यह उपन्यास पढ़ते हुए यह सोच पाना कठिन होता है कि यह कहानी बीते कल की है, वर्तमान की या आने वाले कल की। एक पोती अनाहिता, जो वर्तमान में अपनी दादी के जीवन को फिर खोज रही है, एक दादी आपरूप, जो अपना गौरवपूर्ण जीवन जी चुकी और एक आठ साल की बच्ची रूप जिसमें भविष्य मुस्करा रहा है। रश्मि भारद्वाज ने दो कालखंड की कहानी को बहुत खूबसूरती से पिरोया है। कहीं भी इंच भर लापहवाही नहीं, कहीं कोई धागा छूटा हुआ नहीं। सघन बुनावट के साथ हर पात्र अपनी बात कहता है और वह सिर्फ अपनी कहानी ही नहीं कहता, बल्कि उस परिवेश की भी यात्रा करा देता है, जो उसके आसपास मौजूद है।
किसी भी कृति की पठनीयता तभी बनी रह सकती है, जब लेखक किसी पात्र पर हावी न हो। साल बयालीस के किसी भी पात्र की लगाम रश्मि ने नहीं थामी, उन्हें घूमने दिया, कहने दिया, करने दिया जो वे चाहते थे। आपरूप के रूप में उन्होंने उस कालखंड में ऐसी स्त्री को चित्रित किया, जो संख्या में भले ही कम थीं, लेकिन असंभव नहीं थीं। यह कहानी आजादी की पृष्ठभूमि में होते हुए भी प्रेम के खोने और पाने की कहानी है। चाहे वह आपरूप और रुद्र का प्रेम हो, अनाहिता और अमल का प्रेम हो या फिर सिद्धार्थ और अनाहिता का। इस प्रेम के बीच आपरूप के पति रामेश्वर और मुक्ता बुआ का प्रेम भी है, जो बताता है कि जीवन में पाना ही सबकुछ नहीं। रामेश्वर के प्रेम को लेखिका ने करीने से एक-एक परत कर समझाया। प्रेम पा लेने वाला हमेशा मीर हो ऐसा नहीं है कई बार वह हारा हुआ सेनापति भी हो सकता है। वहीं रूद्र को आपरूप सिर्फ शरीर से नहीं मिली, लेकिन चेतन-अवचेतन तो आपरूप का हमेशा रुद्र का ही रहा। मुक्ता बुआ का अपना प्रेम है और वह उस प्रेम के सहारे ही खुश भी है।
रश्मि ने आजादी के आंदोलन, बिहार की पृष्ठभूमि, क्रांतिकारियों की मनोदशा और पढ़ने की महत्ता के बीच प्रेम के पौधे रोंपे। आपरूप के रूप में ऐसी नायिका पाठको के सामने रखी, जो अपने दृढ़ संकल्प के बूते क्रांतिकारियों का साथ भी देती है और अपने प्रेम को खो देने के बाद, तमाम पारिवारिक दुश्वारियों को धकेलते हुए आशा के साथ खड़ी रहती है। साहित्य में आज ऐसी ही आत्मविश्वसी स्त्रियों की जरूरत है। रोने वाली, हार जाने वाली स्त्रियां रच कर साहित्य औरतों से बचा खुचा आत्मविश्वास भी छीन लेता है।
यह दो कालखंड की कहानी जरूर है जिसमें अनाहिता नए जमाने का प्रतिनिधित्व करती है लेकिन स्त्रियां तभी अनाहिता की तरह खड़ी हो पाती हैं, जब उनके पीछे परिवार हो। अनाहिता की जीवन यात्रा, उसके फैसले करने के तरीके से विश्वास करना सहज हो जाता है कि उसकी दादी आपरूप थीं, क्रांतिकारी आपरूप।
साल बयालीस उन उपन्यासों में है, जो स्त्री की बात करता है, स्त्री विमर्श की नहीं। क्योंकि विमर्श तो कई रूपों में किया जा सकता है लेकिन जमाने से लड़ने के लिए स्त्री को खड़ा करना सबसे कठिन काम है और रश्मि ने वह कर दिखाया है। आपरूप, अनाहिता और मुक्ता के चरित्र बताते हैं कि हक के लिए लड़ो और उसे छीनना पड़े तो भी पीछे मत हटो।
वह साल बयालीस था
रश्मि भारद्वाज
सेतु प्रकाशन
पृष्ठः 212
मूल्यः 249 रुपये