मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार कांग्रेस की आतंरिक लड़ाई के कारण आखिर गिर गई। राजनीति के कुशल खिलाड़ी और फ्लोर मैनेजमेंट में माहिर कहे जाने वाले कमलनाथ को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर अपनी नाक बचानी पड़ी। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनते ही ज्योतिरादित्य सिंधिया बेमन से विधायक दल की बैठक में शामिल हुए थे, उससे साफ लगाने लगा था कि सरकार का भविष्य लंबा नहीं हैं। राज्य में कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य अलग-अलग दिखाई पड़े, वहीँ कांग्रेस हाईकमान का कहीं भी नियंत्रण नहीं दिखा। ज्योतिरादित्य को अलग-थलग करने के लिए कमलनाथ और दिग्विजय एक हो गए।
लगभग 14 महीने की सरकार में कहीं लगा नहीं कि कमलनाथ कुशल प्रशासक और राजनीतिज्ञ हैं, वे मुख्यमंत्री से ज्यादा दिग्विजय के हाथों की कठपुतली जैसे दिखे। दिग्विजय के इशारे पर सरकार चलाना कमलनाथ को भारी पड़ गया। दिग्विजय विरोधी मंत्री उमंग सिंघार खुलकर सामने आये, लेकिन कमलनाथ जागे नहीं। 14 महीनों में मुख्यमंत्री के तौर पर कमलनाथ न तो मंत्रियों और विधायकों के लिए सहज उपलब्ध थे और न ही जनता के लिए। कमलनाथ मंत्रालय वल्लभ भवन में काफी समय बैठते थे,लेकिन अफसरों से भी वे कम ही मिलते थे। कुछ चुनिंदा अफसरों और अपने सलाहकारों को छोड़कर उनसे किसी का मिल पाना कठिन था। प्रदेश कांग्रेस के दूसरे नेता भी मुख्यमंत्री से नहीं जुड़ पाए थे। कमलनाथ से विधायकों का भी जुड़ाव नहीं दिखा, तभी तो बागियों को कमलनाथ मना नहीं पाए।
मंत्रिमंडल में नेता पुत्रों की रही भरमार
कमलनाथ की सरकार प्रारम्भ से ही अल्पमत में थी। चार निर्दलीय और बसपा -सपा के तीन विधायकों के समर्थन से चल रही थी। इसके बावजूद दो-दो बार के विधायकों को कैबिनेट मंत्री बनाना और चार-पांच बार के विधायकों की उपेक्षा लोगों को समझ में नहीं आया। कमलनाथ मंत्रिमंडल में नेता पुत्रों की भरमार रही। दिग्विजय के बेटे जयवर्धन सिंह, कांग्रेस के पूर्व मंत्री सुभाष यादव के बेटे सचिन यादव और इंद्रजीत पटेल के बेटे कमलेश्वर पटेल इसके उदहारण हैं। दिग्विजय ने अपने भतीजे प्रियवर्त सिंह को भी कैबिनेट मंत्री बनवा दिया, इससे उनके विधायक भाई लक्ष्मण सिंह ही बगावती हो गए। बिसाहूलाल सिंह और एदल सिंह कंसाना तो दिग्विजय से पुराने समर्थक थे, वे भी खुश नहीं थे। लोकसभा चुनाव के वक्त कमलनाथ पार्टी के सभी प्रत्याशियों को जिताने में जुटने की जगह छिंदवाड़ा से अपने पुत्र को जितवाने में भिड़े रहे। लोकसभा में हार की समीक्षा के दौरान राहुल गाँधी ने इस पर नाराजगी भी व्यक्त की थी।
बार्डर लाइन पर थी सरकार
कांग्रेस के भीतर- भीतर आग सुलग रही थी, उस आग को बुझाने वाला नहीं था। कमलनाथ मुख्यमंत्री के साथ पीसीसी अध्यक्ष का पद भी अपने पास रखे थे। न तो वे अपने किसी खास को वह पद सौंप रहे थे और न ही सिंधिया को लेने दे रहे थे। कमलनाथ ने 17 दिसंबर 2018 को राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी। इसके पहले 26 अप्रैल 2018 को उन्हें राहुल गाँधी ने मध्यप्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया था। अरुण यादव की जगह कमलनाथ को संगठन की कमान सौंपी गई थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने के साथ जीतू पटवारी, बाला बच्चन, रामनिवास रावत और सुरेंदर चौधरी कार्यकारी अध्यक्ष बनाये गए। कमलनाथ ने जब संगठन की कमान सौपी थी तब कांग्रेस बिखरी हुई थी और भाजपा से मुकाबले के लिए भी उसके पास संसाधन नहीं थे। कमलनाथ के नेतृत्व में नेता- कार्यकर्त्ता एकजुट दिखे और संसाधन की व्यवस्था भी हुई। हाईकमान भी राज्य भाजपा से मुकाबले के लिए इच्छुक दिखी और रणनीति बनाई। तब तत्कालीन शिवराज सिंह सरकार के खिलाफ माहौल भी दिखाई दे रहा था। कांग्रेस चार उपचुनाव जीत चुकी थी इससे कांग्रेस नेताओं में 15 साल से जमे भाजपा सरकार को हटाने का भरोसा पैदा हो गया। तब दिग्विजय की रणनीति, सिंधिया का चेहरा और कमलनाथ के संसाधन ने मिलकर भाजपा को बहुमत नहीं लाने दिया, पर दोनों की सीटों में कोई ज्यादा अंतर् नहीं था। इस कारण कमलनाथ की सरकार शुरू से बार्डर लाइन पर थी।
किसानों के कर्जे माफ़ी के मुद्दे पर आई यह सरकार धरातल पर नहीं उतर सकी। आर्थिक संकट से जूझ रही कमलनाथ सरकार कभी निवेशकों का सम्मलेन कर रही थी तो कभी आइफा अवार्ड के आयोजन में लगी रही। भुगतान और अन्य मामलों को लेकर एक बड़ा वर्ग सरकार से खफा होने लगा। भाजपा ने मौके का फायदा उठाया और कमलनाथ को पटखनी दे दी।
25 सीटों पर उपचुनाव होंगे
विधानसभा में 230 सीटें हैं। दो विधायकों के निधन के बाद पहले से 2 सीटें खाली हैं। सिंधिया समर्थक कांग्रेस के 22 विधायकों ने इस्तीफे दे दिए हैं। इनमें 6 मंत्री भी थे। इन सभी के इस्तीफे मंजूर किए जा चुके हैं। भाजपा विधायक शरद कोल ने भी इस्तीफा दिया था, जिसे मंजूर किया जा चुका है। इस तरह कुल 25 सीटें अब खाली हैं। इन पर 6 महीने में चुनाव होने हैं।
भाजपा के पास 106 विधायक हैं। 4 निर्दलीय उसके समर्थन में आए तो भाजपा+ की संख्या 110 हो जाती है। 25 सीटों पर उपचुनाव होने पर भाजपा को बहुमत के लिए 6 और सीटों की जरूरत होगी। अगर निर्दलीयों ने भाजपा का साथ नहीं दिया तो उपचुनाव में पार्टी को 10 सीटें जीतनी होंगी। कांग्रेस को निर्दलियों के साथ रहने पर उपचुनाव में 17 और निर्दलियों के पाला बदलने पर 21 सीटें जीतनी होंगी। अगर निर्दलीय के साथ-साथ सपा-बसपा ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया तो उसे सत्ता में वापसी के लिए सभी 24 सीटें जीतनी होंगी। कांग्रेस के 22 बागी विधायक जिन सीटों से जीते थे, उनमें से 20 पर भाजपा दूसरे नंबर पर थी। 11 सीटों पर जीत-हार का अंतर 10% से भी कम था। ये 22 बागी विधायक मध्य प्रदेश के 14 जिलों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इनमें से 15 सिंधिया के गढ़ ग्वालियर-चंबल से विधायक बने थे।
भाजपा के भीतर नेता का चयन आसान नहीं
कमलनाथ की सरकार गिरने के बाद अब मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार का बनना तय है, लेकिन मुख्यमंत्री का चुनाव आसान नहीं है। 13 साल के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मजबूत दावेदार हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा की सरकार नहीं बनने से वह पहले जैसे ताकतवर नहीं रह गए हैं। कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्रा और गोपाल भार्गव जैसे नेता उन्हें रोकने की कोशिश करेंगे। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का नाम भी चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह किसे पसंद करते हैं, यह महत्वपूर्ण होगा।