अभिषेक मिश्रा- हिंद पाक तहजीब के कलम के सिपाही, गंगा जमुना तहजीब के मिसाल जिन्होने अपने लेखन से जोड़ा दो मुल्को को और जिनसे यानी इंतजार हुसैन साहेब से मिलना एक गौरव की बात रही और आज उनका जाना एक दुखद खबर.......नमन ....आमीन।
नैय्यर इमाम सिद्दकी- आज मेरी दो पसंदीदा अभिनेत्रियों वहीदा रहमान और दीप्ती नवल के जन्मदिन की ख़ुशी का रंग कल मशहूर अफसानानिगार और कॉलमनिस्ट इंतज़ार हुसैन के दुनिया को अलविदा कह देने से कुछ फीका पड़ गया है। जाने क्यूं मेरी जिंदगी में खुशी और गम इकट्ठे आ जाते हैं- अलहदा-अलहदा नहीं।
जितेंद्र विसरिया- आखिरी सलाम, इंतजार हुसैन साहब।
पत्रिका- पाकिस्तान के जाने माने साहित्यकार इंतजार हुसैन नहीं रहे। वे 93 बरस के थे और पिछले कुछ दिनों से बुखार से पीड़ित थे। इंतजार पूरी दुनिया में उर्दू साहित्य में मौजूदा दौर के अहम कहानीकारों में से थे। इंतजार हुसैन का जन्म भारत के मेरठ जिले में हुआ था लेकिन विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। इंतजार पहले पाकिस्तानी थे, जो 2013 में अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज के लिए शॉर्ट-लिस्ट किए गए थे।
राजकमल प्रकाशन- इंतज़ार हुसैन, (7 दिसंबर 1923 - 2 फ़रवरी 2016), हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि!
मुस्लिम मोहम्मद- उर्दू के मशहूर कथाकार इंतेजार हुसैन नहीं रहे। वह 93 साल के थे। उनकि मशहूर पुस्तक हिंदुस्तान से आखरी खत,आगे समंद्र है और बस्ती शामिल है। इंतेजार साहेब हिंद पाक भाईचारे के लिए हमेशा लगे रहे। हिंद पाक दोस्ती कि मज़बूत कड़ी थी,जो टूट गई।
रवि सिंह- इंतजार हुसैन साहब नही रहे। आज लखनऊ यूनिवर्सिटी के शुरुवाती दिन याद आ रहे हैं । जब उन्हें उर्दू डिपार्टमेंट में सुना था। उनको सुनना उनको पढ़ने से कम मजेदार नही था। अंततः बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते।
सरवर इकबाल खान- साहित्य का जाना माना नाम इंतेजार हुसैन नहीं रहे । वह 93 साल के थे । आखिरी सांस लाहौर के एक अस्पताल में ली। भारत पाकिस्तान की दोस्ती की एक और कड़ी टूट गई ।
सईद अली अख्तर- उर्दू के मशहूर लेखक और हिंदुस्तान के बुलंदशहर से ताल्लुक रखने वाले इंतेजार हुसैन अब हमारे बीच नहीं रहे, 93 साल की उम्र में उनका इंतेकाल हो गया। विभाजन के वक्त वह पाकिस्तान चले गए थे और वहीं उन्होंने आखिरी सांस ली। इंतेजार ने 100 से ज़्यादा शॉर्ट स्टोरीज और चार उपन्यास लिखे और दो वॉल्यूम में आत्मकथा भी लिखी। उनकी रचनाएं हिंदी समेत कई भाषाओं में प्रकाशित हुईं। मुझे भी उनकी कई कहानियां और उपन्यास पढ़ने का सौभाग्य मिला। वाकई उनकी लेखनी का जवाब नहीं था।
अरविंद कुमार- और मैं अभी तक फकत एक, महज एक, सिर्फ एक हिंदू बुजुर्ग तलाश रहा हूं। मेरे दादा मरहूम के साथ अपने लाहौर, सरगोधा, पेशावर की मिट्टी लेकर नए-नए बने 'पाक' पाकिस्तान से भाग कर आए लोगों की भीड़ में से, जिसे इंतिजार साहब की तरह 'अपनी' ज़मीन पर लौट पाना और इज्जत से 'अपनी पैदाइश के मजहब' में ही मर पाना नसीब हुआ हो, अभी तक तो आया नहीं सुनने में कोई। बात मंदिर की चली है तो गुजरांवाला के बीचों बीच बने एक प्राचीन शिवालय में जलाभिषेक करते मेरे दादा की मसें भीगी थीं - 1948 की मार्च में सुना उसे तोड़ कर काफी बड़ा पेशाब घर और पाखाना बना दिया गया वहां। मेरे दादा के वालिद साहब उसी सदमे से अपने जिस्म को अलविदा कह बैठे थे। लिहाजा इस 'सांझेपन' में किसकी आरामतलब और स्वार्थी 'कलात्मक' सेक्युलर रचनाधर्मिता कितनी सांझा है और किसकी रूहों के छेद से रिसता लहू कितना सांझा है, इसे इंतजार हुसैन जैसे 'ताज़िंदगी मोमिन' नहीं, अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने 'ताजिदगी काफिर' अच्छे से जानते थे और हैं।