जयललिता ने अपने दमदार राजनीतिक कार्यकाल में अपने उत्तराधिकारी के रूप में किसी को पहचान ही नहीं दी। जयललिता सरकार में बाकी सभी एक कतार में थे। उन्होंने अपने टर्म में किसी एक को भी नंबर दो जैसी जगह नहीं दी। जानकारों के मुताबिक, उत्तराधिकारी खड़ा नहीं करना उनकी सबसे बड़ी मजबूती रही। लेकिन उनके मरने के बाद यही बात उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक की सबसे बड़ी कमजोरी बन कर सामने आ रही है।
वैसे जयललिता के अन्नाद्रमुक के अलावा अन्य दलों को भी आने वाले दिनों में उत्तराधिकारी को लेकर काफी जेहमत उठानी पड़ सकती है। हाल के वर्षों में देश के कई क्षेत्रीय नेता अपना उत्तराधिकारी चुनने की दिशा में पहल कर रहे हैं। कई नेताओं ने तैयार भी कर लिया है। हालांकि कुछ नेता अभी भी किसी उत्तराधिकारी को तैयार करने में हिचक रहे हैं। अगर क्षेत्रीय नेताओं को देखें तो जहां अपने परिवार से उत्तराधिकारी को चुनने की बारी आती है, वहां वह आसानी से चुन लेते हैं। लालू प्रसाद ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर लिया। वहीं, उत्तर प्रदेश में मुलायम यिंह यादव ने अपनी सियासत अखिलेश यादव को सौंप दी है। इसी तरह, एनसीपी के शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले और नैशनल कॉन्फ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला ने भी अपने बेटे उमर अबदुल्ला को विरासत वक्त रहते सौंप दी है।
वहीं, एसपी सुप्रीमो मायावती हो या जेडीयू के नीतीश कुमार या बीजेडी के नवीन पटनायक, इन नेताओं ने अब तक न तो अपना कोई औपचारिक नंबर दो तैयार किया है, न ही उत्तराधिकारी चुनने के संकेत दिए हैं। तमिलनाडु की राजनीति की बात करें तो वहां डीएमके में उत्तराधिकारी का संकट कई महीनों तक रहा। 92 साल की उम्र में भी करुणानिधि ने अब तक अपने उत्तराधिकारी के सवाल को नहीं सुलझाया है। हालांकि, इस फैसले का पार्टी संगठन पर लगातार असर होते देख अब उन्होंने अपने बेटे स्टालिन को पार्टी की कमान लगभग दे ही दी है। लेकिन जहां अपने परिवार से बाहर उत्तराधिकारी चुनने की बारी आती है, इन दलों के सामने दुविधा पैदा हो जाती है। बसपा, जेडीयू व बीजद के सामने यही समस्या है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने भी भविष्य में यह समस्या आ सकती है।
गहरी राजनीतिक समझ की बदौलत अपने राज्य में वर्षों तक राज करने वाले इन नेताओं ने उत्तराधिकारी तैयार करने की जरूरत ही नहीं समझी। ऐसा न करने के पीछे इनकी अपनी राजनीतिक मजबूरी भी रही है। यह सही है कि वोटर इन नेताओं से ही उनके दल के अन्य नेताओं को पहचानते रहे हैं। ऐसे में अपना उत्तराधिकारी तैयार करना आसान नहीं होता है। वोटर स्वीकार करेंगे या नहीं, इसमें संदेह रहता है। दूसरी तरफ उत्तराधिकारी बनाने के बाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ने का भी खतरा होता है। जैसे कि बिहार में जब नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को सीएम बनाया तो मांझी ने उन्हें ही चुनौती दे डाली।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, 'बात मोह भर का नहीं है। दरअसल, इन नेताओं को अपने दम पर पार्टी खड़ा करने का श्रेय जाता है। ऐसे में जब यह पार्टी का कंट्रोल दूसरे को देते हैं या उत्तराधिकारी बनाते हैं तब भी इनके मन में यह भय ताउम्र बना रहता है कि जिस पार्टी को उन्होंने खड़ा किया, वह कहीं बिखर न जाए। व्यावसायिक घराने में इस तरह की इनसिक्यॉरिटी नहीं रहती है।' अब तक के जो सबक रहे हैं, उस हिसाब से उत्तराधिकारी का मामला सुलझाने में जब भी दिग्गज नेताओं ने देरी की या उलझन में दिखे उसका खामियाजा उनके दल को भुगतना पड़ा है।