समीक्ष्य कृति- 'ढाई चाल'
लेखक - नवीन चौधरी
पृष्ठ संख्या - 191
प्रकाशक – राज कमल प्रकाशन समूह
मूल्य - 199
समीक्षा- अनघ शर्मा
“जे ही तो है ढाई चाल| घोड़ा जिसे शह देमे है वो खुद मार न सके है घोड़े ने पर मरवा सके है|”
उपन्यास के एक पात्र ‘चंगेज़’ के बोले ये वाक्य इस उपन्यास में इसके कथानक में बहुत भीतर तक पैवस्त हैं, गहरे उतरे हुए हैं|
नवीन चौधरी का ये उपन्यास ‘ढाई चाल” एक पैना और तेज़ गति से चलने वाली राजनैतिक घटनाओं का तानाबाना है| इस उपन्यास की घटनाओं और उसके पीछे के कारणों को लेखक ने जितनी बारीकी से दिखलाया है उससे यह पता चलता है कि ये कितनी तैयारी के साथ लिखा गया उपन्यास है और इसके लिए लेखक ने कितनी रिसर्च और मेहनत की होगी, इसकी बानगी पृष्ठ संख्या 37 पर चंगेज़ खान के हवाले से दर्ज़ बात से पता चलती है जिसमें उस इलाके में 1923 में अंजुमन ख़ादिम उल इस्लाम और बाद में तबलीगी जमात आने के बाद वहाँ की राजनीति और राजनैतिक संदर्भों में कैसे बदलाव आये और उनका क्या असर हुआ जो आज के वर्तमान पर देखा जा सकता है|
यूँ तो ‘हज़ारा’ एक काल्पनिक जगह है पर उपन्यास में सत्ता के गठजोड़ों में शामिल राजधानी से लेकर छोटे गाँव-कस्बों को जिस तरह से दिखाया गया है उसने इस काल्पनिक जगह के भारत के किसी भी असल कस्बे जैसा जिंदा बना दिया है, जिसके बीचो-बीच राजनीति अपनी चालें चलती रहती है, तिकड़म भिड़ाती रहती है| इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे बीच-बीच में ‘महाश्वेता देवी’ के उपन्यास “अक्लांतकौरव” जिसमें लोगों को नक्सल सिद्ध करने और आदिवासी जातियों के संघर्ष को खारिज करने के राजनैतिक दांव-पेंच हैं के साथ- साथ ‘मन्नू भंडारी’ के उपन्यास “महाभोज” की याद आईजिसके मूल में एक उपचुनाव है जिसमें जातिगत दांवपेंच की अंदरूनी राजनीति है| हालांकि नवीन चौधरी का उपन्यास ढाई चाल इन दोनों उपन्यासों से अपने ट्रीटमेंट में भिन्न है , फिर भी इस उपन्यास में दिखाई गई राजनैतिक बिसातें, भीतरी घात और उनसे निबटने का जो तरीका है वह इसे आज की राजनैतिक कथाओं के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है|
किताब के कवर पर ही इस उपन्यास का बीज-मन्त्र दे रखा है “एक घोर राजनैतिक कथा”, और ये उपन्यास अपने पाठकों के लिए ऐसी ही रोमांचक राजनैतिक कथा प्रस्तुत करता है“ जिसमें दो जातियों के जातिगत समीकरण हैं,व्यवसायिक वर्चस्व को बना ये रखने के हथकंडे हैं चाहे वह चमड़ा व्यापार पर कब्ज़ा बनाये रखना हो या अवैध हथियारों का बाज़ार, या वोट बैंक ना होने के कारण सिकलगीर जाति की कोई पूछ ना होना पर उन्हें ही अपने फ़ायदे के लिए अवैध व्यवसायों में लिप्त रखना” इस सबको ऐसे दर्शाया गया है कि उपन्यास शुरू करने के बाद उसे ख़त्म किये बिना पाठक को करार नहीं मिले|
इस उपन्यास में पात्रों को ऐसे गढ़ा है कि वह हमारे जाने-पहचाने, बरसों के देखे-भाले लगते हैं और यही बात इन पात्रों की विश्वसनीयता बनाए रखती है, जैसे कि अचला सिंह में विजयाराजे की झलक हम खुद अपनी तसल्ली के लिए खोज लेते हैं| मयूर और राघवेन्द्र इस कथा में ऐसे दो पात्र हैं जिनके कंधे पर रखकर इस बिसात में बार-बार मोहरे चले गए और हर बार शह-मात के खेल में ये इन्हें आमने-सामने देखना रोचक था| माधवी और सीमा ऐसे खिलाड़ी निकले जिन्होंने प्यादे की शक्ल में रहकर पसे-पर्दे इस कथा को एक कमाल थ्रिल में बदल दिया| चंगेज़ खान एक अलग और मजेदार किरदार बनकर उभरा, कई बार ये ख्याल भी आया कि अगर ये किरदार न होता तो लेखक कहानी को बोझिल होने से बचाने और आगे बढ़ने के लिए क्या करते| इस उपन्यास की एक और विशेषता है इसकी भाषा और संवादों की प्रस्तुति| ये संवाद इतने चुटीले और पैने हैं कि सीधे असर करते हैं, जैसे कि कुछ संवाद..
“राजनीति में बड़ा बनने के लिए एक नेता को चार बातें यादर खनी चाहिए- पहली, उसकी आमदनी के कई स्रोत हों, जायज़ चुनाव आयोग के फॉर्म में भरने के लिए और नाजायज़ अपनी तिजोरी भरने और मुसीबत में काम आने के लिए” (पृ.31)
“सरकारी योजना आम आदमी की आमदनी बढ़ाने के लिए नहीं होती|”(पृ.43)
यूँ तो ये उपन्यास नवीन चौधरी के पिछले उपन्यास ‘जनता स्टोर’ के सीक्वल के तौर पर देखा जा रहा है,पर ये उपन्यास अपने ताने-बाने में इस तरह बुना गया है कि अगर किसी पाठक ने जनता स्टोर ना पढ़ा हो तो भी वह इसे नितांत अलग एक मुक्कमल उपन्यास के तौर पर पढ़कर मायूस नहीं होगा; न उसे ये लगेगा की इसको पढ़ते हुए वह मयूर और राघवेन्द्र की दोस्ती/अदावत की पृष्ठभूमि से अपरिचित है|क्योंकि लेखक ने उस पृष्ठभूमि को इस उपन्यास में कई जगह बहुत सलीके से दर्शाया है|अपनी तेज़ रफ़्तार कहानी और दृश्यात्मकता के चलते ये उपन्यास वेब-सिरीज़ या ऐसी ही अन्य किसी विधा में ढलने के लिए बहुत माकूल पटकथा उपलब्ध कराता है|
191 पृष्ठों का ये उपन्यास ‘राधा कृष्ण प्रकाशन’ के उपक्रम ‘फंडा’ से प्रकाशित हुआ है| एक सफल और सधी राजनैतिक कृति देने के लिए लेखक को बहुत बधाई|