“राजेवाल का साथ देने वाले किसानों की एकता जाति, धर्म और पार्टियों में बंट गई”
प्रदेश की 117 विधानसभा सीटों पर 20 फरवरी को वोटिंग के बाद अब नतीजों का इंतजार है। वोटों की गिनती चार अन्य राज्यों के साथ 10 फरवरी को होगी। इस चुनाव में कई बातें पहली बार हो रही हैं। कांग्रेस पहली बार किसी दलित मुख्यमंत्री के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है, भाजपा पहली बार अकाली दल से अलग होकर कैप्टन अमरिंदर के साथ बड़े भाई की भूमिका में है, अकाली-बसपा गठबंधन भी लंबे अरसे बाद बना है, आम आदमी पार्टी की स्थिति पहली बार मजबूत है, पहली बार ही किसान संगठन भी चुनाव लड़ रहे हैं। पंचकोणीय मुकाबले को देखते हुए राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि विधानसभा त्रिशंकु होगी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता का नया गठबंधन कैसा बनता है।
निश्चित रूप से कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर है, जिसमें मतदान से कुछ रोज पहले तक खींचतान मची रही। देखना होगा कि चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में कांग्रेस का दलित दांव कितना चलता है। 2017 में उसे 77 सीटें मिली थीं। तब पार्टी का चेहरा कैप्टन अमरिंदर थे जो पंजाब लोक कांग्रेस नाम से नई पार्टी बनाकर इस बार भाजपा के साथ गठबंधन में हैं।
2017 के चुनाव में 20 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रहने वाली आप की स्थिति अच्छी तो है, लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि भगवंत मान के नेतृत्व में वह सरकार बनाने की भी स्थिति में होगी। पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने माना भी है कि किसानों के चुनाव लड़ने से उनकी पार्टी को कुछ नुकसान हो सकता है। एक समय आप और किसान मोर्चा के बीच गठबंधन की चर्चा थी, लेकिन सीट बंटवारे पर सहमति न बन सकी।
नतीजों से प्रदेश में किसान राजनीति की दिशा भी तय होगी। एक साल से तक दिल्ली की सीमाओं पर एकजुट रहे किसान सियासी मोर्चे पर बिखर गए। यह बिखराव किसान हक की आगे की लड़ाई को कमजोर कर सकता है। यही कारण है कि किसानों के 22 संगठनों के संयुक्त समाज मोर्चा के चुनावी मैदान में उतरने से किसानों के सबसे बड़े संगठन संयुक्त किसान मोर्चा ने उससे किनारा कर लिया।
पंजाब के सबसे बड़े किसान संगठन भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) के प्रमुख जोगिंदर सिंह उगराहां ने कहा, “संयुक्त समाज मोर्चा ने सिद्धांतों से समझौता किया है। किसान कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए एकजुट हुए थे। इनमें कुछ का सियासी पार्टी का रूप लेना किसानों के हक में नहीं है।” उनका तो आरोप है कि कैप्टन अमरिंदर के समर्थक रहे राजेवाल ने भाजपा गठबंधन को लाभ पहुंचाने के लिए सियासी पार्टी खड़ी की है, वे तो अपनी सीट भी नहीं जीत सकते। माना जा रहा है कि मोर्चा मालवा की 69 सीटों पर वोटकटवा बन कर रह जाएगा। हालांकि वह ग्रामीण इलाकों में पैठ रखने वाली आप और अकाली दल को नुकसान पहुंचा सकता है। 2017 के विधानसभा चुनाव में मालवा में कांग्रेस को 40 सीटें मिली थीं।
चुनाव प्रचार के दौरान मोर्चा की रणनीति परपंरागत दलों की तुलना में बहुत कमजोर दिखी। ज्यादातर सीटों पर मतदाताओं को चुनाव के दिन तक पता तक नहीं था उनके इलाके से मोर्चे का उम्मीदवार कौन है। राजेवाल अपनी सीट समराला तक ही सिमट कर रह गए। क्रांतिकारी किसान यूनियन के प्रमुख डॉ. दर्शन पाल कहते हैं, “22 किसान संगठनों में से 16 मतदान से पहले ही मोर्चा से अलग हो गए थे। चुनाव लड़ने की बजाय राजेवाल को किसानों की आवाज बनकर चुनाव में सियासी दलों पर दबाव बनाना चाहिए था।” कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, “मोर्चा का खराब प्रदर्शन किसानों के लिए बड़ा झटका होगा। किसान नेताओं ने चुनाव लड़ने में जल्दबाजी की। उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में केंद्र सरकार को लक्षित कर अपने मसले हल करने का दबाव बनाना चाहिए था।”
हालांकि मोर्चा नेताओं की राय अलग है। सुनाम से इसके प्रत्याशी ए.एस. मान के अनुसार समाधान चुनाव लड़ने में ही है, नीति निर्धारक बनकर ही किसान अपने किसान भाइयों की समस्याओं का समाधान कर सकता है। फिलहाल यह दूर की कौड़ी है। आंदोलन में राजेवाल का साथ देने वाले किसानों की एकता जाति, धर्म और पार्टियों में बंट गई है। अब देखना है कि अपने साथियों का साथ खोने के बाद संयुक्त समाज मोर्चा सियासी साख बचा पाता है या नहीं।