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महाराष्ट्र चुनाव 2024: क्षेत्रीय दलों की भूमिका

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ जैसा है तो झारखंड में हेमंत सोरेन और झामुमो...
महाराष्ट्र चुनाव 2024: क्षेत्रीय दलों की भूमिका

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ जैसा है तो झारखंड में हेमंत सोरेन और झामुमो के लिए। ये चुनाव यह भी तय करेंगे कि भाजपा बनाम अन्य की लड़ाई में क्षेत्रीय दलों की क्या भूमिका है? और अगली सियासत का स्वरूप क्या होगा?

एक देश एक चुनाव के सियासी आह्वान के पक्ष और विपक्ष की जो भी दलीलें हों, उसके आर्थिक और राजनैतिक पहलू कुछ भी हों, इसमें शक नहीं कि थोड़े-थोड़े अंतराल पर होने वाले चुनावों से लोकतंत्र जीवंत बना रहता है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में क्रिकेट और बॉलीवुड को भले ही धर्म की संज्ञा दी गई हो, यह सियासत है जिसमें आम लोगों की सबसे ज्यादा दिलचस्पी है।

जाहिर है, इस दिलचस्पी के केंद्र में चुनाव होते हैं। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि आम जनता के हाथों में ऐसी शक्ति निहित होती है जिसके जरिए वह अपनी पसंद की हुकूमत चुन सकती है। यही वह समय होता है जब वह किसी भी सियासी दल या नेता को अर्श से फर्श पर या फर्श से अर्श तक ला सकती है। जनता की यही ताकत चुनावों को विशेष बनाती है।

देश में अभी लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं होते हैं। कुछेक राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ जरूर होते हैं लेकिन अधिकतर प्रदेशों में विधानसभा चुनाव अपनी तय समय-सीमा के अनुसार होते हैं। चुनाव की लंबी और जटिल प्रक्रिया को पूरा करने के लिए एक बड़ी राशि राजकोष से मुहैया करानी पड़ती है। इसलिए ‘एक देश एक चुनाव’ व्यवस्था को लागू कराने की मांग पिछले कुछ वर्षों में जोर-शोर से उठी है और पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च-स्तरीय समिति ने इस पर एक रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी है। लेकिन, इसे लागू करने के तमाम तर्कों और वाद-विवादों से इतर, देखा जाए तो चुनाव देश के त्योहारों जैसा हैं, जिनकी संख्या जितनी अधिक हो, उत्साह उतना ही अधिक नजर आता है। शायद इसिलिए इसे लोकतंत्र का पर्व कहा जाता है।

चुनाव दरअसल राष्ट्रीय या प्रादेशिक स्तर पर जनता के मूड को समझने का बैरोमीटर है। अक्सर देखा गया है कि मतदाताओं का मूड बहुत कम अंतराल पर बदलता रहता है। किसी प्रदेश के जिस मतदाता ने किसी पार्टी को लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जिताया है, उसी पार्टी को राज्य के चुनावों में करारी शिकस्त मिली है। दरअसल हर चुनाव में मुद्दे बदलते हैं और मुद्दे बदलने के साथ जनता का मिजाज बदलता रहता है। 1984 में प्रचंड बहुमत से जीतने वाली कांग्रेस पार्टी के राजीव गांधी को 1989 में हार का सामना करना पड़ा था तो भाजपा के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 2004 में तब सत्‍ता गंवानी पड़ी जब उनकी जीत के बारे में अधिकतर चुनावी विश्लेषक आश्वस्त थे। वे परिणाम तो पांच वर्षों के अंतराल पर आए थे लेकिन कभी-कभी तो चंद महीनों में ही जनता का मूड बदल जाता है। 2014 के संसदीय चुनावों में बिहार की चालीस सीटों में सिर्फ दो सीट जीतने वाली जनता दल-यूनाइटेड ने कुछ महीनों बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य में सरकार बनाई।

अब महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव हैं और सबकी निगाहें दोनों राज्यों पर टिकी हैं। कुछ हफ्ते पहले हरियाणा और जम्मू- कश्मीर सुर्खियों में थे। जम्मू-कश्मीर के चुनावों में सबसे बड़ा सवाल था कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद वहां की जनता किसे सत्ता में लाएगी। हरियाणा में दिलचस्पी इस बात में थी कि क्या भाजपा प्रदेश में लगातार तीसरी बार जीत दर्ज करके नया रिकॉर्ड बनाएगी। इन दोनों प्रश्न के उत्तर मिल गए हैं। अब सारी निगाहें महाराष्ट्र और झारखंड पर हैं जहां सबसे ज्‍यादा दिलचस्पी इस बात में है कि क्या इन दोनों राज्यों की बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां इस लड़ाई में भाजपा के विरुद्ध अपनी विरासत बचाने में सफल हो पाएंगी? महाराष्ट्र में इस लड़ाई के केंद्र में उद्धव ठाकरे हैं जिन्होंने पिछला विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ गठबंधन में लड़ा था। मुख्यमंत्री के सवाल पर शिवसेना ने भाजपा से नाता तोड़ लिया था। उद्धव ने बाद में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई जिसके वे मुखिया थे, लेकिन वे अपनी पार्टी को टूटने से नहीं बचा सके। सत्ता गंवाने के बाद महाराष्ट्र में उद्धव के लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ का सवाल है जहां उनकी पार्टी की पुरानी विरासत है।

ऐसी ही लड़ाई झारखंड में है जहां हेमंत सोरेन अपनी पार्टी की साख बचाने के लिए चुनावी समर में उतरे हैं। झारखंड के इतिहास में झारखंड मुक्ति मोर्चा और हेमंत के पिता शिबू सोरेन का योगदान अहम है। हेमंत को भी भ्रष्टाचार के कथित आरोपों के कारण कुछ समय के लिए न सिर्फ मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था बल्कि जेल भी जाना पड़ा था। बाद में वे पुनः सत्ता में वापस आए और एक बार फिर इस लड़ाई में झामुमो की अगुआई कर रहे हैं। जाहिर है, इन दोनों नेताओं के लिए ये चुनाव पिछले सभी चुनावों से महत्वपूर्ण हैं। इस बार के चुनावी परिणामों का उनके राजनैतिक भविष्य पर बहुत असर पड़ेगा। ये चुनाव यह भी तय करेंगे कि भाजपा बनाम अन्य की लड़ाई में क्षेत्रीय दलों की क्या भूमिका है?

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