कथाकार राजेश झरपुरे का पहला उपन्यास ‘कबिरा आप ठगाइये’ उपन्यास की इसी तकनीक पर आधारित है। एक बड़े कालखंड के भीतर यह उपन्यास अनेक समयों और उनमें जीने वाले लोगों की पहचान करता चलता है। छोटे कलेवर के उपन्यास में अपनों द्वारा ठगे जाने का दुख ठोस रूप में है। साथ ही ठगने की साजिश का एक और पहलू भी सामने आता है कि ठग लेने और ठगे जाने दोनों की प्रतिक्रियाओं की भिन्नता दो भिन्न अनुभव-लोक सृजित करती है। यही कारण कि इस उपन्यास में एक बड़े प्रतीक के तौर पर ‘दो आंखें’ निरंतर कथावाचक का पीछा करती चलती हैं। वह लगातार सोचता है कि ये दो आंखें किसकी हैं? इन दो आंखों से जुड़ी शक्ल और इंसान की खोज में वह कभी अतीत की यात्रा करता है तो कभी अपने वर्तमान में लौटता है।
इस खोज में कथावाचक मैं बार-बार अनेक परेशानहाल लोगों के चेहरों पर इन आंखों को रखकर खुद से ही सवाल करता है कि ये आंखें किसकी हो सकती हैं? कभी वह कोयला खदान में काम करने वाले मृत खनिक अच्छेलाल की पत्नी सुखबती की आंखों से मिलती लगती हैं, कभी उसकी पत्नी की आंखों में तब्दील हो जाती है जो एक ही छत के नीचे जीवन बिताने के बावजूद एक मुख्तलिफ सी जिंदगी जी रही है, कभी वे दो आंखें अतीत के दरवाज़े से उस अशक्त, वृद्ध दंपति की आंखें हो जाती हैं जो अपने बेटे से अपमानित होकर घर छोड़ने को विवश है।
इस तरह उपन्यास के कई पात्र सूचनाओं के रूप में ही मौजूद हैं सकर्मक मुद्रा में नहीं। जिनका सक्रिय रूप उपन्यास को अधिक जीवंतता देने में समर्थ रहता। बहरहाल आंखों की खोज की यात्रा दरअसल समाज के अनेक पक्षों की परख की यात्रा के तौर पर सामने आती है। उपन्यास के अंतिम हिस्से में अचानक घटते घटनाक्रम में उभरती हरिशंकर मिसिरा की कथा कुछ और सवाल खड़े करती है।
कबिरा आप ठगाइये (उपन्यास)
राजेश झरपुरे
प्रकाशक साहित्य भंडार
मूल्य 100 रुपये