“अगले लोकसभा चुनावों की तैयारी में विपक्ष ने अपनी गोटियां सहेजनी शुरू की हैं तो भाजपा ने भी उन नए क्षेत्रों पर फोकस किया है जो उसके लिए अलंघ्य रहे हैं लेकिन भविष्य में सियासत की तस्वीर मैदानी स्थिति पर निर्भर है, कागजी आंकड़े पर नहीं”
अचानक जैसे चौराई बहने लगी। हवा कई दिशाओं से एक साथ सीटियां बजाने लगी। जी, राजनैतिक सरगर्मियों की ऐसी तेजी का अभी कुछ महीने पहले तक अंदाजा लगा पाना भी मुश्किल था, जब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर में धुआंधार जीत से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने दिखाया था कि वह इतनी अजेय है कि कोई मुगालते में न रहे। विपक्ष में हर जगह सन्नाटा पसर गया था। उसके तकरीबन साल भर पहले 2021 में पश्चिम बंगाल में भारी जीत से उत्साहित ममता बनर्जी के तेवर भी ठंडे पड़ने लगे थे। कांग्रेस अपने गढ़ पंजाब को भी बुरी तरह गंवाने के बाद निराशा और बिखराव के दौर से बुरी तरह पस्त थी (अलबत्ता वह भाजपा के हाथों नहीं, आम आदमी पार्टी से हारी)। महाराष्ट्र में शिवसेना में दोफाड़ से शिवसेना-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा)-कांग्रेस की महा विकास अघाड़ी सरकार गिर गई थी। भाजपा का परचम सबसे ऊंचा लहरा रहा था। सरकार की केंद्रीय एजेंसियां भी कुछ ज्यादा ही तेजी से कथित भ्रष्टाचार की शिकायतों पर खासकर विपक्ष से जुड़े लोगों पर छापों का सिलसिला तेज कर चुकी थीं। लेकिन, फिर पिछले महीने अगस्त में बिहार में नीतीश कुमार भाजपा का साथ झटककर वापस राष्ट्रीय जनता दल (राजद)-कांग्रेस-वामपंथी दलों के महागठंबन की सरकार बना लेते हैं, तो फिजा बदलने लगती है। नीतीश विपक्ष को एकजुट करने दिल्ली पहुंच जाते हैं। कांग्रेस भी जैसे जाग उठती है। उसे राजनैतिक मुकाबले और खुद की पांत में बिखराव को समेटने की राह सूझ जाती है- भारत जोड़ो यात्रा। और राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर की पैदल यात्रा पर निकल पड़ते हैं और शायद विश्वसनीयता साबित करने के लिए कुछ सिविल सोसायटी संगठनों, छिटपुट जनांदोलनों के सक्रिय लोगों को भी जुटा लेते हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री तथा तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस} के नेता के. चंद्रशेखर राव तो इतने तेवर में आ जाते हैं कि भाजपा-मुक्त भारत का नारा उछाल देते हैं। तो, क्या वाकई कुछ ऐसी फिजा बदली है कि विपक्ष के नेता अजेय लगती भाजपा को चुनौती देने की ताकत का एहसास करने लगे हैं? कहीं यह विपक्ष के नेताओं में अपनी ताकत का नया अहसास या आत्मविश्वास के बदले अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की कवायद भर तो नहीं?
विपक्ष के उभरते चेहरेः नीतीश कुमार ने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल से मुलाकात की
सवाल और भी हैं, मगर जरा गौर से देखिए कि विपक्ष में कौन-सी ताकतें फिलहाल ज्यादा सक्रिय दिख रही हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी देश तो छोड़िए, अपनी पार्टी में ही अपनी सियासी हैसियत साबित करने को जूझ रहे हैं। नीतीश हाल में भाजपा से दोबारा कुट्टी कर आए हैं तो उन्हें खुद को कुछ तो साबित करना ही है। फिर, उम्र भी 71 वर्ष पार कर रही है तो अब अपनी सियासी महत्वाकांक्षाएं, अगर कुछ हैं, तो पूरा करने का वक्त बीता जा रहा है। यही हाल राकांपा के शरद पवार का भी है, जिन्हें बुढ़ाती उम्र के साथ महाराष्ट्र में उस सरकार को जबरन गिरा देने के लिए भाजपा के कथित ऑपरेशन लोटस का दंश साल रहा होगा, जिसके सूत्रधार वे थे। चंद्रशेखर राव को तेलंगाना में भाजपा की चुनौती से निबटने के लिए किसी बड़े अफसाने की दरकार हो सकती है। इसी तरह बंगाल में ममता बनर्जी भगवा दल की चुनौती से दो-चार हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, बिहार में तेजस्वी यादव, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, सभी के आगे चुनौतियां भगवा दल की ही हैं। क्या इन सबके भीतर सिर्फ अपनी सियासी बाजी ही हरी करने की फितरत है? क्या वे देश, संविधान, नागरिक अधिकारों, संवैधानिक संस्थाओं को बचाने और लोगों को महंगाई, बेरोजगारी, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था से निजात दिलाने की जो बातें कर रहे हैं, उनके कोई मायने नहीं हैं?
बंगाल की मुश्किलः ममता बनर्जी के नए राज में भाजपा इकाई अंकों पर सिमट सकती हैं
हकीकत तो यही है कि इन सभी समस्याओं से देश जूझ रहा है। यही नहीं, मौजूदा सियासी आख्यान से समाज में नफरत, विघटन की प्रचुर मिसालें डरावनी बनती जा रही हैं। इनके आंकड़े और घटनाक्रम तथा मुख्यधारा के अधिकांश मीडिया तथा सोशल मीडिया पर अफसानों की भरमार है। लेकिन ये पंक्तियां सिर्फ सियासी मसलों तक ही सीमित हैं। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अगुआई में भाजपा के राजनैतिक सफर और विपक्ष से मिलने वाली चुनौतियों पर ही फोकस है। वैसे, इतिहास तो यही है कि सत्ता जब सबसे मजबूत दिखाई देने लगे, बल्कि उसका इजहार भी बेसाख्ता करने लगे तो चुनौतियां भी बरबस कुछ तीखे अंदाज में उभरने लगती हैं। दुनिया में इसकी मिसालें कई हैं और भारत में भी इसकी मिसाल कई बार दिखी है। मोटी मिसालें 1972-77 में इंदिरा गांधी और 1984-89 में राजीव गांधी का दौर है। चाहें तो बाद में 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली एनडीए सरकार के दौर को भी जोड़ सकते हैं, जब लोकसभा चुनावों में इंडिया शाइनिंग के नारे की चमक से ओतप्रोत भाजपा अपनी हार पर यकीन नहीं कर पा रही थी। इन सभी दौर में सरकारों के पराजय का एक बड़ा कारण अपनी ताकत पर भरपूर भरोसा और अपने गठबंधन या पार्टी में टूट-फूट रहा है।
चंद्रशेखर राव भी नीतीश के पाले में
तो, क्या मौजूदा दौर में भी ऐसी ही स्थितियां दिखने लगी हैं? मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा की ताकत में इजाफा ऐसा हुआ है जो एनडीए-1 या कहिए 2014 तक पार्टी नेताओं ने भी शायद ही सोचा होगा। आज, उसकी 17 राज्यों में अपने दम पर या सहयोगियों के साथ सरकार है। वह देश ही नहीं, दुनिया में सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है। उसकी सदस्य संख्या करोड़ों में होने का दावा है। वह कुछ बड़े क्षत्रपों वाले राज्यों को छोड़कर बाकी लगभग सभी राज्यों में चुनाव न जीतने पर भी तोड़-फोड़ के जरिये सरकार बनाने का तरीका निकाल चुकी है। उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सभी एजेंडे पूरे हो गए हैं, जिन्हें एनडीए-1 के दौरान मुल्तवी रखना पड़ा था। मसलन, अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना और तीन तलाक की शक्ल में समान नागरिक संहिता। इसके अलावा उसके हिंदुत्व के अफसाने का सबसे ज्यादा हल्ला है। हाल में कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस ने आरएसएस के खाकी पैंट को लेकर एक मीम चलाया तो रायपुर में संघ प्रचारकों के सम्मेलन के समापन के दिन 12 सितंबर को उसके प्रमुख नेता मनमोहन वैद्य ने कहा, हिंदुत्व की स्वीकार्यता आज देश भर में है। उससे नफरत करके कोई भी अपना प्रसार नहीं कर सकता। अगर इसका पैमाना भाजपा को मिले वोटों के हिसाब से लगाएं तो 2019 में उसे सर्वाधिक 37 फीसदी वोट मिले हैं। यानी 63 फीसदी मतदाता उसके आख्यान से प्रेरित नहीं हैं। यही दलील विपक्ष दे रहा है कि अगर विपक्ष के वोट न बंटें तो भाजपा को हराया जा सकता है।
शरद पवार के साथ सौजन्य मुलाकात
आंकड़े हालांकि कागजों पर ही शोभा देते हैं और विपक्ष को एकजुट करना इतना ही आसान होता तो 2019 में भाजपा की सीटें बढ़ नहीं गई होतीं। लेकिन यह भी सही है कि हर चुनाव एक जैसा नहीं होता और हर वक्त विपक्षी पार्टियों की सोच एक जैसी नहीं हो सकती। यानी संभव है कि भाजपा की अकूत ताकत और विस्तार की नीयत को देखकर विपक्षी पार्टियों की रणनीति में कुछ बदलाव आ जाए। यही संकेत कम से कम नीतीश और कई नेता एक-दूसरे से अपने तमाम गिले-शिकवों के बावजूद दे रहे हैं। तो, क्या 2024 में कुछ और रंग देखने को मिलेगा?
जहां तक भाजपा के मौजूदा नेतृत्व से उसके अपने पाले में असंतोष का सवाल है, यह उसके हाल में पार्टी के संसदीय बोर्ड के गठन में कुछ हद तक दिखा है। नितिन गडकरी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जैसे नेताओं की छुट्टी से यह कयास लगाया जाने लगा था कि कोई असंतोष खदबदा रहा है, लेकिन गडकरी ने ऐसी किसी आशंका को खारिज कर दिया। शिवराज चौहान ने तो हाल में प्रधानमंत्री मोदी की खूब प्रशंसा की, जिसे विपक्षी दलों ने सत्ता में बने रहने की उनकी ख्वाहिश से जोड़कर देखा। लेकिन राजनीति में कभी कुछ निश्चित तौर पर कहना जल्दबाजी कहलाता है। इसके उलट जहां तक सहयोगी दलों का मामला है, तो बिहार में जनता दल-युनाइटेड के एनडीए से निकल जाने के बाद उसके पास कोई बड़ा और अहमियत रखने वाला सहयोगी दल नहीं बचा है। उसके पहले वह शिवसेना और अकाली दल जैसे सबसे पुराने साथियों को गंवा चुका है। अलबत्ता भाजपा यह कह सकती है कि शिवसेना का टूटा बड़ा धड़ा उसके पास है, जिसके बूते महाराष्ट्र में सरकार चल रही है। लगभग ऐसे ही हालात 2004 में होने लगे थे, जब एनडीए के एकाधिक सहयोगी उसे छोड़कर चले गए थे। कांग्रेस में इमरजेंसी के दौरान जगजीवन राम ने टूटकर सीएफडी बना ली थी और चंद्रशेखर जैसे कई टूट गए थे। 1987 में भी राजीव गांधी के दौर में वी.पी. सिंह का टूटना सरकार की हार का कारण बना था।
सीताराम येचुरी के साथ
तब एक फर्क यह भी था कि अखबार जगत स्वतंत्र भूमिका निभाकर जनमत तैयार करने में प्रमुख निभा रहा था। राजनैतिक अफसाने पर सत्ता पक्ष का जोर तो है ही, विपक्ष के पास भी कोई वैकल्पिक अफसाना नहीं है जिससे जोरदार तरीके से वह अपने पक्ष में फिजा तैयार कर सके। तो, मामला कुल मिलाकर गणित पर आकर टिक जाता है। विपक्ष और कथित तौर पर नीतीश की ओर से जो गणित बताया जा रहा है, उसके मुताबिक भाजपा अपने पुरजोर दम पर बड़े राज्यों में सिर्फ उत्तर प्रदेश और गुजरात में सत्ता पर काबिज है, बाकी जगह वह कांग्रेस या अन्य विपक्षी पार्टियों से टूटे लोगों के सहारे सत्ता हासिल कर पाई है, जैसे मध्य प्रदेश, कर्नाटक। लेकिन इस मामले में पेंच यह भी है कि इन दोनों राज्यों में इस्तीफा दिए विधायकों के बाद हुए उपचुनावों में भाजपा ने जीत दर्ज करके विपक्ष में बिखराव को ही बढ़ावा दे दिया। महाराष्ट्र में तो तोड़-फोड़ एक नए ढंग से की गई ताकि उपचुनाव की नौबत ही न आए। फिर, भी संभव है कि आगे स्थितियां कुछ अलग हों।
शायद इसी के मद्देनजर 7 सितंबर से शुरू हुई राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से एक दिन पहले ‘मिशन मोदी-2024’ के लिए भाजपा के रणनीतिकारों में गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत 25 से अधिक कैबिनेट मंत्रियों ने अगले फोकस के लिए पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और पंजाब की 144 लोकसभा सीटों को चुना। दरअसल यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि बिहार में 2019 में जो 39 सीटें एनडीए (भाजपा की 17) को मिली थीं, उसके जदयू के दूसरे पाले में जाने के बाद इकाई अंकों में सिमट जाने की संभावना है। इसी तरह पश्चिम बंगाल में 2019 में भाजपा 18 संसदीय सीटें जीत गई थी। वह भी ममता बनर्जी की नई फिजा में सिमट कर इकाई अंकों में आ जाने की संभावना है। उसके अलावा झारखंड में सभी दस सीटें भाजपा के पास हैं और कयास है कि उसमें भी गिरावट आ सकती है। ऐसे में भाजपा की सीटों में भरपाई के लिए ये पांच क्षेत्र ही बचते हैं।
क्या भारत जोड़ो यात्रा चमत्कार दिखा पाएगी
उत्तर प्रदेश में उसे पिछली बार करीब दस सीटों का घाटा हो गया था, जो सभी बसपा-सपा गठजोड़ की वजह से बसपा के खाते में चली गई थीं, लेकिन विधानसभा चुनावों में मिले वोटों के हिसाब से सपा गठजोड़ काफी पीछे नहीं रहा था। भाजपा से उसके वोट प्रतिशत में 2 फीसदी से कम का अंतर था। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश में उसे अपनी स्थिति मजबूत करने की दरकार है। हाल में रामपुर और आजमगढ़ के दो संसदीय उपचुनावों में जरूर उसने सपा से ये सीटें छीन लीं। मगर, जैसा कि हाल में अखिलेश ने कहा, भाजपा अफसरों और चुनाव आयोग की मदद से ये सीटें जीत गई। अब हम चौकस हैं कि मुसलमानों और यादवों के वोट न काटे जा सकें। भाजपा उत्तर प्रदेश में बसपा के त्रिकोणीय मुकाबले में फायदा पाने की उम्मीद कर सकती है, लेकिन बहुत सारे किंतु-परंतु फिर भी हैं। इसलिए भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश पर फोकस बहुत जरूरी है। उधर, अखिलेश को भी चुनौती का अंदाजा है। जैसा कि कथित तौर पर नीतीश ने हल्के में कहा, हिंदी प्रदेशों में कमजोर पड़ते ही भाजपा 50 सीटों पर आ जाएगी।
पंजाब में कांग्रेस में विधानसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद भारी टूट-फूट से भाजपा को पहली दफा काफी उम्मीद दिखने लगी है। सितंबर 2021 में कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद से कमजोर पड़ी कांग्रेस के लिए पहले अपने बिखरते कुनबे को 2024 तक समेटे रखना एक बड़ी चुनौती है। कैप्टन अमरिंदर अपनी पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस का भाजपा में विलय करने की तैयारी में हैं तो भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ समेत पांच पूर्व कैबिनेट मंत्रियों में बलबीर सिद्धू, राणा गुरमीत सोढ़ी, गुरप्रीत कांगड़, श्याम सुंदर अरोड़ा, राजकुमार वेरका और पूर्व विधायक फतेह बाजवा भाजपा के नए संगठन में अहम जिम्मेदारियों के साथ लोकसभा के उम्मीदवारों की सूची में शामिल हो सकते हैं। संगरूर लोकसभा उपचुनाव में भी भाजपा ने पुराने किसी भाजपाई के बजाय उपचुनाव से चंद दिन पहले कांग्रेस छोड़कर आए पूर्व विधायक केवल सिंह ढिल्लों पर दांव खेला। वहां यह गणित है कि पिछली बार संसदीय चुनाव में जीते और दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेसियों और अकालियों को भाजपा के टिकट पर उतारा जाए। राज्य में भले 13 सीटें हैं मगर दूसरी जगहों पर संभावित नुकसान की भरपाई के लिए अहम हैं।
तेलंगाना भी ऐसा राज्य है जहां भाजपा को काफी संभावनाएं दिख रही हैं, लेकिन चंद्रशेखर राव भी चौकस हैं। वहां कांग्रेस के साथ त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा को कुछ फायदा मिल सकता है, लेकिन कर्नाटक में इस बार कांग्रेस और जदएस की तैयारी अच्छी दिख रही है। अगर दोनों पार्टियां पूरे दमखम से लड़ती हैं तो भाजपा की सीटें घट सकती हैं। महाराष्ट्र में भी महा विकास अघाड़ी के दल मिलकर लड़ेंगे तो लगभग दोतरफा लड़ाई हो सकती है। वहां शिवसेना को तोड़ने और उद्घव ठाकरे को अपदस्थ करने से उनके पक्ष में सहानुभूति पैदा होती है तो भाजपा को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है।
यही नहीं, पंजाब के बगल में हरियाणा में भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस में उत्साह दिख रहा है, इसलिए 2024 में सभी दस सीटों पर जीत की संभावना कम दिखती है। इसलिए राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अगर थोड़ा दमदार प्रदर्शन कर पाती है तो भाजपा को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। बाकी दक्षिण के बड़े राज्यों आंध्र प्रदेश, तमलिनाडु, केरल वैसे भी भाजपा के लिए वीरान क्षेत्र हैं। ओडिशा में भी इस बार नवीन पटनायक की बीजद ने अपनी स्थिति मजबूत की है, इसलिए भाजपा की सीटें बढ़ने की कम संभावना है। पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ दें तो कागज पर हालात भाजपा के लिए मुश्किल पैदा करते दिख रहे हैं।
लेकिन कागजों के आंकड़े मैदानी और मौके की सच्चाइयों के आगे शायद ही टिके हैं। 2019 में भी पुलवामा हादसे के बाद हालात बदले थे, लेकिन आंकड़े भाजपा की सीटें घटने की गवाही दे रहे थे। नतीजे आए तो शायद भाजपा के नेता भी चौंक गए। विपक्ष अगर ज्यादातर सीटों पर दोतरफा मुकाबला तय कर लेता है और ऐसा फॉर्मूला बन जाता है कि जहां जो मजबूत, वही लड़े तो तस्वीर बदल भी सकती है। देखा जाए, आगे क्या होता है और देश की सियासत किस दिशा में जाती है।