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पुलिस हमला: अदालत ने चंद्रबाबू नायडू के खिलाफ दर्ज मामला रद्द करने से इनकार किया

बंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने 2010 में महाराष्ट्र में पुलिस कर्मियों पर हमला करने के आरोप में...
पुलिस हमला: अदालत ने चंद्रबाबू नायडू के खिलाफ दर्ज मामला रद्द करने से इनकार किया

बंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने 2010 में महाराष्ट्र में पुलिस कर्मियों पर हमला करने के आरोप में आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू और तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) के नेता नक्का आनंद बाबू के खिलाफ दर्ज मामला रद्द करने से इनकार कर दिया है।

न्यायमूर्ति मंगेश पाटिल और शैलेश ब्रह्मे की खंडपीठ ने 10 मई को अपने फैसले में कहा कि इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि कथित अपराध में नायडू और बाबू दोनों की मिलीभगत को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं।

अदालत ने तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू और नक्का आनंद बाबू द्वारा दाखिल की गई उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले में धर्माबाद पुलिस में उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की अपील की गई थी। प्राथमिकी एक लोक सेवक पर हमला करने या आपराधिक बल का प्रयोग करने सहित कई संगीन आरोपों के तहत दर्ज की गई थी।

उच्च न्यायालय ने कहा, "प्राथमिकी में स्पष्ट रूप से आवेदक आरोपी नंबर एक (नायडू) के बारे में आरोप लगाया गया है कि उसने साथी कैदियों को उकसाया था और यहां तक कि दोनों राज्यों के बीच लड़ाई होने की धमकी भी दी थी।" पीठ ने कहा कि गवाहों ने अपने बयानों में स्पष्ट रूप से अपराध के लिए नायडू और बाबू की भूमिका को जिम्मेदार ठहराया है और मेडिकल प्रमाणपत्रों से पता चलता है कि कई पुलिस अधिकारियों को चोटें आईं थी।

उच्च न्यायालय ने कहा यह स्पष्ट है कि पुलिस कर्मियों पर हमला दोनों (बाबू और नायडू) की मिलीभगत से किया गया था। अदालत ने कहा कि प्राथमिकी तुरंत दर्ज की गई और यहां तक कि घायल पुलिस कर्मियों की भी तुरंत चिकित्सकीय जांच की गई थी। उच्च न्यायालय ने कहा, ‘आवेदकों (नायडू और बाबू) पर जिस अपराध का आरोप लगाया गया है उसमें उनकी संलिप्तता का खुलासा करने वाले पर्याप्त सबूत हैं और आपराधिक मामले को रद्द करना उचित नहीं होगा।’

पीठ ने दोनों याचिकाएं खारिज कर दीं, लेकिन दोनों के वकील सिद्धार्थ लूथरा के अनुरोध पर पूर्व में दी गई अंतरिम सुरक्षा को आठ जुलाई तक बढ़ा दिया। जुलाई 2010 में नायडू और बाबू को 66 सहयोगियों के साथ धर्माबाद पुलिस ने आंदोलन से संबंधित एक अन्य मामले में गिरफ्तार किया था। मामले में नायडू, बाबू और अन्य को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया और धर्माबाद के सरकारी विश्राम गृह में एक अस्थायी जेल में रखा गया।

जब उनकी न्यायिक हिरासत बढ़ा दी गई तो महाराष्ट्र जेल के उप महानिरीक्षक ने उन्हें औरंगाबाद केंद्रीय जेल में स्थानांतरित करने का आदेश दिया लेकिन नायडू और बाबू ने स्थानांतरित होने से इनकार कर दिया और कथित तौर पर जेल अधिकारियों को तेलुगू और अंग्रेजी भाषा में गालियां देना शुरू कर दिया।

जब जेलर ने दोनों से बस में चढ़ने का अनुरोध किया तो नायडू और बाबू ने कथित तौर धमकी दी कि यदि उन्हें बस में चढ़ने के लिए मजबूर किया गया तो दोनों राज्यों के बीच संघर्ष होगा। दोनों के खिलाफ आरोप यह है कि उन्होंने अन्य व्यक्तियों को उकसाया और आपराधिक बल का प्रयोग करना शुरू कर दिया जिसमें कुछ पुलिस अधिकारियों पर हमला भी किया गया। इसके बाद अतिरिक्त बल बुलाया गया और नायडू एवं बाबू सहित अन्य आरोपियों को औरंगाबाद केंद्रीय जेल में भेज दिया गया।

नायडू और बाबू की ओर से पेश वरिष्ठ वकील लूथरा ने दलील दी कि आंदोलन से संबंधित प्राथमिकी वापस ले ली गई थी और मजिस्ट्रेट ने उस मामले में सभी आरोपियों को तुरंत आरोपमुक्त कर दिया था। लूथरा ने तर्क दिया कि इस मामले में आरोप झूठे और मनगढ़ंत थे। उन्होंने कहा कि जेल अधिनियम के प्रावधानों के तहत केवल जेल अधीक्षक को ही प्राथमिकी दर्ज करने का अधिकार है।

लूथरा ने कहा कि वर्तमान मामले में मुखबिर एक वरिष्ठ जेलर था जो स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता था और उसके पास प्राथमिकी दर्ज करने की शक्ति नहीं थी। अदालत ने इस तर्क को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और कहा कि आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया है ना कि जेल अधिनियम के तहत। यह एक अलग अपराध है।उच्च न्यायालय ने कहा कि अपराध और आरोपपत्र केवल भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत आते हैं। इसलिए लूथरा की दलील कानूनी रूप से मान्य नहीं होगी।

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