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25 साल की आमद: लोकतंत्र में घटता लोक

कल्याणकारी राज्य के अधिकार-केंद्रित राजनीति से होते हुए अब डिलिवरी या लाभार्थी राजनीति तक ढाई दशक का...
25 साल की आमद: लोकतंत्र में घटता लोक

कल्याणकारी राज्य के अधिकार-केंद्रित राजनीति से होते हुए अब डिलिवरी या लाभार्थी राजनीति तक ढाई दशक का सियासी सफर

इक्‍कीसवीं सदी की शुरुआत एक अपशकुनी आशंका से हुई थी। वाइ2के (यानी वर्ष दो हजार) अब शायद बहुतों को दिमाग पर काफी जोर देने पर याद आए। मिलेनियल्‍स, जेन जेड या ऐसी ही संज्ञाओं से जानी जाने वाली पीढ़ियां तो शायद सुनकर हैरान रह जाएं। उन्‍हें यह फिक्‍शन लगे, लेकिन डर वास्‍तविक था। कंप्‍यूटिंग एल्‍गोरिद्म वर्ष के आखिरी दो अंक ही दर्ज करता था (मसलन, 1999 का 99), ऐसे में अगला वर्ष 00 दर्ज होता तो सब कुछ गड़बड़ा जाता, पीछे का खो जाता। बड़ी मशक्‍कत से दुरुस्‍त हुआ। वर्ष के चार अंक शुरू से डाले गए, लेकिन इक्‍कीसवीं सदी की पहली चौथाई बीतते-बीतते टेक्नोलॉजी इतनी तेज गति से बदली कि यह बाबा आदम के जमाने की बात लगती है। स्मार्टफोन, सोशल मीडिया और अब हमारे सामने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) का नफा-नुकसान, खतरा-जोखिम मुद्दा बना हुआ है। अपने दौर के महान वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग तो गहरे चेता गए हैं कि एआइ मानव सभ्‍यता को खत्‍म कर सकती है। टेक्‍नोलॉजी की छलांग हमारे जीवन, लोकाचार, रहन-सहन, संस्कृति, व्यापार, पेशा, राजनीति, अर्थव्‍यवस्‍था सब पर गहरा असर डाल रही है।

टेक्नोलॉजी पर बड़े कॉरपोरेट का लगभग पूरा दबदबा नई तरह की व्यवस्‍था को जन्म दे रहा है। यह दुनिया भर में राजनीति और सत्ता पर कब्जे का ऐसा साधन बन रहा है कि लोकतंत्र के मायने भी बदल रहे हैं। हाल में अमेरिका में डेमोक्रेट पार्टी से जुड़े लेबर लीडर बर्नी सैंडर्स ने कहा, आज मेरी राय में ओलिगार्ची या क्रोनी कैपटलिज्म या याराना पूंजीवाद अमेरिका और दुनिया भर में सबसे बड़ा मुद्दा है। खरबपतियों के एक बेहद छोटे गुट का वैश्विक अर्थव्यवस्‍था पर नियंत्रण है। बड़ी तेजी से वे प्रशासन और राजनीति पर काबिज होते जा रहे हैं। 2020 से पांच अरब लोग दुनिया भर में गरीब हो गए हैं जबकि दुनिया के पांच सबसे बड़े खरबपतियों की 14 अरब डॉलर प्रति घंटे के हिसाब से संपत्ति दोगुने से ज्यादा बढ़ गई। दुनिया के सबसे बड़े अमीर एलॉन मस्क की संपत्ति में 120 अरब डॉलर का इजाफा सिर्फ अमेरिकी चुनाव के नतीजों के बाद हुआ है। दूसरे नंबर के अमीर जेफ बेजोस की संपत्ति महीने भर में 67 अरब डॉलर बढ़ गई। ये अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए चुनावों में बड़े पैमाने पर खर्च करते हैं। एलॉन मस्क ने ही डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव में 27.7 करोड़ डॉलर खर्च किए। अब यह लोकतंत्र नहीं रह गया। यह एक छोटे गुट का राज, ओलिगार्ची है।

अन्ना के साथ केजरीवाल

अन्ना के साथ केजरीवाल

अपने देश में इस सदी की शुरुआत और उसके पृष्ठभूमि की सियासी घटनाएं गवाह हैं कि कैसे राजनीति में कॉरपोरेट का दबदबा बढ़ता गया और संसदीय राजनीति में धनबल का खेल बढ़ता गया। दरअसल, 1991 में जब प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) की सलाह पर देश की अर्थव्यवस्‍था का रुख बाजारोन्मुख और निजीकरण की ओर मोड़ने का फैसला किया, उसके पहले ही राजीव गांधी के दौर में उनके पहले वित्त मंत्री वी.पी. सिंह नई आर्थिक नीति में उसकी नींव रख चुके थे। संभव है, यह अस्सी के दशक के मध्य में थैचरवाद और रीगनवाद की हवा का असर था, जिससे पश्चिम में कल्याणकारी राज्य को तिलांजलि दी गई थी। हालांकि, अपने यहां कल्याणकारी राज्य-व्यवस्‍था से पिंड छुड़ाने का पहला बड़ा कदम 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान शिक्षा के निजीकरण के लिए कुमार मंगलम बिड़ला की अगुआई में अंबानी-बिड़ला समिति का गठन करके उठाया गया। यह दुनिया में कथित शिक्षा सुधार के लिए बनी पहली ऐसी समिति थी जिसमें एक भी शिक्षाविद नहीं था।

दरअसल, शुरू में वामपंथी दलों तथा दूसरी विपक्षी खेमेबंदियों के साथ भाजपा और संघ परिवार भी बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्‍था का विरोधी था, जिसमें स्वदेशी जागरण मंच सबसे मुखर था। लेकिन 1996 में 13 दिनों की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरी तो दूसरे दलों से गठबंधन के लिए अपने मूल एजेंडे को मुल्तवी करने और बड़ी कंपनियों का समर्थन हासिल करने की रणनीति तैयार हुई। कहा गया कि हमारी सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में तेज कदम बढ़ाएगी। निजीकरण को प्रशस्त करने के लिए विनिवेश मंत्रालय तक बनाया गया। लेकिन 2004 में यूपीए सरकार ने संतुलन साधने की कोशिश मगर संसदीय राजनीति में धनबल की अहमियत लगातार बढ़ती रही। लगभग सभी दल, यहां तक कि वामपंथी दल भी यह स्वीकार कर बैठे थे कि विदेशी और निजी निवेश का कोई विकल्प नहीं है।

इसी विकल्पहीनता के अर्थ-दर्शन के तहत पश्चिम बंगाल में बुद्घदेव भट्टाचार्य की वाम मोर्चा सरकार सिंगूर में टाटा घराने की नैनो कार के लिए और नंदीग्राम में विदेशी निवेश के लिए भूमि अधिग्रहण में फंस गई। वहां ऐसा आंदोलन खड़ा हुआ कि 2012 में वाम मोर्चे की 34 साल की सत्ता ही नहीं गई, बल्कि लगातार उसका जनाधार छीजता गया है। गौरतलब है कि सिंगूर से टाटा घराना जैसे हटा, तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने आणंद में लगभग मुफ्त में जमीन देने की पेशकश की। इस तरह गुजरात मॉडल का शोर बढ़ने लगा। उधर, केंद्र में यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में भूमि अधिग्रहण संशोधन और नए वन अधिनियम से निजी क्षेत्र की परियोजनाओं की मंजूरी में देरी से यह नैरेटिव बनने लगा कि केंद्र सरकार नीतिगत पंगुता से ग्रस्त है। फिर, भ्रष्टाचार की कई कहानियां सुर्खियां बटोरने लगीं।

उधर, लगातार कई आंदोलन भी राजनीति को अलग धार दे रहे थे। अस्सी दशक में बड़ी प्रदूषणकारी परियोजनाओं और बड़े बांधों से होने वाले विस्‍थापन के खिलाफ देश के अलग-अलग हिस्सों में जो आंदोलन खड़े हुए थे, उनमें कुछ नए आंदोलन भूमि और वनक्षेत्र अधिग्रहणों के खिलाफ खुल गए थे। उत्तर प्रदेश में भट्टा-पारसौल, ओडिशा में नियमगिरि पर्वत बचाओ आंदोलन प्रमुख थे। उत्तर प्रदेश के भट्टा-पारसौल में आंदोलन मायावती के यमुना एक्सप्रेसवे के लिए जमीन अधिग्रहण और उचित मुआवजे के लिए था। ओडिशा में नियमगिरि की पहाड़ियों में उठा आंदोलन वेदांता के बॉक्साइट खनन के खिलाफ आदिवासियों का था। ऐसे ही आंदोलन छत्तीसगढ़, झारखंड, तमिलनाडु में अलग-अलग मांगों और शक्ल में खड़े थे। इनका असर यूपीए सरकार की नीतियों पर पड़ा हो सकता है।

इन आंदोलनों की कड़ी में भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के लिए अन्ना आंदोलन का असर सबसे व्यापक था। ये आंदोलन संकेत थे कि अर्थ-नीति की धारा वह नहीं हो सकती जो आवारा पूंजी को बिना जवाबदेही के प्रशस्त हो। थोड़े ठहराव के अलावा इन आंदोलनों का खास फर्क राजनीति की मुख्यधारा पर नहीं पड़ा। अन्ना आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी भी कहने लगी कि उसकी कोई विचारधारा नहीं है। उसने डिलिवरी पॉलिटिक्स को ही सबसे अहम माना। उसने यूपीए सरकार की अधिकार आधारित कल्याणकारी नीतियों का ही एक अलग रूप विकसित किया।

बाद के दौर में, पिछले दशक में इसी से शायद लाभार्थी राजनीति का जन्म हुआ, जो कायदे से कल्याणकारी योजनाओं को लोगों का अधिकार नहीं, बल्कि अपनी सत्ता के लिए लाभ की तरह इस्तेमाल करती है। जाहिर है, ऐसे में मौजूदा संसदीय राजनीति ओलिगार्ची या मुट्ठी भर लोगों के वर्चस्व की ओर यहां भी बढ़ती चली जा रही है। इस सियासी बदलाव में टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया के जिन बदलावों ने हमारी जिंदगी के साथ सोच-समझ बदलने में अहम भूमिका निभाई है, अगले पन्नों पर उनमें से 25 की बानगी देख सकते हैं। देखना है, अगला साल और अगले 25 वर्ष हमारी राजनीति और सत्ता-तंत्र को कहां ले जाते हैं।

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