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Search Result : "अंसार अहमद शेख"

शांति के पासे फेंकने की जरूरत

शांति के पासे फेंकने की जरूरत

निर्मला देशपांडे की पाकिस्तान में बरसी से उठी ये सदाएं मनमोहन सिंह पहुंची या यह उनकी अंत: प्रेरणा थी अथवा अमेरिकी उत्प्रेरणा, जैसा कि कुछ लोग विश्‍वास करना चाहते हैं, शर्म अल शेख के संयुक्त वक्तव्य में ब्लूचिस्तान के जिक्र के लिए राजी होकर और भारत-पाक समग्र वार्ता के लिए भारत में आतंकवादी हमले रोकने की पूर्व शर्त को ढीला करके भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति के लिए एक जुआ खेला है। मुंबई हमले के बाद दबाव की कूटनीति से भारत को जो हासिल होना था वह हो चुका और पाकिस्तान को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकतंत्र के खिलाफ अपेक्षया गंभीर कार्रवाई के लिए बाध्य होना पड़ा। दबाव की कूटनीति की एक सीमा होती है और विनाशकारी परमाणु युद्ध कोई विकल्प नहीं हैं। इसलिए वार्ता की कूटनीति के लिए जमीन तैयार करने की जरूरत थी। ब्लूचिस्तान के जिक्र को भी थोड़ा अलग ढंग से देखना चाहिए।
आज की शब पौ फटे तक जागना होगा

आज की शब पौ फटे तक जागना होगा

उस कदर प्यार से ऐ जाने जहां रखा है दिल के रुखसार पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ अक्सर हमारी तनहाइयों में लरजां रहे उनकी आवाज के साये, गो हम कभी इकबाल बानो का दीदार नहीं कर सके और वह चली गई। हालांकि हमारे और इस उपमहाद्वीप के दिल की गहराईयों में वह हमेशा सुलगती रहेंगी। उफक पर चमकती हुई। सच पूछो तो बानो के सामने, पुरानी कहावत के मुताबिक, हम कभी जनमे ही नहीं क्योंकि हमने उनका लाहौर कभी नहीं वेख्या, हालांकि वह हमारी दिल्ली से ही वहां जा बसी थीं। पर आधुनिक टेक्नोलॉजी का कमाल कहिए कि इकबाल बानो की दमदार आवाज ने इस पार के करोड़ों लोगों की तरह हमारी रगों में भी एक अजीब वक्त की बेडिय़ों में जकड़े लाहौर की जुंबिश धडक़ाई थी: जब जुल्मों सितम के कोहे गरां रूई की तरह उड़ जाएंगे हम महकुमूं के पांव तले ये धरती धड़-धड़ धडक़ेगी और अहले हुकुम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कडक़ेगी हम देखेंगे
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