समाजवार्टी पार्टी की कमान अखिलेश यादव द्वारा हथिया लेने के बाद हाशिए पर चल रहे शिवपाल यादव कई बार नई पार्टी बनाने का संकेत दे चुके हैं। विधानसभा चुनावों में पार्टी को मिली करारी हार के बाद उनके इस कदम का इंतजार था। लेकिन नई राजनैतिक पार्टी के बजाय 'सामाजिक न्याय' के लिए सेक्युलर मोर्चे के गठन का ऐलान किया, जो अलग पार्टी बनाने के उनके मंसूबों में आत्मविश्वास की कमी को दर्शाता है। वैसे भी जब चुनाव आयोग में अखिलेश यादव ने सपा पर वर्चस्व को लेकर मजबूत दावेदारी की थी, तब शिवपाल खेमा बुरी तरह मात खा चुके हैं। ऐसे में उनके पास मुलायम के नाम का सिक्का बचा है, जिसे वे किसी गलत रणनीति की भेंट चढ़ाकर खोटा साबित नहीं करना चाहेेंगे।
अगर मुलायम सिंह यादव के राजनैतिक जीवन पर नजर डालें तो नई लीक पर चलना उनके लिए कोई नई बात नहीं है। चाहे वह समाजवादी जनता दल से अलग होकर नई पार्टी बनाने की बात हो या फिर अयोध्या में कार सेवकों पर गोली चलवाने का फैसला। मुलायम ने एक से बढ़कर एक कड़े फैसले लिए हैं। लेकिन यहां उन्हें अपनों से जूझना है।
आइए एक नजर डालते हैं मुलायम सिंह की सियासी सफर और फैसलों पर-
कम उम्र में विधानसभा सदस्य बने
मुलायम महज 28 साल की उम्र में 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर पहली बार जसवंत नगर क्षेत्र से विधानसभा सदस्य चुने गए। इसके बाद वे 1974, 77, 1985, 89, 1991, 93, 96 और 2004 और 2007 में विधायक बने। इसके अलावा मुलायम सिंह जसवंत नगर और फिर इटावा की सहकारी बैंक के निदेशक भी रह चुके हैं।
गुरुओं को दी मात
मुलायम सन 1967 में पहली बार राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधानसभा सदस्य चुने गए। लेकिन लोहिया की मौत के बाद 1968 में वे चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल में आ गए। चौधरी चरण सिंह ने राजनीति में उनकी बहुत मदद की। इस दौरान संसोपा और भारतीय क्रांति दल का विलय करके भारतीय लोकदल बनाया गया। 1977 में जब बीएलडी का जनता पार्टी में विलय हुआ तो मुलायम सिंह मंत्री बन गए। लेकिन चरण सिंह की मृत्यु के बाद भारतीय लोकदल को तोड़ दिया। वैसे ही वीपी सिंह की जनता दल से नाता तोड़ कर चंद्रशेखर की सजपा में शामिल हुए। लेकिन सन 1989 के चुनावों में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने काँग्रेस से बग़ावत कर दी। उस वक्त मुलायम सिंह यादव चंद्रशेखर के साथ खड़े थे। मगर ऐन वक्त पर मुलायम पलटे और देवीलाल के साथ चले गए। फिर 1992 में मुलायम ने सजपा से अलग होकर समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा कर दी। वे तीन बार क्रमश: 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991 तक, 5 दिसम्बर 1993 से 3 जून 1995 तक और 29 अगस्त 2003 से 11 मई 2007 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे।
आपातकाल में मीसा के तहत गिरफ्तारी
मुलायम को 27 जून 1975 को तब गिरफ्तार किया गया था जव वे भालेपुरा नाम के एक गांव में जमीनी विवाद सुलझाने गए थे। गांव में पंचायत चल रही थी उसी दौरान पुलिस ने भालेपुरा को चारों तरफ से घेर लिया और मुलायम सिंह यादव को मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। 18 महीनों तक (जून 1975 से जनवरी 1977 तक) इटावा जेल में रहे।
कार सेवकों पर गोली चलवाने का निर्णय
जब 1989 में मुलायम सिंह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, उस दौरान अयोध्या का मंदिर आंदोलन तेज़ हुआ तो कार सेवकों पर साल 1990 में उन्होंने गोली चलाने का आदेश दिया था। जिसमें एक दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए थे। बाद में मुलायम ने कहा था कि ये फैसला कठिन था।
अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाना
साल 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 403 में से 226 सीटें जीतीं। तब लोगों को लग रहा था कि एक बार फिर मुलायम सिंह मुख्यमंत्री की बागडोर अपने हाथों में लेंगे, लेकिन अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया।
जो बाप का नहीं हुआ...
2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के दो फाड़ हो गए। बात यहां तक बढ़ गई कि मुलायम सिंह ने अखिलेश को पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखाया था। हालांकि इसे विपक्षी दलों ने एक नौटंकी करार दिया था। लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव पर सार्वजनिक रूप से ग़ुस्सा निकाला। मुलायम सिंह ने कहा कि उनके बेटे ने उन्हें अपमानित किया और जनता को यह बात समझ में आ गई कि जो अपने बाप का नहीं हुआ वो किसी और का क्या होगा। इसीलिए समाजवादी पार्टी की बुरी तरह से हार हुई।
इस तरह मुलायम सिंह के फैसलों और सियासी सफर पर नजर डालें, शिवपाल सिंह की बयान को आधार मानें या अखिलेश और मुलायम के रिश्तों में दरार को टटोलें तब मुलायम सिंह का नए मोर्चे का अध्यक्ष बनना बड़ा फैसला जरूर होगा लेकिन आश्चर्यजनक नहीं।