मसला तो पुराना है लेकिन राजनीति नई है या कहिए राजनीति का नया मोड़ है। 24 जून को उत्तर प्रदेश सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का शासनादेश जारी करके एक नया विवाद छेड़ दिया। यह किया तो गया कथित तौर पर इलाहाबाद हाइकोर्ट के आदेश के तहत, लेकिन राजनैतिक हलकों में इसे भाजपा की नई पैंतरेबाजी की तरह देखा जा रहा है। 2017 में भारी बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में आई भाजपा ने अति पिछड़ी जातियों के लिए ओबीसी आरक्षण में उप-वर्गीकरण का वादा जोरशोर से किया था। अब अपने नए रवैए से आदित्यनाथ सरकार उस वादे से मुकरती जान पड़ती है।
हालांकि, जो होना था, वही हुआ। शासनादेश जारी होते ही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सु्प्रीमो मायावती ने इसे दलितों के साथ धोखाधड़ी बताया तो विवाद भड़क उठा। फिर, फौरन भाजपा के दलित नेता, केंद्रीय सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत ने राज्यसभा में कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार का फैसला “असंवैधानिक” है। लेकिन सवाल यही है कि वह क्या वजह है, जिससे अनुसूचित जाति सूची में संशोधन राज्य सरकार करने चली, जो पूरी तरह केंद्र या संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला है। ये 17 जातियां ओबीसी सूची के अनौपचारिक उप-वर्ग अति पिछड़ी जातियों में आती हैं और भाजपा के वादे के मुताबिक, ओबीसी आरक्षण में उप-वर्गीकरण से लाभान्वित होंगी।
ओबीसी उप-वर्गीकरण की योजना आरक्षण के लाभ के समान वितरण की मांग के तहत बनाई गई थी। यह योजना भी राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री कार्यकाल 2000-2002 में बनी थी और शायद राजनीति यह थी कि अति पिछड़ी जातियों को सपा-बसपा के पाले से तोड़कर भाजपा की ओर लाया जा सके। हाल में उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछड़ों के उप-वर्गीकरण के लिए एक समिति भी बनाई थी और कुछेक महीने पहले ही इस समिति ने अपनी रिपोर्ट भी पेश कर दी है। इसके अनुसार, ओबीसी सूची जातियों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के मुताबिक विभाजित की जाएगी और मंडल आयोग की रिपोर्ट के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों की आबादी में जातियों के अनुपात के हिसाब से बांटा जाएगा।
मौजूदा विवाद के केंद्र में 17 जातियां मल्लाह, कश्यप, कुम्हार, धीमर, बिंद, प्रजापति, धीवर, भर, केवट, बाथम, कहार, मछुआरा, राजभर, निषाद, तुरहा, मांझी और गोड़ हैं।
इन 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने की पहल 2005 में मुलायम सिंह यादव सरकार और फिर 2016 में अखिलेश यादव सरकार ने की थी और प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था। लेकिन केंद्र के मुताबिक इन जातियों को अस्पृश्य कहने के पर्याप्त कारण नहीं हैं इसलिए इन्हें अनुसूचित जातियों की सूची में नहीं डाला जा सकता। फिर, इस मामले में 29 मार्च 2017 को हाइकोर्ट ने अंतरिम आदेश दिया कि कोर्ट के आदेश के अधीन 22 दिसंबर 2016 के शासनादेश के तहत 17 पिछड़ी जातियों को जाति प्रमाण-पत्र जारी किया जाए।
अब उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य कहते हैं, “ओबीसी की 17 जातियों के शासनादेश को राजनैतिक चश्मे से नहीं देखना चाहिए। सरकार ने कोर्ट के आदेश का अनुपालन किया है। केंद्र और प्रदेश सरकार सभी को बराबरी पर लाने के संकल्प के साथ काम कर रही है। मामले में हाइकोर्ट के आदेश और केंद्रीय मंत्री के बयान को लेकर समस्या का समाधान करने का प्रयास किया जाएगा।”
एनडीए के सहयोगी अपना दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष आशीष पटेल कहते हैं, “सरकार ने न्यायालय के निर्णय का पालन कराने का प्रयास किया है। मुझे लगता है कि संसद में प्रक्रिया पर सवाल उठाया गया है, मंशा पर नहीं।” इस मामले में समाजवादी पार्टी के नेता कुछ भी कहने से परहेज कर रहे हैं, लेकिन कुछ दिनों पहले ही सपा ने अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया कि सामाजिक न्याय के लिए 2016 में सपा सरकार ने 17 ओबीसी जातियों को एससी में शामिल करने का निर्णय लिया। हाइकोर्ट ने 29 मार्च 2017 को हामी भरी। फिर, क्यों भाजपा ने इसे लागू करने में दो साल की देर की?
लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के एचओडी प्रोफेसर डॉ. डीआर साहू कहते हैं, “सपा मामले को इसलिए भी तूल नहीं देना चाह रही कि कहीं इसका क्रेडिट भाजपा न ले ले। बसपा इसलिए परेशान है, क्योंकि इन ओबीसी जातियों के एससी में शामिल होने पर एससी जातियों का कोटा कम हो जाएगा, इसलिए उसी अनुपात में कोटा भी बढ़ाने की बात की जा रही है। कुल मिलाकर, राजनीति की चक्की में ये जातियां पिस रही हैं। जब भी चुनाव आता है तो इस तरह का शिगूफा छोड़ दिया जाता है। प्रदेश में जल्द 12 सीटों पर उप-चुनाव होने वाले हैं।”
बसपा शुरू से ओबीसी की 17 जातियों को एससी में शामिल करने को लेकर यह कहती आ रही है कि इस बारे में राज्य सरकार को किसी भी जाति को शामिल करने का या हटाने का अधिकार नहीं है। यह फैसला असंवैधानिक है। मायावती के बयान के बाद राज्यसभा सदस्य सतीश चंद्र मिश्रा ने शून्यकाल के दौरान मामले को सदन में उठाया, तो केंद्रीय मंत्री ने राज्य सरकार के फैसले को असंवैधानिक ठहराया।
आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति के प्रदेश अध्यक्ष अवधेश वर्मा कहते हैं, “ओबीसी की 17 जातियां अपना पूरा हिस्सा लेकर अगर अनुसूचित जाति में आती हैं, तब ठीक है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, तो हम विरोध करेंगे, क्योंकि इनकी संख्या 13.4 फीसदी है। इसलिए हमारी मांग है कि अनुसूचित जाति के लिए जो आरक्षण की सीमा 21 फीसदी है, उसे बढ़ाकर 35 फीसदी किया जाए। योगी सरकार ने संविधान के विरुद्ध शासनादेश जारी किया। हम लखनऊ में जल्द ही एक विशाल पैदल मार्च निकालेंगे।”
कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता और पूर्वांचल प्रभारी अजय कुमार उर्फ लल्लू का कहना है कि भाजपा सरकार का इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का कोई ईरादा नहीं है। भाजपा सस्ती लोकप्रियता कमाना चाहती है। अगर ये चाहते तो विधानसभा से पारित कराकर प्रस्ताव केंद्र को भेजते, लेकिन इनकी कथनी और करनी में अंतर है। इसलिए इन जातियों को बरगलाने का काम कर रहे हैं।
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने कहा कि क्या सरकार बताएगी कि वह जिन 17 अति पिछड़ी जातियों को प्रमाण-पत्र बांटकर वाहवाही लूट रही है, ये छात्र-छात्राएं अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र से आवेदन करें या पिछड़ी जाति से। जब तक सरकार स्पष्टीकरण नहीं देती है, विज्ञापन निकाल कर भर्ती करने की जो भी तैयारी वह कर रही है, उस पर रोक लगाई जाए। ऐसा नहीं होता है तो यह साफ होगा कि सरकार 17 अति पिछड़ी जातियों के साथ धोखा करने जा रही है।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि सरकार को ओबीसी की 17 जातियों की कम और राजनैतिक नफा-नुकसान की चिंता ज्यादा है। जाहिर है, राजनीति के चक्कर में ये 17 जातियां वर्षों से चक्की में पिसती चली आ रही हैं। सरकार की ओर से शासनादेश तो जारी कर दिया गया, लेकिन उन्हें न तो एससी का जाति प्रमाण-पत्र जारी होना है और न ही इसका लाभ मिलना है।
विवाद के केंद्र में 17 जातियां
मल्लाह, कश्यप, कुम्हार, धीमर, बिंद, प्रजापति, धीवर, भर, केवट, बाथम, कहार, मछुआरा, राजभर, निषाद, तुरहा, मांझी और गोड़