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पुस्तक समीक्षा: आजादी पर पहरा

हमारे देश में पत्रकारिता एक मायने में आजादी की लड़ाई की कोख से पैदा हुई है। बुलेटिन, अखबार या छापाखाना...
पुस्तक समीक्षा: आजादी पर पहरा

हमारे देश में पत्रकारिता एक मायने में आजादी की लड़ाई की कोख से पैदा हुई है। बुलेटिन, अखबार या छापाखाना की नींव भले अंग्रेजों ने रखी, लेकिन स्‍वतंत्रता संग्राम में हमारे महापुरुषों और नेताओं ने देश को जगाने और अपनी बात पहुंचाने के लिए पत्रकारिता को औजार बनाया। लोकमान्‍य तिलक,महात्‍मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू वगैरह हमारे कई महानायकों ने बेहद चर्चित पत्र-पत्रिकाएं निकालीं और उनका संपादन किया, जो अब हमारे स्‍वतंत्रता संग्राम के ऐतिहासिक दस्‍तावेज हैं। अपने लेखन के लिए उन्‍हें जेल की सजा भी काटनी पड़ी। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे हमारे क्रांतिकारी नेताओं ने भी अपनी लेखनी को औजार बनाया। सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं और साहित्‍य को अंग्रेजों ने जब्‍त किया। यह सब सर्वविदित है। पिछली सदी के शुरुआती दशकों में अंग्रेजों का लाया रॉलेट एक्‍ट के खिलाफ देश में बड़ा आंदोलन चला, जो अभिव्‍यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाता था। यहां उनकी विस्‍तार से चर्चा करने का कोई मकसद नहीं है। सिर्फ यह जाहिर करना है कि हमारी पत्रकारिता और लेखन की धाराओं का विकास और इतिहास भी 1857 में देश के पहले स्‍वतंत्रता संग्राम से ही अभिन्‍न हिस्‍सा रहा है।

इसी वजह से हमारे यहां या दुनिया भर में पत्रकारिता मानव स्‍वतंत्रता, सामाजिक-राजनैतिक बदलावों और सत्‍ता-प्रतिष्‍ठान से तीखे से तीखे सवालों के लिए ही जानी जाती रही है। हमारे देश की पत्रकारिता स्‍वतंत्रता संग्राम की उपज है, इसलिए आजादी के बाद भी जब-जब बंदिशें लगाने की कोशिशें हुईं, विरोध के स्वर उठे। कई बार सरकारों को कदम पीछे खींचने पड़े। मसलन, आजादी के बाद पहले दशक में ही सरकार की भौहें तनीं तो विरोध में कांग्रेस के भीतर से भी सवाल उठे। सरकार को कदम पीछे ही नहीं खींचने पड़े, बल्कि बाकायदा संसद में पंडित नेहरू के दामाद फिरोज गांधी ही विधेयक ले आए। दूसरा मामला राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल का है, जब बंदिशें लगाने की कोशिश हुई और सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े।

हालांकि इमरजेंसी में तो बाकयादा कानूनन सेंसरशिप लगाई गई। शुरू में विरोध हुआ लेकिन कुछ गिरफ्तारियों के बाद अखबार-प‌त्रिकाएं आदेश मानने को बाध्य हुईं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्‍ण आडवाणी के शब्दों में, ‘झुकने को कहा गया तो रेंगने लगे।’ बेशक, इमरजेंसी के हटते ही फिर आजादी की फिजा तारी हो गई। इसी संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिन्हा के संपादन और कई प्रतिष्ठित पत्रकारों के लेखों का संकलन फ्रीडम्स मिडनाइट महत्वपूर्ण हैं। वरिष्ठ पत्रकार उत्तम सेनगुप्ता लिखते हैं कि इमरजेंसी के दौरान रांची से निकलने वाले न्यू रिपब्लिक में लिखी गई टिप्पणी पर सरकार ने अखबार के खिलाफ ‌डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के तहत मुकदमा ठोंक दिया था निजी क्षेत्र और उसके गड़बड़झालों की आलोचना सरकार और नेताओं की आलोचना से मुश्किल था। लेकिन आज मुख्यधारा के लिए सरकार या निजी क्षेत्र दोनों की आलोचना असंभव हो गया है। 

अरुण सिन्हा कहते हैं, लोकतंत्र में मीडिया दोतरफा प्रवाह का माध्यम होना चाहिए। एक तरफ सरकार से लोगों तक जी2पी सूचनाओं का प्रवाह होना चाहिए तो दूसरी तरफ लोगों से सरकार तक पी2जी सूचनाओं का प्रवाह होना चाहिए। आज पी2जी प्रवाह लगभग बंद कर दिया गया है। विडंबना यह है कि इमरजेंसी की तरह कोई घोषित कानून लागू नहीं है। इसी वजह से वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी किताब में वर्णित इसके ब्यौरों और नजरियों को पढ़ना सबके लिए अनिवार्य बताते हैं।  

 

फ्रीडम्स मिडनाइट

संपादक: अरुण सिन्‍हा

प्रकाशक | प्रोमिला ऐंड कं. पब्लिशर्स

पृष्ठः 358 | मूल्यः 695

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