाने-माने भाषाविद् डॉ. नजीर अहमद धर का कहना है कि ‘‘लोगों के बीच संवाद से भाषाएं समृद्ध हुई हैं। कश्मीरी भाषा ने अंग्रेजी भाषा से भी कुछ शब्द उधार लिए हैं, जैसे क्रैकडाउन, मिलिटेंट। ये शब्द आम इस्तेमाल में हैं। इससे भाषा बढ़ती है।’’
वे कहते हैं, डोगरा शासन के दौरान उर्दू आधिकारिक भाषा बन गई और लोग विभिन्न क्षेत्रों में इस भाषा में बात कर सकते थे इसलिए उन्हें कोई असुविधा नहीं थी। डोगरा शासकों के दरबारों में फारसी का प्रयोग होता था, लेकिन उर्दू को आधिकारिक भाषा बनाया गया, ताकि जम्मू और लद्दाख जैसे विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक आम भाषा में बात कर सकें। अन्य भाषाओं में किसी को भी आधिकारिक भाषा बनाया जाता, तो दूसरे समूहों के विरोध की संभावना थी। इसमें अंग्रेजी भी सहायक भाषा बन गई। इस भाषा में हमारे पास सभी वैज्ञानिक सामग्री है, शिक्षाविदों के लिए यह भी आवश्यक हो गई।”
नायब तहसीलदार पद की परीक्षा के लिए उर्दू भाषा के ताजा विवाद से पहले, जम्मू-कश्मीर को उसके विशेष दर्जे से वंचित करने वाले अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के एक साल के भीतर, सितंबर 2020 में जम्मू-कश्मीर आधिकारिक भाषा विधेयक, 2020 को संसद में पारित किया गया था, जिसमें मौजूदा उर्दू और अंग्रेजी के अलावा कश्मीरी, डोगरी को भी आधिकारिक भाषा बनाया गया था।
नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के प्रवक्ता इमरान नबी डार का कहना है, ‘‘लोग कौन-सी भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं, इस मुद्दे का राजनीतिकरण करने का कोई मतलब नहीं है। उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा नहीं है, जम्मू में और भी लोग हैं, जो उर्दू लिखते-पढ़ते हैं। भाजपा ऐसे मुद्दे उठाकर केवल सांप्रदायिक आग भड़काने की कोशिश कर रही है।’’
पीडीपी भी इस मुद्दे को सांप्रदायिकता से ही जोड़ रही है। पार्टी के प्रवक्ता मोहित भान भी भाजपा की इस मांग को नाजायज मानते हैं। उनका कहना है कि नायब तहसीलदार परीक्षा में उर्दू को अनिवार्य विषय के रूप में हटाने की भाजपा की मांग बेकार है। वे कहते हैं, ‘‘उर्दू भारत की संस्कृति में गहराई से निहित है। यह भाषा सभी धर्मों के लोगों को जोड़ने वाले पुल की तरह काम करती है। भाषा को मुद्दा बनाना बहुत सतही राजनीति है।’’
भाषा की राजनीति का नतीजा चाहे जो हो लेकिन फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि भाजपा ने बहस का एक और मुद्दा तो दे ही दिया है।