अच्छा लेखक वही है, जो विचारधारा थोपे बिना विचार करने लायक कहानियां लिख दे। लेकिन उमाशंकर चौधरी वैसे ही लेखक हैं, जो कभी भी राजनैतिक पैंतरेबाजी में नहीं उलझते न ही विचारधारा का दबाव उनकी कहानियों में दिखाई देता है। उनका नया कहानी संग्रह दिल्ली में नींद ऐसी ही कहानी है, जो समाज के कई रूपों को एक साथ दिखता है। ओड़िशा की तंगहाली और दिल्ली की तंगहाली के बीच झूलता उनका नायक सुनानी, एक ऐसी दुनिया रचता है, जिसे पढ़ कर लंबे वक्त तक केवल सुन्न ही रहा जा सकता है। सुनानी का पिता दिल्ली आता है क्योंकि उसे ओड़िशा में समुद्र खत्म हो जाने की चिंता है। यह चिंता कहानी में सिर्फ किसी अचरज के लिए नहीं है, बल्कि यह लेखक की उस बारीकी का प्रमाण है, जो पर्यावरण संरक्षण की बातों को केवल खूबसूरत लफ्जों में लिख कर इतिश्री मान लेते हैं।
उमाशंकर की कहानियों का विस्तार बहुत अधिक होता है। कहानी के इतने स्तर होते हैं कि पाठको के भटकने का खतरा बना रहता है। लेकिन उमाशंकर हर बार कहानी के विस्तार का अंतिम बिंदू वहां ले जाकर छोड़ देते हैं, जहां आगे पढ़ना पाठक की मजबूरी हो। अगर पाठक कहानी के अंत तक न पहुंचे तो बैचेनी हो जैसे उनकी एक और कहानी, कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी के वासुकी बाबू को है। कहने को तो यह मात्र एक छोटी सी चोरी की कहानी है। आए दिन हर शहर में ऐसी हजारों चोरियां होती रहती हैं। लेकिन लेखक ने इसे इतने रोमांचकारी और घटनाओं में बांट कर लिखा है कि अंत पढ़े बिना रहा नहीं जा सकता। यह कहानी बहुत चतुराई की कहानी है। लेकिन साथ ही साथ अति उत्साह के फेर में न पड़ने की भी कहानी है।
लेखकों से कहानी में अकसर झोल छूट जाते हैं। लेकिन यह संभवतः पहली कहानी होगी, जिसमें लेखक ने खुद झोल डाला और उसे बात में 'मॉरल ऑफ द स्टोरी' के रूप में समझाया भी। एक छोटी सी घटना को इतना विस्तार देकर लिखना और उसमें भी पाठक उलझा ही रहे यह कहानी की सफलता है। संग्रह की एक और कहानी कंपनी राजेश्वर सिंह का दुख एक लंबी पारिवारिक कथा है, जिसमें लेखक अतीत में झांकता है और वर्तमान की कहानी लिखता है। इस कहानी के अंत में ऐसा क्या है, जो आज नहीं होता। आज भी समाज वही है, बेटों के हाथ से मोक्ष पाने वाला।
नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां भी बहुत बारीक बुनावट की कहानी है। फुच्चु मास्साब की कहानी भी समाज के सरोकार को कहती है। इस कहानी में जीवन की कड़वी सच्चाई है। उमाशंकर चौधरी निम्न वर्ग की पीड़ा को बाहर लाते हैं लेकिन कहीं भी वे खुद उस पीड़ा का हिस्सा बन कर समजा की विद्रूपता को नहीं कोसते। वह दृश्य रखते हैं और पाठक इन दृश्यों को देखकर ही आंदोलित, विस्मित और उद्वेलित होता रहता है।
दिल्ली में नींद
उमाशंकर चौधरी
राजकमल प्रकाशन
159 पृष्ठ
160 रुपये