पुस्तक- लेखक की अमरता
लेखक- स्वप्निल श्रीवास्तव
प्रकाशक- आपस पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, अयोध्या
स्वप्निल जी हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि-लेखकों में शुमार हैं। रामजी की नगरी अयोध्या में उनका शरीर बसता है और आकुल मन बउखते रहता है उनका, अवध के गाँवों में। ज्यादातर इन्हीं गाँवों के सुख-दु:ख उनके गद्य-पद्य में टहल रहे होते हैं।
अपने लोक के साथ अपने लोगों की यादों को सहेजना उनकी फितरत में शामिल है। 'जैसा मैंने जीवन देखा ' के बाद 'लेखक की अमरता ' का आगमन इसी बात की गवाही देता है।
डाकिया भाई जिस दिन दे गए, यह किताब उसी रात से यह मेरे साथ सोती- जागती रही, निंदिया रानी के आगमन तक खूब बोली, पूरी आत्मीयता से बतियायी।
'मिथक से यथार्थ तक का सफ़र' बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी गिरीश कर्नाड के जीवन का सफ़रनामा है। लेखक ने इसमें उनके जनम से करम तक की बहुविध यात्रा का बारीक विश्लेषण दर्ज किया है। इस स्मृति लेख को पढ़ने के पूर्व अगर मुझे कर्नाड के व्यक्तित्व-कृतित्व की रेखाएँ खींचनी होतीं तो मेरी कलम फिल्म 'आशा' से लेकर धारावाहिक 'मालगुडी डेज' तक के दृश्यों-संवादों के इर्द-गिर्द ही घिसती रहती और फिर कवीन्द्र रवीन्द्र के कवि कर्म पर उनके विवादित बयानों को दर्ज कर बटनहोल में घुस जाती । इस लेख से गुजरते हुए कर्नाड नामक प्राणी के एक चेहरे के पीछे छुपे कई और चमकदार चेहरों से रूबरू होना जितना रोमांचक है, उतना ही विस्मयकारी भी।
नामवर सिंह के कहन का इत्र जिस किसी पर लग गया, वह रातों-रात माना हुआ कवि हो गया। लाख कथा बुनते रहिये, बिना नामवर के ठप्पे के कहानीकारों की सूची में नाम दर्ज करवा पाना असंभव था। अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा नाम उन्हीं का बजा। आज वे सशरीर अनुपस्थित हैं बावजूद भी बज रहा है। क्यों? वजहें ' तुमुल कोलाहल में आलोचना की आवाज' शीर्षक लेख में दर्ज है- ' नामवर अपनी स्थापनाओं के लिए जाने जाते हैं, आलोचना की भाषा को सहज सुग्राह्य बनाने में उनकी महती भूमिका है, नयी कहानी हो या नयी कविता, नया अर्थ उन्होंने ही दिया..।
नंदकिशोर नवल और परमानंद श्रीवास्तव नामवर -परम्परा के ही ध्वजवाहक रहे लेकिन आलोचना की नयी जमीन तैयार करने में इन दोनों ने नामवर जी से इतर महत्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य किए। 'आलोचक की सजग दृष्टि' लेख में स्वप्निल जी ने नवल जी के आलोचकीय अवदानों की विशद व्याख्या की है। उन्हें कविता में सिर्फ विचारधारा ही नहीं, संवेदना की पड़ताल करने वाले आलोचक के रूप में याद किया है। किसी बड़बोले कवि लेखक के एक्शन पर नवल जी का रियेक्शन भी अलहदा होता। अपनी आवारगी में भी खूब सुंदर दिखने वाले कवि शलभ श्रीराम सिंह के कविता संग्रह 'कल सुबह होने से पहले' का नामोल्लेख उन्होंने 'ध्वज भंग' में जरूर किया परंतु सामने क्रॉस का निशान लगा दिया। ' कुत्ते और आलोचकों से सख्त नफ़रत' करने वाले कवि के प्रतिकार के इस अंदाज़ की उन दिनों भी खूब चर्चा हुई । एक नितांत निजी बातचीत में नवल जी ने इस कृत्य को साहित्यिक बदमाशी की संज्ञा दी थी।
'पहाड़ पर लालटेन ' जला कर हिन्दी कविता को नई रोशनी देने वाले सुकवि मंगलेश डबराल और अपनी कविता में गीत तत्व को बचाये रखने वाले कवि केदार नाथ सिंह की स्मृति के बहाने लेखक ने आधुनिक हिंदी कविता परम्परा पर गंभीर विमर्श किया है जिसे पढ़ा जाना चाहिए।
साठोत्तरी कहानी में साढ़े चार यार की मंडली में जरूरी यार दूधनाथ सिंह, अपने समय के सुपरिचित गीतकार देवेन्द्र कुमार बंगाली, कहानीकार बादशाह हुसैन रिजवी और कामरेड सव्यसाची की यादों के साथ स्वप्निल जी की शहर, समय और साहित्य को लेकर इस पुस्तक में दर्जनों किस्से हैं जिन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करने के समान है।
इन स्मृति आख्यानों का अनकहा रह जाना दरअसल एक समय का ही अनकहा रह जाने के समान होता। स्मृति लोप के खतरों के बीच इस तरह की किताब का आना हिन्दी साहित्य जगत की एक सुखद घटना है।