यह तो भारतीय जनता पार्टी भी समझ रही है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में गांधी उपनाम का महत्व बना रहेगा। राष्ट्रीय दल कांग्रेस में जहां गांधी परिवार का कब्जा है, वहीं भारतीय जनता पार्टी में भी उत्तर प्रदेश की सियासत गांधी परिवार के इर्द-गिर्द घूम रही है। दोनों दलों में गांधी परिवार की नई पीढ़ी पर सबकी नजरें हैं। कांग्रेस में राहुल भाजपा में वरुण को लेकर चर्चा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे दोनों उत्तर प्रदेश से ही सांसद हैं, भाजपा में भी गांधी मां-बेटे की जोड़ी उत्तर प्रदेश से सांसद है। यह देखना दिलचस्प होगा कि किस मां-बेटे की जोड़ी उत्तर प्रदेश में जादू चला सकती है। वरुण गांधी मीडिया में बहुत ज्यादा नहीं रहते और उनके बारे में बमुश्किल चर्चाएं चलती हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में उनका पलड़ा भारी दिख रहा है। उत्तर प्रदेश में हमेशा से ही पोस्टर वार होता रहा है। 12-13 जून को इलाहबाद में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की एक और संभावित उम्मीदवार स्मृति ईरानी और वरुण गांधी को लेकर शहर भर में पोस्टर लग गए थे। वरुण से जुड़े सूत्र बताते हैं, शाह-मोदी की जोड़ी उन्हें नापसंद करती है और संघ के भी वह चहेते नहीं हैं।
यह सभी जानते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे संजय गांधी को सियासत में लाना चाहती थीं। वह उनके साथ हमेशा रहते थे और उनकी राजनीतिक समझ बड़े भाई राजीव से कहीं ज्यादा थी। लेकिन संजय गांधी और इंदिरा गांधी के विचारों में थोड़ा सा अंतर था। अमेठी के रहने वाले बुजुर्ग जगदीश सिंह बताते हैं, 'इंदिरा गांधी के समय में संजय की सक्रियता इस इलाके में बहुत थी। अमेठी और रायबरेली की जनता भी मानने लगी थी कि संजय गांधी ही आगे चलकर गांधी परिवार की विरासत संभालेंगे। संजय थोड़े उग्र विचार के थे जबकि इंदिरा सबको साथ ले कर चलने में यकीन करती थीं। यही वजह थी कि संजय गांधी की मित्र मंडली से इंदिरा गांधी नाराज रहती थीं। गांधी परिवार की राजनीति पर नजर रखने वाले जानकार बताते हैं कि संजय गांधी अपने सबसे करीबी दोस्त अकबर अहमद डंपी पर आंख मूंद कर भरोसा करते थे। डंपी विदेश में थे लेकिन संजय गांधी उन्हें अपने साथ ले आए। उस समय अमेठी, सुल्तानपुर के इलाकों में संजय गांधी के करीबियों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। एक दुर्घटना में संजय गांधी की मृत्यु के वक्त वरुण मात्र 3 महीने के थे। उसके बाद गांधी परिवार की सियासत में बड़ा बदलाव आया। इंदिरा गांधी अपनी राजनीतिक विरासत राजीव गांधी को सौंपने का मन बना चुकी थी। मेनका गांधी ने 'गांधी परिवार का मोह त्यागा और संजय गांधी के करीबी लोगों के साथ मिल कर संजय गांधी विचार मंच का गठन कर लिया। परिवार की फूट जुबानी जंग के रूप में भले ही बाहर नहीं आई लेकिन मेनका हमेशा राजीव गांधी के विरोधियों के खेमे के साथ रहीं। बाद में वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं। संजय गांधी विचार मंच की लोकप्रियता तेजी से सुल्तानपुर, अमेठी और रायबरेली में बढ़ी। बड़ी संख्या में युवा इस मंच से जुड़ते चले गए। यह तेजी कुछ रंग लाती इसी बीच इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद सहानुभूति लहर में राजीव गांधी को एक बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया और वह देश के प्रधानमंत्री बन गए। संजय गांधी विचार मंच का कामकाज कमजोर हो गया। जो लोग इस मंच के साथ खड़े थे वे कांग्रेस में लौट गए।
एक कांग्रेसी विधायक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, 'जब संजय गांधी विचार मंच बना तब मेरी कांग्रेस में कोई हैसियत नहीं थी। मैंने यह सोचकर इस मंच से नाता जोड़ा था ताकि आगे चलकर यह मंच बड़ा होगा और मुझे मौका मिलेगा। लेकिन सन 1984 के बाद मंच का अस्तित्व कमजोर होने लगा। इसलिए मैं भी कांग्रेस में लौट आया और इसी पार्टी से विधायक बन गया। हालांकि वरुण यह सब समझने के लिए बहुत छोटे थे। जब वह समझने लायक हुए तो उन्हें अपनी पढ़ाई और कविता के प्रति स्वाभाविक प्रेम के अलावा राजनीति को नए सिरे से समझना पड़ा। जब वह राजनीति में आए माहौल काफी बदल चुका था। इसलिए जब पिछले चुनाव में भाल पर लाल तिलक लगा कर भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे के तहत वह गरजे तो कुछ हद तक मामला गड़बड़ा गया। वरुण गांधी का वह टेप जम कर फैला जिसमें वह विशेष समुदाय को हाथ काटने की धमकी दे रहे हैं। वरुण गांधी के बेहद करीबी कहते हैं, 'टेप में छेड़छाड़ की गई थी। उनसे पहले जिन वक्ताओं ने भाषण दिया उसमें सभी दूसरी पार्टियों को वोट से वोट कटने की बात कह रहे थे। जब वरुण की बारी आई तो उन्होंने कहा, 'वोट कटुओं (उनका आशय वोट काटने वालों से था) को वोट न दें। सभी जानते हैं यदि वहां से वोट शब्द हटा दिया जाए तो यह एक वर्ग विशेष के लिए गाली बन जाएगी। बस फिर क्या था उस टेप के साथ छेड़छाड़ कर चला दिया गया। इसके बाद उनके विरोध में खूब बातें हुईं और उनकी छवि को नुकसान पहुंचा। कई नेता अब भी उसी भाषण की दुहाई देकर उनकी छवि कट्टर नेता की बताने पर तुले रहते हैं। जबकि वीडियो में रोशनी न के बराबर थी और आवाज बहुत भारी। जिसने भी वरुण गांधी की आवाज सुनी है वह जानते हैं कि उनकी आवाज इतनी भारी नहीं हो सकती।
दोनों परिवारों से संबंध रखने वाले कुछ लोगों का मानना है कि वरुण से यह चूक इसलिए हुई कि उन्हें राजनीति की सही सलाह देने वाला कोई नहीं था। मेनका, संजय गांधी के करीबी मित्र अकबर अहमद डंपी के साथ मिलकर सियासत में कुछ बड़ा करना चाहती थीं। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मेनका भाजपा के साथ तो डंपी बसपा में चले गए। सन 2009 में जब मेनका गांधी के बेटे वरुण गांधी ने सियासत के मैदान में कदम रखा था तब वरुण के ओजस्वी भाषणों को सुनकर भाजपा नेताओं के चेहरे खिल गए थे। वरुण में किसी नेता को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छवि दिखाई देने लगी तो किसी को लगने लगा कि भाजपा का यही गांधी अब उत्तर प्रदेश में भविष्य बन सकता है। उस वक्त वरुण के भाषणों में हिंदुत्व को लेकर जो जोश था वह युवाओं को उत्साहित करने वाला था। वरुण का आभामंडल बढऩे लगा और यह कयास लगाया जाने लगा कि उत्तर प्रदेश की सियासत में वरुण गांधी महत्वपूर्ण चेहरा साबित होने वाले है। वरुण को करीब से जानने वाले कहते हैं कि वह हिंदुत्व के बजाय अपनी छवि नम्र धर्मनिरपेक्ष की रखना चाहते हैं। सूत्र बताते हैं कि वरुण ने आग उगलने वाले भाषणों से परहेज किया और इसलिए हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा और उससे जुड़े दलों में उनके प्रति आकर्षण कम हो गया है। खबरें हैं कि वरुण की लिबरल छवि की वजह से संघ उन्हें तवज्जो देना नहीं चाहता। बावजूद इसके वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड को किसी की परवाह नहीं है। ब्रिगेड पीलीभीत, सीतापुर, बरेली, मेरठ सहित प्रदेश के कई जिलों में सक्रिय है। वरुण जहां भी चुनावी सभाओं में जाते हैं, वहां युवाओं का हुजूम उनके साथ नजर आता है। अंदरखाने भाजपा के भी कई नेता मानते हैं कि वरुण में बहुत संभावना है। उनकी सराहना होने के बाद ही उन्हें राष्ट्रीय टीम में जगह दी गई। वरुण को राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी का बहुत सहयोग मिला। नितिन उनके प्रति स्नेह रखते हैं तो राजनाथ उन्हें आगे बढ़ाते हैं। वरुण को भाजपा साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने तरीके से उपयोग करना चाहती थी इसलिए उनकी रैलियों की संख्या निर्धारित की जाने लगी। पीलीभीत छोड़कर सुल्तानपुर से चुनाव लडऩे की रणनीति बनाई गई जिसे वरुण गांधी ने स्वीकार भी किया। लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली बड़ी जीत के बाद भाजपा में वरुण गांधी का आभामंडल कमजोर दिखाई देने लगा। सियासी समीकरण पूरी तरह बदल गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी नई टीम को महत्व दिया। भाजपा के बड़े नेता अब वरुण गांधी का नाम लेने से कतराने लगे हैं।
वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड से जुड़े मनोज कुमार बताते हैं, भाजपा वरुण गांधी की लोकप्रियता से घबरा गई है। अगर उत्तर प्रदेश में उन्हें चेहरा बनाया जाता है तो भाजपा की जीत निश्चित है। देश का सबसे बड़ा सूबा होने के कारण उत्तर प्रदेश की सियासत का बड़ा असर केंद्र की राजनीति पर पड़ता है। यह भी एक बड़ा खतरा भाजपा के नेताओं को दिखाई पड़ रहा है। वरुण गांधी सोशल मीडिया पर भाजपा के सबसे सक्रिय नेताओं में से एक हैं। जितने भी सर्वेक्षण सामने आ रहे हैं उसमें वरुण गांधी को बतौर मुख्यमंत्री भाजपा का सबसे प्रबल दावेदार बताया जा रहा है। इसके बावजूद भाजपा असमंजस में है। भाजपा के एक बड़े नेता वरुण गांधी के बारे में साफ तौर पर कहते हैं कि वरुण में आकर्षण है, युवाओं को जोडऩे की कला है लेकिन भाजपा संगठन के बड़े नेताओं के साथ तालमेल का अभाव है। वरुण के ही बारे में उत्तर प्रदेश भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, 'वरुण नई पीढ़ी का नेतृत्व करने के लिए आतुर हैं लेकिन पार्टी का अलग ढांचा है। भाजपा किसी परिवार की पार्टी नहीं बल्कि संगठन है और संगठन में समर्पित कार्यकर्ताओं को साथ लेकर ही आगे बढ़ा जा सकता है।
इसके उलट वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड अपने नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार देखना चाहती है। ब्रिगेड के साथ जुड़े सर्वेश सिंह कहते हैं, 'जिस तरह उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में युवाओं ने समाजवादी पार्टी को बड़ी जीत दिलाई उसी तरह हम चाहते हैं कि वरुण गांधी के नेतृत्व में भाजपा चुनाव लड़े ताकि बड़ी सफलता मिल सके। इस मुद्दे पर खुलकर कोई कुछ न बोले लेकिन दबे स्वर में यह जरूर कहते हैं कि वरुण गांधी के अंदर भी गांधी परिवार का डीएनए है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे कभी स्वीकार नहीं करेगा। संघ और भाजपा नेताओं की एक परेशानी यह भी है कि लाख बोलने के बाद भी वरुण ने कभी किसी भाषण या चुनावी सभा में अपनी ताई सोनिया गांधी और ताऊ के बच्चों राहुल-प्रियंका पर परोक्ष-अपरोक्ष किसी भी रूप में हमला नहीं बोला। वहीं कई वरिष्ठ नेता वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड बनाए जाने से भी नाराज हैं। इससे उन्हें लगता है कि वह पार्टी लाइन से अलग हटकर काम कर रहे हैं और अपना कद बढ़ा रहे हैं। इस सवाल पर वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड के लोग जवाब देते हैं कि जब नरेंद्र मोदी आर्मी बन सकती है तो वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड क्यों नहीं। वरुण गांधी की पैरवी करने का जिम्मा यूथ ब्रिगेड ने ले लिया है। उनके समर्थक उत्तर प्रदेश में जगह-जगह नारे लगा रहे हैं, उत्तर प्रदेश के युवाओं की यही पुकार वरुण गांधी अबकी बार। इतना नहीं, इलाहाबाद में वरुण के समर्थकों ने ट्रेन रोककर भी प्रदर्शन किया। वरुण के समर्थक सोशल मीडिया पर पूरी तरह सक्रिय है। सर्वेक्षण का हवाला दे रहे हैं, चुनावी तैयारियों का ब्यौरा दे रहे हैं कि किस प्रकार वरुण गांधी अपनी संसदीय सीट के अलावा प्रदेश की एक-एक सीट की जानकारी एकत्र कर रहे हैं। वरुण गांधी की बढ़ती सक्रियता के कारण ही भाजपा को यह कहना पड़ा कि वह केवल अपने संसदीय क्षेत्र में ही रहें। ऐसा नहीं है कि भाजपा नेता इन परिस्थितियों को भांप नहीं रहे हैं। भाजपा के सामने भी कई सवाल हैं। क्या मेनका गांधी के मंत्री रहते हुए वरुण को बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है। क्योंकि भाजपा वंशवाद की राजनीति का विरोध करती रही है। इसके उलट वरुण समर्थक कहते हैं कि वरुण गांधी एक ब्रांड बन चुके हैं। इस ब्रांड का उत्तर प्रदेश में उपयोग न करना भाजपा के लिए बड़ी गलती साबित हो सकती है। एक बात तो तय है कि भाजपा और वरुण गांधी के बीच खटास का दौर शुरू हो गया है। कभी वरुण गांधी के कांग्रेस में जाने की अफवाह उड़ती है तो कभी उनके उत्तर प्रदेश में चुनाव में सक्रिय न होने की। हालांकि वरुण कह चुके हैं कि वह कांग्रेस में जाएंगे ऐसा सोचना भी पागलपन है। इस बारे में उनके एक करीबी ने कहा, 'वरुण ऐसी बातों से आहत नहीं होते। वह मानते हैं कि कुछ लोगों को ऐसी अफवाह उड़ाने में ही मजा आता है। मोदी भी उनसे इस बारे में बात कर चुके हैं। वह मोदी जी को भी कह चुके हैं कि जब उन्हें कांग्रेस में जाना होगा वह उन्हें छह महीने पहले बता कर जाएंगे। ऐसे अचानक धोखा नहीं देंगे। इलाहाबाद में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान जब वरुण गांधी के पोस्टरों की धूम थी तब भी वह शांत थे। भले ही इसे लेकर भाजपा नेता बातचीत करने से कतराते रहे। भाजपा प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा, 'इस तरह के पोस्टर कार्यकर्ताओं की निजी भावना हो सकती है अंतिम फैसला तो पार्टी को करना है।
कम ही लोग जानते हैं कि इस युवा नेता के लिए जिंदगी 'गांधी होने से भी बहुत आगे है। आम भारतीयों की तरह उन्हें भी शिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, किसानों की दुर्दशा चिंतित करती है। वह अपने संसदीय क्षेत्र में जाते हैं तो खांटी नेता की तरह होते हैं। जब अपने कमरे में बैठते हैं तो कवि हो जाते हैं। हाल ही में स्टिलनेस नाम की कविता की उनकी नई किताब भी आई है। उन्हें जर्मनी का वह मॉडल बड़ा पसंद आता है, जिसमें सप्ताहांत या स्कूल-कॉलेज की छुट्टी में कोई भी कौशल विकास के कार्यक्रमों से जुड़ सकता है और बाद में वहीं कौशल केंद्र बड़ी कंपनियों से अपने यहां सीखे गए लोगों को नौकरी के लिए आग्रह करती हैं। इससे बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है। वरुण जानते हैं भारत में किसानों को लेकर काम भी हो रहे हैं फिर भी इसमें तेजी और ज्यादा प्रयास की जरूरत है। वह सन 2009 में पीलीभीत गए, पूरे क्षेत्र में घूमे और कई लोगों से बात की। उनका ज्यादा ध्यान किसानों पर था। उन्होंने किसानों से उनकी समस्या जानी। उनकी पहल पर ही तब पंजाब विश्वविद्यालय और पूसा इंस्टिट्यूट के 88 वैज्ञानिकों का डेलीगेशन वहां गया। उन लोगों ने किसानों को ऑर्गेनिक खेती के बारे में बताया। इस कार्यक्रम से जुड़े एक व्यञ्चित बताते हैं कि आज दिल्ली में आईएनए मार्केट में लगभग 15 प्रतिशत ऑर्गेनिक और एक्जॉटिक सब्जी पीलीभीत से आती है। इससे 35 हजार किसानों को फायदा हुआ है। इस काम के लिए उन्होंने कोई ट्रस्ट नहीं बनाया है। उनका मानना है कि ट्रस्ट संभालना एक अलग तरह का काम है। उन्होंने इस काम के लिए वह पैसा लगाया जो उनकी नानी उनके लिए छोड़ कर गई थीं। उनकी नानी की इच्छा थी कि उस पैसे को किसी अच्छे काम में लगाया जाए।
वरुण गांधी विवादों में पडऩा नहीं चाहते। उन्हें विवाद पसंद भी नहीं। फिर भी जब कुछ हो जाए तो वह उस पर बहुत सवाल-जवाब नहीं करते। वह इसे राजनीति का हिस्सा मानते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें अन्य राजनीतिक बातों के अलावा यह चिंता रहती है कि उत्तर प्रदेश के 17 जिलों में वह खुद की तनख्वाह (जो उन्हें सांसद के बतौर मिलती है) को कैसे ज्यादा से ज्यादा अच्छे काम में लगा पाएं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में बैंक मैनेजरों से खुद बात की है ताकि किसानों को आसानी से कर्ज मिल सके। इसके अलावा उन्होंने वहां के कुछ धनी लोगों को इकट्ठा किया है, उनसे आर्थिक मदद मांगी और उससे 10 हजार किसानों को मदद मिली। पहले यह मदद उन परिवारों को दी गई थी जिनके यहां मुखिया ने आत्महत्या कर ली। अब वह उन किसान परिवारों तक पहुंचने के लिए प्रयास कर रहे हैं, जो मुसीबत में हैं और आर्थिक तंगी से ऐसा कोई कदम न उठाएं।
लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स (एलएसई) से पढ़े वरुण पर कहीं से 'गांधी उपनाम का घमंड नहीं दिखता। भारत की राजनीति बहुत अलग है और छात्र राजनीति तो बिलकुल ही अलग। वह सन 2001 में एलएसई में पहले अध्यक्ष रह चुके हैं। अभी उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन टिकट बांटने, भड़काऊ भाषण की तैयारी करने, किसी के खेमे में जाने की चिंता से ज्यादा जरूरी उन्हें पढऩा अच्छा लगता है। भारतीय जनता पार्टी के युवा चेहरों में वह सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। उनकी ताकत आपातस्थिति को आसान बना लेना है। अचानक सुल्तानपुर भेजने पर वह बिना घबराए वहां गए और जीत हासिल की। पार्टी से जुड़े सूत्र कहते हैं कि वरुण में वह सब है जो एक सफल राजनेता को चाहिए। यही वजह है कि पार्टी के बड़े नेता उनसे खौफ खाते हैं। और फिर गांधी उपनाम की अपनी महिमा है जिससे लोग आकर्षित होते हैं। कुछ नेता वरुण को राहुल-प्रियंका के तोड़ के रूप में रखना चाहते हैं। वरुण बातों से जाहिर कर चुके हैं कि वह किसी मोहरे के रूप में प्रस्तुत नहीं होंगे। कई मौकों पर वरुण ने जताया है कि वह परिवार और राजनीति को अलग रखेंगे। वह इसका पालन भी करते हैं। लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक सभा में बोल दिया था कि राहुल ने अमेठी में अच्छा काम किया है। प्रियंका गांधी ने वरुण को गीता पढऩे की नसीहत जरूर दी थी। इसके बावजूद वह कुछ नहीं बोले और अमित शाह के कोप का भाजन बने। यह तो सभी राजनीतिक पंडित मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में भले ही सपा-बसपा की माला फेरी जाती हो लेकिन सोनिया, राहुल या प्रियंका के वहां जाते ही कांग्रेस की छुपी ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन पार्टी को हमेशा संदेह रहता है कि कहीं उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता देने से ऐसा न लगे कि उत्तर प्रदेश में सत्ता का सपना संजोए भाजपा को भी गांधी का ही सहारा है।