मणिपुर में इंफाल के बाहरी इलाके से शुरू हुई कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ का बकौल राहुल गांधी मंतव्य है, “वह जो खो गया है सबसे मूल्यवान, हम उसे लौटा लाएंगे।’’ इसका संदर्भ यात्रा के उद्घाटन के मौके पर लोकप्रिय मणिपुरी गायक का गाया गीत है जिसके बोल थे, ‘हमने वह खो दिया, जो सबसे अमूल्य था।’ राहुल का दावा न सिर्फ बड़ा है, बल्कि चुनौतियां भी हिमालय जैसी हैं। पूरब से पश्चिम (मणिपुर से मुंबई) की यह यात्रा उनकी पिछली (कन्याकुमारी से कश्मीर) ‘भारत जोड़ो’ पैदल यात्रा से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। जिन राहों और 15 प्रदेशों से यह यात्रा गुजरेगी, उनमें अधिकांश में कांग्रेस अपनी जमीन राहुल के राजनीति में सक्रिय होने के पहले ही गंवा चुकी है। 2014 के बाद इन राज्यों में कांग्रेस का रहा-सहा ढांचा भी तिरोहित हो चुका है, हालांकि विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' ब्लॉक के घटकों की मौजूदगी यहां दमदार है। तो क्या यह यात्रा फिजा तैयार करने के लिए है? हो सकता है, मगर शर्त है कि बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, बिहार में राजद-जदयू, उत्तर प्रदेश में सपा-रालोद, महाराष्ट्र में राकांपा (शरद पवार)-शिवसेना (उद्घव ठाकरे) जैसी अपने-अपने राज्यों में मजबूत पकड़ वाली पार्टियों की प्रतिक्रिया भी सकारात्मक रहे। वैसे, 13 जनवरी को 'इंडिया' ब्लॉक की वर्चुअल बैठक में तृणमूल कांग्रेस, सपा और शिवसेना (उद्घव ठाकरे) की गैर-मौजूदगी से कई तरह के कयास हवा में हैं। फिर 14 जनवरी को मणिपुर से राहुल की यात्रा के उद्घाटन के दिन ही पार्टी के पूर्व कोषाध्यक्ष रहे दिवंगत मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा के शिवसेना (शिंदे) में शामिल होने से भी नई अटकलों का बाजार गरम है।
कांग्रेस ने इस यात्रा का मकसद सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय के प्रति अलख जगाना बताया है, जो पिछली 'भारत जोड़ो यात्रा' से निकले नारे 'मुहब्बत की दुकान' के इर्द-गिर्द बुना जरूर गया था, लेकिन ये सभी मुद्दे तब भी थे। यानी दूसरी यात्रा पहली का एक्सटेंशन सिर्फ इसी मामले में नहीं, बल्कि पार्टी इसे चुनावी यात्रा बताने से भी परहेज कर रही है। खैर, पहली यात्रा से हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में वापसी को भी पार्टी जोड़कर देखती है। फर्क यह है कि पार्टी का ढांचा इन राज्यों में बदस्तूर कायम रहा है, लेकिन हिंदी पट्टी के राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में कमोबेश पार्टी का ढांचा होने के बावजूद वह हाल के विधानसभा चुनावों में अपना वोट प्रतिशत तकरीबन कायम रखकर भी बहुमत नहीं पा सकी। भारत जोड़ो यात्रा मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी काफी लंबी रही थी, मगर जीत कर सरकार बनाने लायक फिजा नहीं तैयार कर पाई। राजस्थान में विधानसभा नतीजों के बाद करणपुर विधानसभा क्षेत्र (जहां का चुनाव कांग्रेस उम्मीदवार की मृत्यु से टल गया) के 5 जनवरी के चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार करीब 13,000 मतों से जीत गया और भाजपा का उम्मीदवार मंत्री बनाए जाने के बाद भी हार गया। इससे एक संकेत तो यही है कि फिजा तैयार करने वाली भाजपा की मशीनरी सक्रिय न हो तो नतीजे कुछ और हो सकते हैं। इसी मामले में चुनाव प्रक्रिया, मतदान विधि (ईवीएम) वगैरह के सवाल तेजी से उठे हैं। इसलिए कांग्रेस या 'इंडिया' ब्लॉक के लिए सबसे बड़ी चुनौती न सिर्फ माकूल फिजा तैयार करना है, बल्कि इन तमाम सवालों के प्रति भी लोगों में जागरूकता पैदा करना है।
मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ केजरीवाल
बेशक, चुनौती या कहें सबसे बड़ी चुनौती की ओर कांग्रेस के ही संचार प्रमुख जयराम रमेश इशारा करते हैं कि हमें मोदी बनाम मुद्दे को एजेंडा बनाना है। महंगाई (खाद्य पदार्थों की पिछली तिमाही में मुद्रास्फीति दर 19 फीसदी के करीब थी) और बेरोजगारी (हालिया सीएमआइ आंकड़ों के मुताबिक ग्रामीण बेरोजगारी 44.8 फीसदी और शहरी 45.9 फीसदी है) और आमदनी की बढ़ती खाई जैसे जनता को परेशान करने वाले मुद्दे तो हैं, लेकिन भाजपा राम मंदिर और 2047 तक विकसित भारत के सपने के सहारे अपने पक्ष में हवा बनाने की दिशा में बढ़ चुकी है। कांग्रेस या विपक्षी दल काफी हद तक इसकी काट नहीं ढूंढ पा रहे हैं या दुविधा में दिखते हैं। कांग्रेस ने पार्टी संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी, राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी को राम मंदिर ट्रस्ट के 22 जनवरी के प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम का न्यौता ठुकरा कर दुविधा को तोड़ने का संकेत दिया है, लेकिन उसे आस्था के राजनीतिकरण और भाजपा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम के अपने संदेश से खासकर हिंदीभाषी प्रदेशों के लोगों को आश्वस्त करने की चुनौती है।
दरअसल, हिंदी प्रदेशों के अलावा बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में इंडिया ब्लॉक के लिए मुकम्मल योजना और चतुर रणनीति भी जरूरी होगी, लेकिन उसकी 13 जनवरी की बैठक में बेहतरीन तालमेल का संदेश नहीं गया। अपुष्ट खबरें जरूर आईं कि खड़गे को 'इंडिया' ब्लॉक का चेयरमैन बनाया गया और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को संयोजक बनाने का प्रस्ताव आया, लेकिन नीतीश ने इनकार कर दिया। इसकी कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गई। सीटों के तालमेल के मामले में कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल के साथ खड़गे और राहुल के साथ बैठक की फोटो जरूर जारी की। उसके पहले बैठक तो शिवसेना (उद्घव) के संजय राउत और अरविंद सावंत के साथ भी हुई, लेकिन शिवसेना के कुछ सीटों खासकर दक्षिण मुंबई सीट पर दावे से मिलिंद देवड़ा टूट गए और शिंदे गुट में जा मिले। 2014 में दक्षिण मुंबई से मिलिंद जीते थे, लेकिन 2019 में अरविंद सावंत जीत गए थे।
भाजपा को भी दिल्ली, बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में गठबंधन से चुनौती का सामना है। सो, ये राज्य उसके निशाने पर हैं। केंद्रीय एजेंसियों से दिल्ली के केजरीवाल को चौथा और झारखंड के हेमंत सोरेन को आठवां और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को तीसरा नोटिस मिल चुका है। इसी 10 जनवरी को महाराष्ट्र में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर विधानसभा अध्यक्ष ने चुनाव आयोग के फैसले के हवाले से शिंदे गुट को ही असली शिवसेना की मान्यता प्रदान कर दी और दोनों तरफ से विधायकों को अयोग्य ठहराने की याचिकाएं खारिज कर दीं। इससे उद्घव गुट को झटका लगा, जो उम्मीद लगाए बैठा था कि शिंदे गुट के विधायक अयोग्य हुए तो सरकार गिर जाएगी। कयास यह है कि शिंदे गुट को मजबूती दिलाने के लिए ही मिलिंद को उसमें शामिल करवाया गया। अब देखना है कि उद्घव गुट कैसी सक्रियता दिखलाता है और कितने संकल्प के साथ आगे बढ़ता है। ऐसी ही दुविधा राकांपा के शरद पवार के सामने भी हो सकती है। संभव है, ऐसा ही फैसला राकांपा में अजित पवार की टूट पर भी आए।
राहुल गांधी की यात्रा के उद्घाटन के दिन ही मिलिंद देवड़ा शिवसेना (शिंदे) में शामिल हो गए
बंगाल में भी इधर कुछ समय से तृणमूल के अभिषेक बनर्जी पर ईडी की कार्रवाई में आए ठहराव से कयास लगाए जा रहे हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने एक बार फिर दोहराया है कि वे लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ेंगी। ये चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। इसके अलावा ईवीएम का मसला भी है जिस पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों ने जंतर-मंतर पर वीवीपैट में धांधली की आशंकाओं का प्रदर्शन किया। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की मांग है कि वीवीपैट की पर्ची वोटर के हाथ में दी जाए जिसे वह अलग बैलेट बॉक्स में डाल दे ताकि तमाम आशंकाएं दूर हो जाएं। दलील यह है कि ईवीएम में हेरफेर संभव है। उधर चुनाव आयोग विपक्षी दलों से मिलने के लिए समय ही नहीं निकाल रहा है। उसने कांग्रेस के जयराम रमेश को विस्तृत पत्र में सफाई दी कि ईवीएम कांग्रेस के जमाने में आई थी और किसी तरह की शंका की उसमें गुंजाइश नहीं है। इस घटनाक्रम का नतीजा क्या होता है और फिजा कैसी तैयार होती है, यह तो आगे दिखेगा।