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जनादेश ’24 / पंजाब: तीन दशक बाद गर्म हवा

हालिया चुनावी परिणामों ने पंजाब के माथे पर शिकन ला दी है, इससे सत्ता-विरोधी लहर के उग्र होने की...
जनादेश ’24 / पंजाब: तीन दशक बाद गर्म हवा

हालिया चुनावी परिणामों ने पंजाब के माथे पर शिकन ला दी है, इससे सत्ता-विरोधी लहर के उग्र होने की संभावना

जनादेश 2024 सरहदी सूबे पंजाब में सत्‍ता विरोध और संघवाद का एक अलग स्‍वरूप लेकर आया है। राज्‍य के सियासी इतिहास के मद्देनजर यह घटनाक्रम कुछ तबकों में चिंता पैदा कर रहा है। इसमें सबसे ज्‍यादा चौंकाने वाले परिणाम खडूर साहिब सीट से स्‍वघोषित खालिस्‍तानी अमृतपाल सिंह और फरीदकोट सीट से सरबजीत सिंह की बड़े अंतर से हुई जीत है। दोनों निर्दलीय उम्‍मीदवार थे। अमृतपाल राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत फिलहाल असम की जेल में बंद हैं। सरबजीत सिंह 1984 में इंदिरा गांधी हत्‍याकांड से जुड़े रहे बेअंत सिंह के पोते हैं।

रवायती पार्टियों में कांग्रेस को इस आम चुनाव में सबसे ज्‍यादा आठ सीटें मिली हैं। बावजूद इसके कि भाजपा ने ऐन चुनाव के वक्‍त कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं और पूर्व सांसदों को अपने पाले में कर उम्‍मीदवार बनाया था, कांग्रेस का उभार हुआ है जबकि भाजपा की झोली बिलकुल खाली रही। पिछली बार के विधानसभा चुनावों में जीती सत्‍तारूढ़ आम आदमी पार्टी मात्र तीन सीट पर और अकाली दल एक सीट पर सिमट कर रह गया।

दरअसल 2020 के किसान आंदोलन और उसके पहले श्री गुरुग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं से पंजाब में सत्‍ता विरोधी हवा लंबे समय से तेज बह रही है। गौर करें, तो पिछले विधानसभा चुनाव में 117 सदस्‍यीय सदन में आम आदमी पार्टी की लगभग एकतरफा 92 सीटों पर जीत और थोड़े समय बाद ही संगरूर लोकसभा उपचुनाव में सिमरनजीत सिंह मान की जीत भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही थी। बुजुर्ग सिमरनजीत सिंह मान सूबे में भिंडरावाले के दौर की चर्चित शख्सियत रहे हैं। इससे सत्‍ता विरोधी हवा के उग्र होने की पूरी आशंका है।

सरबजीत सिंह

सरबजीत सिंह

पंजाब का राजनीतिक इतिहास हिंसक रहा है, इसी के मद्देनजर कुछ तबकों के माथे पर चिंता की लकीरें लंबी हो रही हैं। मुख्‍यधारा की पार्टियां भी इसी को लेकर चिंतित हैं। साथ ही दो निर्दलीय उम्‍मीदवारों की जीत का भारी अंतर भी पंथक राजनीति में नई संभावनाओं के खुलने का संकेत दे रहा है। खालिस्तान समर्थक संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के मुखिया अमृतपाल सिंह की जीत रिकॉर्ड 1.97 लाख मतों से हुई है। सरबजीत सिंह खालसा 70,000 मतों से जीते हैं।

इन दोनों ने 2015 में कोटकपूरा और बरगाड़ी में श्री गुरुग्रंथ साहिब की बेअदबी को मुद्दा बनाया था और आह्वान किया था कि इस चुनाव में शिरोमणि अकाली दल, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस से बदला लेना है। तीनों ही पार्टियों की सरकारें बेअदबी के मसले पर किसी भी तरह की कार्रवाई कर पाने में अब तक नाकाम रही हैं। बावजूद इसके कि 2017 में कांग्रेस और 2022 में आम आदमी पार्टी ने बेअदबी की घटनाओं को ही मुद्दा बनाकर विधानसभा चुनाव जीता था, लेकिन आरोपियों को सजा दिलाने का वादा दोनों पूरा नहीं कर सकी हैं। इस वादाखिलाफी और किसान आंदोलन से उपजी नाराजगी ने मिलकर पंजाब की राजनीति को अबकी नया रंग दे दिया है।

चुनावी राजनीति में सरबजीत की आमद नई नहीं है। इससे पहले सरबजीत 2004 में बठिंडा से लोकसभा और 2007 में भदौर सीट से विधानसभा चुनाव लड़कर हार चुके हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में वे फतहगढ़ साहिब से और 2019 में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर लड़कर चुनाव हार गए थे। सरबजीत की मां बिमल कौर 1989 में रोपड़ लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर सांसद बनी थीं। इस लिहाज से संसदीय राजनीति में बेशक उनकी एक जड़ है।

 

हरसिमरत कौर

 

पंजाब में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि कोई खालिस्तान समर्थक संसदीय चुनाव जीता हो। जून 1984 में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के समय फरीदकोट के एसएसपी रहे सिमरनजीत सिंह उस ऑपरेशन के विरोध में इस्तीफा देकर खालिस्तान समर्थकों के साथ जुड़ गए थे। 1984-89 तक भागलपुर (बिहार) जेल में रहते हुए सिमरनजीत सिंह मान ने अकाली दल (अमृतसर) पार्टी बनाई और 1989 में तरनतारन लोकसभा सीट से पांच लाख मतों के भारी अंतर से चुनाव जीते थे। उनके छह अन्य साथी भी लुधियाना, रोपड़, फरीदकोट, फिरोजपुर, संगरूर और बठिंडा से चुनाव जीते थे। मान की तरह जेल में रहते हुए जालंधर से चुनाव लड़ कर 1989-91 तक अतिंदरपाल सिंह सांसद रहे। अकाली दल (खालिस्तानी) पार्टी के अध्यक्ष अतिंदरपाल का चुनाव प्रचार के दौरान नारा था, “तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें खालिस्तान दूंगा।”

1999 में दूसरी बार संगरूर और तीसरी बार 2022 के उपचुनाव में भी संगरूर से ही सांसद बने सिमरनजीत सिंह मान ने अमृतपाल और सरबजीत सिंह खालसा को चुनाव में खुलकर समर्थन दिया। चार जून को चुनाव के नतीजे आने के बाद अमृतपाल और सरबजीत सिंह खालसा की अप्रत्याशित जीत के बावजूद उनके परिवारों और समर्थकों ने 6 जून तक जीत का जश्न नहीं मनाया क्योंकि 1984 में यही वह तारीख थी जब  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने खालिस्तानियों के खिलाफ अमृतसर से ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ शुरू किया था। खालिस्तान समर्थक इस दिन को ‘घल्लूघारा’ (नरसंहार दिवस) के तौर पर याद करते हैं।

अपनी अप्रत्याशित जीत से गदगद सरबजीत सिंह खालसा ने आउटलुक से कहा, “संसदीय चुनाव के बाद अमृतपाल और उनके समर्थक अब एसजीपीसी चुनाव तथा विधानसभा के उपचुनाव में भी लड़ेंगे। पंजाब के हक की लड़ाई के लिए 2027 के विधानसभा चुनाव में तमाम सियासी दलों को टक्कर देने की हमारी तैयारी है।”

उधर भाजपा के साथ गठबंधन में 2007 से 2017 तक लगातार दो बार पंजाब की सत्ता पर काबिज रहे अकाली दल का सिख संसद अकाल तख्त संचालक श्री गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) में भी खासा दखल रहा है, लेकिन राज्‍य की कुल 13 में से मात्र एक संसदीय सीट बठिंडा पर इसका सिमट जाना पार्टी के वजूद के लिए खतरे की घंटी की तरह है। वहां से हरसिमरत कौर बादल जीती हैं, लेकिन आधे से अधिक सीटों पर पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। पार्टी का गढ़ रही फरीदकोट सीट भी वह गंवा चुकी है। यह संकेत है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के निधन के बाद अकाली दल (बादल) की पंथक सियासत अब चरमपंथियों की ओर खिसक रही है।

अकाली दल की कोर कमेटी के एक सदस्य ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर आउटलुक से कहा, “लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से पार्टी के कई नेताओं ने सुखबीर बादल की प्रधानी के खिलाफ बगावत के सुर तेज कर दिए हैं। अकाली दल का 13.40 प्रतिशत वोट कांग्रेस, आप, भाजपा और बसपा उम्‍मीदवारों से पीछे है। यह बसपा, निर्दलीयों और अन्य के खाते में पड़े 15.70 प्रतिशत वोटों से कम है। कांग्रेस को 26.30 प्रतिशत, सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के हिस्से 26 प्रतिशत और भाजपा को 18.60 प्रतिशत वोट मिले हैं। भाजपा किसानों के भारी विरोध के बावजूद तीसरे नंबर पर रही, जिसकी एक वजह कांग्रेस के रसूखदार नेताओं का उसकी ओर रुख करना भी है। शायद अकाली दल एनडीए में रहता, तो उसकी इतनी बुरी गति नहीं होती।”

अमृतपाल के सांसद बनने पर पूर्व डीजीपी स्तर के एक अधिकारी ने अपना नाम गुप्त रखते हुए आउटलुक से कहा, “अपने समर्थकों में जरनैल सिंह भिंडरावाला की परछाई माने जाने वाले अमृतपाल ने भिंडरावाला के गांव रोडे (मोगा) में ही ‘वारिस पंजाब दे’ का मुखिया बनकर हुलिया भी हूबहू भिंडरावाले सा कर लिया था। समर्थकों के बीच ‘जरनैल साब’ और ‘भाई साब’ कहे जाने वाले अमृतपाल ने आइएसआइ की मदद से विदेशों से हुई फंडिंग के दम पर लोकसभा चुनाव जीतकर अपनी असली मंशा जाहिर कर दी है।”

चुनाव नतीजों के बाद पंजाब की सियासी फिजा में फिलहाल एक ही सवाल तैर रहा है कि रासुका में बंद अमृतपाल को संसद की शपथ लेने की मंजूरी मिलेगी या नहीं? निर्वाचित होने के 60 दिन के भीतर संसद में शपथ न लेने की सूरत में अमृतपाल की जीती हुई सीट रिक्त मानी जा सकती है। इस मसले पर अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सतपाल जैन ने आउटलुक से कहा, “जेल में रहते हुए लोकसभा चुनाव जीतने वाला व्यक्ति अदालत या जिलाधिकारी की अनुमति के बाद स्पीकर से निर्धारित समय पर संसद सदस्य के रूप में शपथ ले सकता है।"

इसी वर्ष मार्च में संजय सिंह ने दूसरी बार राज्यसभा सदस्य के रूप में शपथ लेने की अनुमति अदालत से ली थी जब वे दिल्ली के कथित शराब घोटाला मामले में जेल में थे। 1977 में इमरजेंसी के दौरान जेल में रहते हुए जॉर्ज फर्नांडिस बिहार के मुजफ्फरपुर से सांसद चुने गए थे, हालांकि शपथ ग्रहण समारोह से पहले ही उन्हें रिहा कर िदया गया था।

सतपाल जैन के मुताबिक, “संविधान के अनुच्छेद 101(4) में प्रावधान है कि अगर कोई संसद सदस्य बिना अनुमति के 60 दिनों से अधिक समय तक सदन की सभी बैठकों से अनुपस्थित रहता है तो उसकी सीट रिक्त घोषित कर दी जाएगी।"

बहरहाल, पंजाब के चुनावी नतीजे यहां के लोगों के मिजाज का अलग संदेश दे रहे हैं। लंबे समय से यहां उठ रहा हर मुद्दा संघवाद और केंद्र सरकार की उस पर बेढंगी नीति के साथ जाकर जुड़ जा रहा है जिसके चलते असंतोष और बढ़ता जा रहा है। अगर सत्ताधारी राजनैतिक दल ने संविधान-प्रदत्त संघीय ढांचे और इस सूबे के लोगों की आकांक्षाओं का नीतिगत सम्‍मान नहीं किया, तो भिंडरावाले के हिंसक दौर के बाद बीते लगभग तीन दशक से मुख्‍यधारा की संसदीय राजनीति की ओर मुड़ चुकी पंजाब की अवाम नई हवा में अपना रुख बदल सकती है।

 

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