भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित होने के नाते यह पुस्तक तथ्य एवं विवेचना के स्तर पर एक प्रामाणिक हैसियत रखती है। सौ साल के सिनेमा को समझने के लिए पुस्तक को सोलह अध्याय में बांटा गया है; मसलन ‘चलती-फिरती तस्वीरें’, ‘रुपहले पर्दे पर पहली आवाज’, ‘विकास की डगर पर’, ‘पारसी रंगमंच की विरासत’, ‘इप्टा की इबारत’, ‘सिनेमा का स्वर्ण युग’, ‘खुशहाल सिनेमा’, ‘स्टारडम का संसार’, ‘व्यावसायीकरण का नया विस्तार’, ‘मनोरंजन के महारथी’, ‘जीवन के समानांतर सिनेमा’, ‘सेंसर और समाज’, ‘सुर, संगीत और शोर’, ‘नायिका भेद: कायनात से काया तक’, ‘बॉलीवुड के स्टार परिवार’, और ‘नई प्रवृत्तियां नए अंदाज।’
भारत में सिनेमा के इतिहास का जब भी जिक्र होता है तो हम ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म या उससे पहले ल्युमियर के चित्रों की चर्चा भर कर लेते हैं, लेकिन ल्युमियर बंधु भारत में कैसे आए? क्या था उनका मकसद? क्या थी उस समय की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियां? इसके बाद भारत की धरती पर फिल्में बनाने की शुरुआत कैसे हुई? ऐसे सवालों के जबाव इस पुस्तक में शामिल हैं। यही नहीं, पुस्तक में हिंदी सिनेमा के हर दौर की बड़ी से बड़ी उपलब्धियों की तत्कालीन सामाजिक परिदृश्यों से जोड़कर उसकी व्याख्या की गई है। मसलन ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ या ‘बॉबी’ जैसी फिल्में मुख्यधारा की ट्रेंडसेटर फिल्में हैं तो वे कौन सी सामाजिक परिस्थितियां थीं जिसके चलते इस स्वर और प्रस्तुति को जनता ने अपने दिल के बहुत करीब पाया। प्रकाशन विभाग से प्रकाशित होने के बावजूद ‘सेंसर और समाज’ जैसे अध्याय में सेंसर बोर्ड की बदलती प्रवृतियों पर तथ्यपरक बेबाक टिप्पणी है।
लिहाजा यह पुस्तक सिनेमा पर लिखे निबंधों का महज संकलन भर नहीं है। इसमें आरंभ से अब तक यानी ‘प्रि-साइलेंट युग’ से ‘पीके’ तक के सभी सिनेमाई सिलसिले को यूं विस्तार दिया गया है मानों आप किसी विकास कथा का अध्ययन कर रहे हों। निश्चय ही फिल्म प्रेमियों के साथ-साथ सिनेमा के क्षेत्र में शोधार्थियों के लिए भी यह एक संग्रहणीय पुस्तक है।
पुस्तक - समय, सिनेमा और इतिहास
लेखक - संजीव श्रीवास्तव
कीमत – सजिल्द - 430 रुपये, पेपरबैक - 385 रुपये
प्रकाशक - प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय