“मणिपुर में कुकी-मैती हिंसा के पीछे पहाड़ और मैदान के वासियों के बीच ब्रिटिशकालीन विभाजन है, जिसे ताजा घटनाओं ने और गहरा कर दिया”
मणिपुर में मैती और कुकी आदिवासियों के बीच हिंसा को अब दो महीने हो रहे हैं। दोनों समूहों के बीच 3 मई को भड़की जातीय हिंसा अब तक 130 से ज्यादा लोगों की जान ले चुकी है। 3,000 से ज्यादा लोग घायल बताए जा रहे हैं और 50,000 से ज्यादा लोग बेघर हो चुके हैं। ऐसी नाजुक हालत में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की मणिपुर यात्रा हुई है। इस दौरान राज्य प्रशासन की ओर से जैसे अड़ंगे लगाए गए और जनता ने जैसी प्रतिक्रिया दी, वह जमीनी हकीकत का अक्स है। आउटलुक ने जमीन पर दोनों समुदायों से बात की। लोगों का दावा है कि कुकी-मैती का झगड़ा मैतियों द्वारा आरक्षण की तात्कालिक मांग से बहुत पीछे जाता है। फिलहाल स्थिति यह है कि दोनों ही समूहों पर एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा करने के आरोप लग रहे हैं। पहाड़वासी कुकी समुदाय का दावा है कि मैती लीपुन और अरामबाई तेंगगोल जैसे नवगठित मैती संगठन सरकारी बलों की मदद से उनका कत्लेआम कर रहे हैं। इम्फाल घाटी और उसके आसपास बसने वाले मैतियों का दावा है कि हिंसा के पीछे कुकियों के वे उग्रवादी संगठन हैं जिनके ऊपर सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) का निर्देश अब भी लागू है।
मणिपुर और 'उग्रवाद'
मणिपुर की पूर्व रियासत औपचारिक रूप से 1972 में भारतीय संघ का हिस्सा बनी। तब से ही (और वास्तव में उससे पहले से) राज्य ने मोटे तौर पर दो समानांतर किस्म के उग्रवादी आंदोलनों को देखा है। एक का नेतृत्व कांगलीपाक के लिए मैतियों ने किया, जो भारत से अलग होना चाहते थे। दूसरा, कुकी-जोमी समूहों के नेतृत्व में कुकी के लिए एक अलग देश की मांग का आंदोलन है। कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (केएनओ) 17 कुकी विद्रोही संगठनों का एक समूह है और युनाइटेड पीपुल्स फ्रंट (यूपीएफ) आठ अन्य कुकी विद्रोही संगठनों का प्रतिनिधित्व करता है। कुकी-जो क्रांतिकारी समूहों का एक और छाता संगठन यूपीएफ 2006 में बना था। यूपीएफ और केएनओ दोनों के राजनीतिक उद्देश्य समान हैं और वे कुकी के लिए अलग राज्य की मांग करते हैं। कुकी-जोमी समूहों का अधिकांश हिस्सा 1993 के बाद नगा आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए संगठित हुआ था।
मैती तो पचास के दशक से ही 'कांगलीपाक' के भारतीय संघ में एकीकरण के खिलाफ संगठित हैं। कांगलीपाक, घाटी में रहने वाले मणिपुरी मैतियों का ब्रिटिश-पूर्व राज्य रहा है। भारत से अलग होने की मांग को लेकर 1964 में युनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) का गठन किया गया था। इसके बाद कई मैती समूहों का उदय हुआ, जिनमें पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलीपाक (प्रीपाक) और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) हैं। इन्हें "घाटी के विद्रोही समूहों" के रूप में जाना जाता है। इन समूहों ने भारत से अलग होने और नगा आक्रामकता को रोकने के दोहरे उद्देश्य के साथ काम किया है।
अस्सी का दशक आते-आते मणिपुर को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। यहां उग्रवाद को नियंत्रित करने के लिए कुकी-जोमी समूहो के साथ सिलसिलेवार संघर्ष विराम के समझौते किए गए। घाटी के विद्रोही समूह हालांकि अब भी तकनीकी रूप से सक्रिय हैं क्योंकि उन्होंने कभी भी केंद्र के साथ कोई आधिकारिक समझौता नहीं किया है और वर्षों से किसी शांति वार्ता में भाग भी नहीं लिया है। अब अरामबाई तेंगगोल और मैती लीपुन (प्रमोद सिंह के नेतृत्व वाला) जैसे नए समूह मणिपुर में चल रही मौजूदा हिंसा के केंद्र में हैं।
एसओओ क्या है?
कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (केएनओ) ने सेना के साथ ऑपरेशन के निलंबन (एसओओ) के लिए 10 अगस्त, 2005 को संघर्ष विराम पर हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद 22 अगस्त, 2008 को भारत सरकार, केएनओ और मणिपुर की राज्य सरकार के बीच एक और एसओओ (त्रिपक्षीय समझौता) पर हस्ताक्षर किए गए। यूपीएफ ने भी 22 अगस्त, 2008 को इसी एसओओ पर हस्ताक्षर किए। आइआइटी गोहाटी में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले शोधकर्ता नगमजाहाओ किपगेन के मुताबिक वर्तमान में एसओओ से बंधे समूहों के लगभग 2200 काडर 14 निर्दिष्ट शिविरों में रह रहे हैं।
ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी (जेजीयू) के जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल (जेजीएलएस) के प्रोफेसर सम्राट सिन्हा बताते हैं, "पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में एसओओ एक सामान्य रणनीति है। एसओओ के दो प्रमुख घटक हैं वित्तपोषण और निगरानी। एसओओ समूहों की फंडिंग की प्रणाली अस्पष्ट है, लेकिन मुझे लगता है कि केंद्र पैसे देता है और राज्य केंद्रीय बलों के साथ संयुक्त रूप से उनकी निगरानी करता है।"
सिन्हा के अनुसार मणिपुर का मामला "जटिल" है और यह कहना मुश्किल है कि वर्तमान हिंसा एसओओ शिविरों के चलते बढ़ी है या नहीं, जैसा कि ताकतवर मैती समुदाय आरोप लगा रहा है। सिन्हा कहते हैं कि एसओओ घाटी या पहाड़ियों की सीमा से सटे गांवों में कारगर नहीं हैं। यही वह क्षेत्र है जहां पिछले एक महीने से हिंसा जारी है।
सह-अस्तित्व और संघर्ष
कुकी लोग आज भारत और म्यांमार दोनों जगह रहते हैं। कुकी मातृभूमि (कुकी-जाले-गाम) का भौतिक सीमांकन भले अस्पष्ट हो, पर यह स्थान कुकी पूर्वजों की स्मृतियों के कारण लोगों के जेहन में जीवित है। किपगेन बताते हैं, "जाले-गाम केएनओ के अध्यक्ष पीएस हाओकिप द्वारा प्रतिपादित एक वैचारिक अवधारणा है, जिसका अर्थ है 'अपनी धरती पर लोगों की स्वतंत्रता'। हाओकिप ने जाले-गाम की विचारधारा का प्रचार कुकियों की पैतृक धरती को एक करने और कुकी राष्ट्र को बहाल करने के साधन के रूप में किया। किपगेन बताते हैं, “कुकी आबादी वाले क्षेत्रों को एक प्रशासनिक इकाई में जोड़ने की इच्छा हमेशा से रही है। वर्तमान में उनकी मांग भारतीय संविधान के ढांचे के भीतर एक अलग मातृभूमि कुकीलैंड की है।”
किपगेन के अनुसार कांगलीपाक (मणिपुर) के मैती साम्राज्य से इतर, जाले-गाम के लिए कुकी उद्यम के बावजूद दोनों समुदाय हमेशा से शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में रहते आए हैं। किपगेन बताते हैं, “अतीत में कुकी प्रमुखों द्वारा मैती नरेश को दी गई सहायता तक इसकी जड़ें जाती हैं। मैती राजा चौरजीत 1810 में अवा (बर्मा) की सेना से अकेले नहीं लड़ पाए। उन्होंने कुकी लोगों से मदद मांगी थी।” 1949 में मणिपुर के भारत में विलय की पूर्व संध्या पर विलय समझौते के विरोधस्वरूप कुकी प्रमुखों ने महाराजा और उनके राज्य की रक्षा के लिए अपने लोग भेजे थे।
मणिपुर में राहत शिविर
किपगेन के अनुसार विलय ने पहाड़ और मैदानी के लोगों के बीच खाई पैदा की। इस नई प्रणाली के तहत ब्रिटिश प्रशासन के तहत आने वाले विभिन्न पहाड़ी क्षेत्र 'अनुसूचित क्षेत्र' बन गए और मैदानी लोगों (मैती) को आदिवासी पहाड़ी क्षेत्रों में बसने की मनाही हो गई। इसने स्पष्ट रूप से मैतियों और आदिवासियों (नगा और कुकी) को अलग-थलग कर डाला। इस संदर्भ में दो घटनाएं अहम हैं जिसके बाद अंग्रेजों ने कांगलीपाक और जाले-गाम दोनों को एक ही प्रशासन के अधीन ला दिया था- पहला 1891 का खोंगजोम युद्ध, जिसे एंग्लो-मणिपुर युद्ध के रूप में भी जाना जाता है और दूसरा, 1917-1919 का एंग्लो-कुकी युद्ध।
पहाड़-घाटी विभाजन
मौजूदा हिंसा के दौर ने पहाड़ी और मैदानी इलाकों के लोगों के बीच विभाजन को और गहरा कर दिया है। अपनी पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ नॉट बींग गवर्न्ड- ऐन एनार्किस्ट हिस्ट्री ऑफ अपलैंड साउथईस्ट एशिया’ में नृशास्त्री जेम्स सी स्कॉट बताते हैं कि कैसे घाटियों में राज्य का गठन पहाड़ों में ‘राज्येतर’ वर्गों का निर्माण करता है। पहाड़ों में रहने वाले वे समुदाय जो घूम-घूम कर खेती करते हैं और एक मौसम से दूसरे मौसम तक टिके रहने लायक ही उपज पैदा कर पाते हैं, वे राज्य-गठन की प्रक्रिया से बाहर रह जाते हैं। यानी वे “राज्येतर’’ हो जाते हैं।
राज्य और राज्येतर के बीच का यह अंतर दोनों समुदायों की युद्ध-शैली (गुरिल्ला बनाम संरचित सेना), शासन की शैली (स्थानीय बनाम राष्ट्रीय) से लेकर "लोकतंत्र", "गणतंत्र" या "स्वतंत्रता" जैसी अवधारणाओं पर उनकी धारणा में भी झलकता है। यह इन समूहों के प्रति राज्य की प्रतिक्रिया में भी देखा जा सकता है- "राज्येतर" माने जाने वाले क्षेत्र अक्सर संसाधनों की कमी से पीड़ित होते हैं। इसका उदाहरण मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्र हैं जो बुरी तरह से अविकसित हैं। सभी प्रमुख विश्वविद्यालय, कॉलेज, अस्पताल, सरकारी कार्यालय और आपातकालीन सेवाएं इम्फाल और पास के घाटी क्षेत्र में स्थित हैं।
केंद्र और राज्य का जोर आज भी बातचीत के माध्यम से समाधान खोजने के बजाय "उग्रवादियों" को दंडित करने पर है। इस बहाने कुकी लोगों का किया जा रहा शिकार राज्य और राज्येतर के विभाजन को और उभार रहा है, जहां राज्य के सशस्त्र बलों को तो कानूनी माना जाता है जबकि "राज्येतर" सशस्त्र बलों को आतंकवादी। मणिपुर संकट के हल के लिए सामाजिक-जातीय और भू-राजनीतिक रणनीति के साथ ऐसे अंतर-सामुदायिक संवाद की भी आवश्यकता है जिसमें सभी हितधारकों को समान क्षमता में शामिल किया जाए।