रविदत्त बाजपेयी
इस पुस्तक के केंद्र बिंदु विनायक दामोदर सावरकर और उसके लेखक विक्रम सम्पत दोनों ही अनूठे हैं। अपने जीवनकाल और उसके बाद भी सावरकर का व्यक्तित्व विवादस्पद रहा है। उनके समर्थकों ने उन्हें एक राष्ट्रवादी और पूज्य नायक माना, जबकि विरोधियों ने उन्हें सांप्रदायिक और त्याज्य खलनायक का तमगा दिया। भारतीय इतिहास में 19वीं और 20वीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध के साथ राजनीतिक अधिकारों और सामाजिक पुनरुत्थान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की अहम भूमिका रही है। संप्रदाय केंद्रित राजनीति के पैरोकारों जैसे सर सैय्यद अहमद खान, मोहम्मद अली जिन्ना, महामना मदन मोहन मालवीय, अब्दुल अल मदूदी आदि पर काफी लिखा गया है। लेकिन भारत के प्रगतिशील-उदारवादी बौद्धिक विमर्श को सावरकर से परहेज रहा है। लंबे समय के बाद विनायक दामोदर सावरकर पर इधर लिखना शुरू हुआ है। विक्रम सम्पत ने राजनीतिक-वैचारिक पूर्वाग्रह या आसक्ति से ऊपर उठकर दो खंडों में यह पुस्तक लिखी है। निसंदेह, भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य को समझने के लिए हिंदुत्व के प्रणेता को जानना-समझना भी आवश्यक है।
दूसरे भाग में विक्रम सम्पत ने सावरकर के 1924 में कालापानी से लौटकर भारत आने से लेकर 1966 में उनकी मृत्यु तक के कालखंड पर लिखा है। इसमें उन्होंने कई महत्वपूर्ण लेकिन ऐसे पहलुओं का विवरण दिया है, जो कम ही लोगों को पता हैं या जिनकी जानकारी नहीं है। इसमें सावरकर और खिलाफत आंदोलन के नेता मौलाना शौकत अली के बीच धर्मान्तरण और शुद्धिकरण को लेकर मतभेद का भी वर्णन है। अली हिंदू संगठन के शुद्धिकरण को सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा मानते थे जबकि मुस्लिम धर्मान्तरण को अपना धार्मिक कर्त्तव्य मानते थे। एक समय यह माना गया कि अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए अन्य हिंदूवादी नेताओं की तरह सावरकर को भी अंततः कांग्रेस के साथ ही जुड़ना होगा। हालांकि कई अवसर पर सावरकर ने कांग्रेस और विशेषकर गांधी की इतनी तीखी आलोचना की कि वह समूची मध्यमार्गी राजनीति के लिए अवांछनीय व्यक्ति बन गए। पुस्तक में यह उल्लेख भी है कि आलोचना से क्षुब्ध कांग्रेस समर्थकों द्वारा सावरकर पर हमले भी किए गए। स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे को जब गांधी ने अपना प्यारा भाई बताया तो सावरकर ने कहा था कि अपनी महात्मा की छवि बनाए रखने के लिए गांधी हिंदुओं की आहुति देने को हमेशा तैयार रहे हैं।
सावरकर के हिंदू राष्ट्र की कल्पना एक पुरातनपंथी या दकियानूसी धारणा नहीं थी, अपितु यह यूरोप की आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में राष्ट्र-राज्य, राष्ट्रवाद, सामजिक समानता पर आधारित थी। सावरकर वर्णाश्रम व्यवस्था, छुआछूत और जाति प्रथा का अंत चाहते थे। उनकी इस मुहिम को डॉ. आंबेडकर का समर्थन भी प्राप्त था। सावरकर खान-पान में पूरी तरह स्वतंत्रता के हिमायती थे। उन्होंने गाय को कभी भी पूज्य नहीं बताया। सावरकर के लिए आधुनिक हथियार ही किसी राष्ट्र की शक्ति के प्रतीक थे। वे भारतीय सेना में हिंदुओं की भर्ती का अनुपात बढ़ाने के भी पक्षधर थे। विदेश नीति के मामले में सावरकर एक यथार्थवादी सोच रखते थे और भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश राज के किसी भी दुश्मन से सहायता लेने को तैयार थे, भले ही वह राष्ट्र या उसका शासक कितना ही बर्बर क्यों न हो। अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर सावरकर और नेताजी सुभाष बोस की सोच काफी समान थी।
सम्पत ने अपनी पुस्तक में हिंदुत्व की राजनीति के भीतर के अंतर्विरोधों पर भी प्रकाश डाला है। जैसे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हेडगेवार और उनके उत्तराधिकारी गोलवलकर से सावरकर के बहुत अच्छे संबंध नहीं थे। हेडगेवार ने सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा के हैदराबाद में चलाए गए आंदोलन को समर्थन देने से इंकार कर दिया था। 1942 में गोलवलकर ने संघ को हिंदू महासभा से अलग सांस्कृतिक संगठन बताया था, जिसका कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में हिंदू महासभा को बड़ी पराजय मिली, जिसके बाद से कांग्रेस पार्टी हिंदुओं की एकमात्र प्रतिनिधि रह गई और सावरकर और उनका दल राजनीति में लगभग अप्रासंगिक हो गया। सावरकर का मानना था कि इस राजनीतिक पराभव का कारण आरएसएस और आर्य समाज का हिंदू महासभा के स्थान पर कांग्रेस तो समर्थन देना था। जबकि सम्पत मानते हैं कि सावरकर हिंदू महासभा को व्यापक जनांदोलन से जोड़ नहीं पाए और न ही उन्होंने राजनीतिक सूझबूझ से समान विचारधारा के अन्य संगठनों से गठबंधन किया। पुस्तक में सावरकर का महासभा में अपने ही उत्तराधिकारी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ प्रतिस्पर्धा और तनातनी का भी रोचक वर्णन है। इसमें गांधी की हत्या के लिए सावरकर को दोषी ठहराने, उन पर मुकदमा चलाने और उनके अंततः उनके निर्दोष सिद्ध होने के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।
जैसा शुरुआत में मैंने कहा था, पुस्तक लेखक विक्रम सम्पत भी अनूठे हैं। वो इसलिए कि वे एक इतिहासवेत्ता जरूर हैं लेकिन वे इतिहासकार के रूप में किसी स्थापित खांचे में नहीं ढले, किसी सरकारी या गैर-सरकारी संस्थान की वैचारिक प्रतिबद्धताओं में नहीं बंधे, ज्ञान परंपरा के किसी विख्यात मठ के अनुयायी नहीं रहे। सम्पत मूलतः एक गणितज्ञ-इंजीनियर हैं, जिन्होंने फाइनेंस में एमबीए किया, कर्नाटक संगीत में गायन सीखा, भारत की कई भाषाओं में पारंगत हुए और इस सबके के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड विश्वविद्यालय से इतिहास में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। पुस्तक में सम्पत का इतिहास बोध, शोध वृत्ति और बौद्धिक प्रतिबद्धता साफ झलकती है।
यह पुस्तक भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति का जीवन चरित है। इस तरह की और पुस्तकों का लिखा जाना आवश्यक है। यह सावरकर और बौद्धिक मुख्य धारा से परित्यक्त अन्य भारतीय व्यक्तित्वों पर गंभीर लेखन और विमर्श का क्रम शुरू करेगी ऐसी आशा है।
सावरकर: इकोस फ्रॉम ए फॉरगॉटन पास्ट, 1883-1924 (पहला खंड)
पृष्ठ संख्या: 624
मूल्य 999 रुपये
सावरकर: ए कंटेस्टेड लिगेसी (खंड दो)
पृष्ठ संख्या: 712
मूल्य 999 रुपये
(समीक्षक ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी कैनबरा के कॉलेज ऑफ एशिया एवं पैसिफिक में विजिटिंग फेलो है)