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'ऑपरेशन अक्षरधाम’: भारतीय राज्य के विश्वासघात की कहानी

ऑपरेशन अक्षरधाम किताब अक्षरधाम मंदिर पर हमले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नए सिरे से जांच-पड़ताल करने की जरूरत को रेखांकित करती है। इस घटना मे असली अपराधी फिलहाल लापता हैं, हालांकि उनके बारे में संकेत मौजूद हैं। गहरी जांच-पड़ताल व गंभीर राजनीतिक विश्लेषण के साथ, और जोखिम उठाकर, लिखी गयी 'ऑपरेशन अक्षरधाम’ बहुत जरूरी, प्रासंगिक व महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं।
'ऑपरेशन अक्षरधाम’: भारतीय राज्य के विश्वासघात की कहानी

'...''ऑपरेशन अक्षरधाम’’ को सिर्फ कुछ निर्दोष हिंदुओं के मारे जाने या उतने ही निर्दोष मुसलमानों को जीते जी मार दिये जाने की कहानी के तौर पर ही नहीं देखा जाना चाहिए। इसे आधुनिक भारतीय राज्य द्वारा अपनी ही बुनियादों से विश्वासघात के तौर पर देखा जाना चाहिए।’ इन वाक्यों के साथ हिंदी किताब 'ऑपरेशन अक्षरधाम’ (2015) का मुक्चय हिस्सा खत्म होता है, और इसके बाद परिशिष्ट/ संलग्न वाला हिस्सा शुरू होता है। यह हिस्सा भी, जिसमें कुछ दुर्लभ तस्वीरें और दस्तावेज हैं, उतना ही स्तब्‍ध करता है, जितना मुख्य हिस्सा किताब खत्म करते-करते, देश के नागरिकों- खासकर मुसलमानों - के साथ किए गए डरावने, दर्दनाक विश्वासघात की कहानी पुरजोर तरीके से सामने आती है। 1947 के बाद खासकर मुसलमान से जो देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय था और अभी भी है, भारतीय राज्य का दावा था कि उन्हें समानता, धर्म-निरपेक्षता व सुरक्षा पर आधारित न्यायपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था मिलेगी। यह वादा कैसे जानबूझकर तार-तार किया गया, और आगे चलकर भारत के राजनीतिक नेतृत्व व सत्ता प्रतिष्ठान ने 'आतंक के खिलाफ युद्ध’ को किस तरह सोची-समझी साजिश के तहत इस्लाम व मुसलमान के खिलाफ भयावह युद्ध में तब्दील कर दिया और इसे फासीवादी हिंदुत्व के एर्जेंडे का मुख्य बिंदु बना दिया- 'ऑपरेशन अक्षरधाम’ किताब इसका खौफनाक लेकिन आलोचनात्मक विश्लेषण पेश करती है। भारतीय राज्य व्यवस्था, उसकी सुरक्षा व खुफिया एजेंसियां, न्यायपालिका का बड़ा हिस्सा कैसे झूठ पर झूठ बोलते रहे हैं- यह किताब सार्वजनिक तौर पर मौजूद तथ्यों व सबूतों के आधार पर इन सबका परदाफाश करती है।

यह किताब, जो मूल हिंदी के साथ इसी नाम से उर्दू में भी उपलब्‍ध है, दो नौजवान पत्रकारों फिल्मकारों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं- राजीव यादव (जन्म 1984) और शाहनवाज आलम (जन्म 1983) ने मिलकर लिखी है। दोनों पत्रकार लेखक उत्तरप्रदेश के हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पढ़े हुए हैं। गहरी जांच-पड़ताल व गंभीर राजनीतिक विश्लेषण के साथ, और जोखिम उठाकर, लिखी गयी 'ऑपरेशन अक्षरधाम’ बहुत जरूरी, प्रासंगिक व महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। इससे दस्तावेजी तौर पर पता चलता है कि भारतीय राज्य व्यवस्था के अंदर लंबे समय से और बहुत गहराई तक इस्लाम-विरोधी, मुस्लिम-विरोधी व लाकेतंत्र-विरोधी धारणा (साइकि) जड़ जमाए हुए हैं, और यह व्यवस्था मुसलमानों का उत्पीड़न करने और उनकी खंूखार, अत्याचारी व 'देशद्रोही’ बनाने के लिए कि सभी हद तक जा सकती है। इस काम में समाचार माध्यम का अच्छा-खासा हिस्सा 'मदद’ करने के लिए तैयार रहता है। यह किताब इस बात को बहुत मजबूती से रखती है कि 'मुसलमानों के साथ हो रहा भेदभाव संस्थागत है, जहां अधूरे सच, नकली सबूतों और अंधी आस्थाओं की भरमार है।’

जैसा कि किताब के नाम से जाहिर है, यह गुजरात की राजधानी गांधीनगर में अक्षरधाम मंदिर पर 24 सिंतंबर 2002 केा हुए हमले और उसके बाद की पुलिस व अदालती कार्रवाई पर केंद्रित है। इस हमले, और उसे बाद सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई, में कुल 33 लोग मारे गए, जिनमें दो 'आत्मघाती हमलावर’ ('फिदाइन’) और गुजरात पुलिस का एक सिपाही अल्ला रक्‍खा शामिल था। मारे गए लोगों में ज्यादा तादाद औरतों, बच्चों व बूढ़ों की थी। उस समय राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार थी और नरेंद्र्र मोदी मुख्यमंत्री थे। (वही इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं।) तब केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।

लगभग एक साल तक गुजरात पुलिस अक्षरधाम मंदिर पर हमलें का सुराग नहीं लगा पायी, हालांकि इस दौरान सैकड़ों मुसलमानों को गैर कानूनी तरीके से हिरासत में रखने, शारीरिक यातनाएं देने, मानसिक रूप से प्रताड़ित करने और अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अचानक 24 अगस्त 2003 को गुजरात पुलिस ने इस मामले को 'सुलझा’ लेने का दावा किया और उसने छह लोगों (सभी मुसलमान) की गिरफ्तारी दिखाई। असहनीय यातनाएं देकर इन गिरफ्तार लोगों से जबरन कबूल नामे लिखवाये गए, और लंबा मुकदमा चला। इन सभी छह आरोपितों को गुजरात की निचली अदालत (पोटा अदालत) व बाद में गुजरात हाईकोर्ट ने, बचाव पक्ष की सारी दलीलों वे सबूतों को अनसुना/खारिज करते हुए और सारे नियम-कायदों व कानूनों का उल्लघंन करते हुए, अक्षरधाम मंदिर पर हमलें के मामले में सजा सुनायी : तीन केा मौत की सजा, एक को उम्र कैद, एक को दस साल व एक के पांच साल की कैद।

यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, और सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2014 को अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया: निचली अदालतों से दोषी ठहराए गए सभी छह व्यक्तियों को उसने बरी कर दिया। ऐसा करते हुए उसने गुजरात पुलिस, पोटा अदालत व गुजरात हाईकोर्ट के गलत व लचर तौर-तरीकें, पक्षपातपूर्ण कार्यप्रणाली, कानून-विरुद्ध आचरण और मनमाने व्यवहार पर तीखी टिप्पणियां की। उसने अभियुक्तों पर पोटा (आतंकवाद निरोधक कानून) लगाने की मंजूरी देने में तत्कालीन गुजरात सरकार के गृहमंत्री को- 'अपने विवेक का इस्तेमाल न करने’ 'दिमाग न लगाने’ के लिए- कड़ी आलोचना की। तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पास गृहमंत्री का भी कार्यभार था। क्या विडंबना है कि जिस दिन सुप्रीम कोर्ट नरेंद्र मोदी की 'हार’ की घोषणा कर रहा था, उसी दिन सोलहवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव के नतीजें 'अपने विवेक का इस्तेमाल न करनेवाले’ मोदी और उनकी पार्टी भाजपा को बंपर जीत दिला रहे थेे।

 

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 बहरहाल, लगभग बाहर साल जेल में बिताने और अमानुषिक यातनाएं सहने के बाद सभी छह अभियुक्त बरी होकर बाहर हो गए हैं और आजाद हैं। लेकिन जिन्होंने उनकी जिंदगी और आजादी के बारह साल छीने, क्या उन्हें सजा मिलेगी? जिसने 'अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया’, क्‍थ्या उसे कठघरे में खड़ा किया जा सकेगा? जिन्होंने फर्जी मुकदमा बनाया, झूठे सबूत तैयार किए, आरोपितों को भयानक यातनाएं दीं, उनसे जबरन इकबालिया बयान लिखवाए- क्या उन्हें दंडित किया जाऐगा ? वे 'आत्मघाती हमलावर’ कौन थे और कहां से आये थे ? तैंतीस लोगों की हत्या किसने और क्यों की ? ये सारे जरूरी सवाल 'ऑपरेशन अक्षरधाम’ किताब शिद्दत से उठाती है और तब की गुजरात सरकार को कठघरे में खड़ा करती है। अक्षरधाम मंदिर पर हमले के मामूल में तत्कालीन गुजरात सरकार और उस समय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका शुरू से ही गहरे संदेह के दायरे मे रही है। यह किताब इस मामले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नए सिरे से जांच-पड़ताल करने की जरूरत को रेखांकित करती है। इस घटना मे असली अपराधी फिलहाल लापता हैं, हालांकि उनके बारे में संकेत मौजूद हैं।

'ऑपरेशन अक्षरधाम’ की प्रस्तावना जाने-माने लेखक, राजनीतिक विश्लेषक व मानवाधिकारवादी गौतम नवलखा ने लिखी है। इससे इस किताब का महत्व और बढ़ जाता है।

किताब:

'ऑपरेशन अक्षरधाम’ (राजनीतिक विश्लेषण): राजीव यादव व शाहनवाज आलम, फारोस मीडिया ऐंड पब्लिसिंगे प्रा. लि., डी-84, अबुल फजल एन्‍क्लेव-1, जामिया नगर, नयी दिल्ली-110025, 2015, पेज 236, पेपरबैक, रु. 250.00

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पुस्तक  अंश

कैपेबिलिटी डेमोंस्ट्रेशन के लिए अक्षरधाम ही क्यों?

(पुस्तक के अध्याय 15 से लिया गया अंश)

तत्कालीन राजग सरकार के नियंत्रण वाली खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों ने अक्षरधाम मंदिर को अपने कैपेबिलिटी डेमोंस्ट्रेशन (क्षमता प्रदर्शन) के लिए, जो तत्कालीन अमेरिकी उप मंत्री, दक्षिण एशिया, क्रिस्टीना रोक्का के भारत दौरे के दौरान हुआ था, क्यों चुना होगा, इस पर बात करने से पहले उपयुक्त होगा कि इस घटना से दो साल पहले 20 मार्च, 2000 को हुए छत्तीसिंहपुरा (जम्मू और कश्मीर) जनसंहार कांड पर भी बात की जाए। क्योंकि, इन दोनों घटनाओं में एक महत्वपूर्ण समानता है। वह जघन्य जनसंहार भी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा की पूर्वसंध्या पर हुआ था। भारतीय विदेश नीति के तेजी से अमेरिका केंद्रित होते जाने के दौर में हुई इन दोनों घटनाओं का 'अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय सामरिक’ महत्व था।...

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लेकिन जैसा कि धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति के प्रभावी होने की स्थिति में होता है, धर्म की उदार आवाजें पीछे छूट गईं और संकीर्ण राजनीति प्रबल हो गई। जो मुसलमान दंगों के बाद स्थिति के सामान्य होने के कारण धीरे-धीरे लौटने लगे थे, उन्हें ऑपरेशन अक्षरधाम के नाम पर हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा किए गए बंद के आह्वान के बाद फिर राहत शिविरों में भागना पड़ा। जैसे ही हमने अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले के बारे में सुना, एक और हमले के डर से हम रात को भाग आए...

ऑपरेशन अक्षरधाम

 

 

 

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